झारखंड में भाजपा : बोये पेड़ बबूल का

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– पंकज झा

अब अंततः जब झारखंड में महीनों की छीछालेदर के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है तो इस लेखक को उस प्रदेश के चुनाव परिणाम आने से पहले की शाम की याद आ रही है. रायपुर का माना विमान स्थल. अगले दिन झारखंड विधानसभा का परिणाम आने वाला है. संयोग से वहां के चुनाव में रणनीतिकार एवं प्रभावी भूमिका निभाने वाले भाजपा के सभी नेतागण यहीं से दिल्ली की उड़ान भर रहे हैं. परिणाम आने के बाद मुख्यमंत्री या नेता चयन के लिए होने वाले दिल्ली की बैठक में शामिल होंगे. पता नहीं किस कारणवश, लेकिन सभी के चेहरे पर आश्वस्ति का भाव. कुछ शुभचिंतकों के पूछने पर स्पष्ट रूप से शीर्ष नेताओं का यह आश्वासन की 81 सदस्यीय विधानसभा में 35 से कम सीट आने पर किसी भी तरह का जोड़-तोड़ के बदले सीधे विपक्ष में बैठना ही पसंद करेंगे. जहाज़ के साथ-साथ उन नेताओं की उम्मीद भी आकाश चढ़ती दिखती है. लेकिन अगले दिन जैसे सभी धरातल पर आ जाते हैं. रिजल्ट सभी की आशाओं के विपरीत आता है. बीजेपी मात्र 18 सीटों पर सिमट कर रह जाती है. लोग आश्चर्य से इस परिणाम को देखते हैं. सभी को ताज्जुब हो रहा है कि आखिर यह हो क्या गया है. बीजेपी प्रवक्ता के ईवीएम संबंधी बयान पर भी भरोसा करने लगते हैं लोग. आखिर यह परिणाम किसी के गले नहीं उतरता कि जिस झारखंड मुक्ति मोर्चा के माई-बाप ने , खुद मुख्यमंत्री रहते हुए अपने घर के सीट से ही उपचुनाव हार जाने का ‘कारनामा’ कर दिखाया हो, उसका चंद इनों बाद ही ऐसा प्रदर्शन? जिस कांग्रेस का वहां कोई नाम लेवा नहीं बचा हो उसका एका-एक सूत्रधार की भूमिका में अवतरण. और जो भाजपा प्रदेश में अपने लोकसभा के शानदार परिणाम के बाद पूरे ही उम्मीद से हो उस पर ऐसा तुषारापात? चीज़ें समझ से पड़े की थी. खैर.

घोषित तौर पर तो बीजेपी सदा अपने को हार-जीत के खुश और दुःख से परे बताती रही है. उसके पूर्व-वर्ती भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार-गण तो महज़ ज़मानत बच जाने पर ही जश्न मनाते थे. एक अलग तरह की पार्टी की पहचान यूँ ही नहीं मिली थी भाजपा को. लेकिन अफ़सोस कुछ सामान्य संसदीय मर्यादाओं का पालन नहीं करने के कारण और ख़ास कर हार को भी बेजा तौर पर जीत में बदलने की भाजपाई जिद्द ने निश्चय ही पार्टी को कही का नहीं छोड़ा है. हालाकि पार्टीजनों का यह कहना ठीक ही है कि जहां वो कांग्रेस के इस नकारात्मक राजनीति का शिकार है कि वह बीजेपी को सत्ता में आने के बदले किसी पाकिस्तानी को भी पदारुढ देखना पसंद करेगी. चाहे निर्दलीय मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाने का हरकत करना पड़े, बिहार में जबरन विधानसभा भंग करवा देना पड़े. गोवा में जबरदस्ती राष्ट्रपति शासन तक लागू करना पड़े. किसी अन्य राज्य में नक्सलियों तक से समर्थन लेना पड़े या जातिवादी दलों, क्षेत्रवादी दलों को आगे बढ़ाना पड़े लेकिन एक विशुद्ध भारतीय विचार की पार्टी भाजपा उसको कबूल नहीं. किसी भी स्तर तक, कोई भी संसदीय मर्यादा को तार-तार करने पर भी अगर बीजेपी सत्ता से बाहर रहता हो तो कांग्रेस वह सब कुछ करने को तैयार बैठी रहती है. तो ऐसे हालत में बीजेपी के पास भी चारा क्या है कि वह भी कांग्रेस को अलग रखने के लिए कुछ भी कर गुजरे. सामान्य समझ के अनुसार भले ही यह ठीक लगता रहा हो लेकिन उपरोक्त सभी बातों को ही अलग नज़रिए से सोचकर फैसला लेना बीजेपी के लिए उचित रहता.

भाजपा को यह समझना था कि अगर इतने तरह की हरकत करने का इतिहास रखने के बावजूद कांग्रेस चुप हो कर भाजपा को सरकार का हिस्सेदार बनने देती है. अगर सीबीआई द्वारा शिबू का नकेल कभी भी कस देने, या घोषित सत्ता लोभी सोरेन को कभी भी केंद्र में मंत्री पद का लालीपोप थम्हा देने की ताकत रखने के बावजूद वह चुप होकर तमाशा देख रही है, तो किसी भी विशिष्ट समझ रखने वाले प्रेक्षकों के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि आखिर वहां कांग्रेस का क्या खेल था . मोटे तौर पर जैसा कि यह लेखक ने पहले भी लिखा था, वहां भाजपा निश्चित ही कांग्रेस के ‘राजनीतिक एम्बुश’ का शिकार हो गयी. जिस तरह नक्सली छुप कर एवं घात लगा कर प्रभावी हमले को अंजाम देते हैं उसी तरह का यह कांग्रेस का हमला था. आखिरकार जब प्रतिद्वंदी खुद ही आत्महत्या पर उतारू हो तो क्यूँ ना कांग्रेस बैठ कर तमाशा देखे. और जब लगे की परिस्थिति अनुकूल हो गयी, प्रतिपक्षी को बदनाम भी कर दिया तो फिर पिछले दरवाज़े से सत्ता पर कब्ज़ा कर लो , जैसा कि अब किया गया है….. बहरहाल.

निश्चय ही भाजपा को राजनीति में कुछ अच्छे शब्द देने के लिए याद किया जाता है. इनमे से एक है ‘गठबंधन धर्म’ . लाख विसंगतियों एवं सीमाओं के बावजूद अटल जी के नेतृत्व में जिस तरह से इस धर्म का पालन किया गया वह अनुकरणीय है. लेकिन अफ़सोस यह कि उस समय की कमाई हुई हर चीज़ पार्टी ने झारखंड में गवां दी. आखिर आप उस झामुमो के साथ सरकार बनाने चले थे जिसके टिकट पर एक दुर्दांत नक्सली कामेश्वर बैठा, लोकसभा पहुच गया हो, या आपने उस सरकार के हिस्सा बनना कबूल किया था जिसमें चार नक्सली भी विधायक हो. आखिर राष्ट्रवाद तो भाजपा का एकमात्र प्राण-तत्त्व रहा है. उससे ही समझौता अगर आपको करना पड़े तो बच क्या जाता है? इसी तरह शिबू सोरेन का नेतृत्व स्वीकार करते वक़्त एक बार तो भाजपा को सोचना था कि इन्ही महाशय के नेतृत्व में सांसदों का बिकना-खरीदना शुरू हुआ था. या इस सरकार में भी मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें ह्त्या के आरोपी के रूप अदालत में सदेह उपस्थित होना पड़ा था. उससे पहले चिरूडीह में 9 अल्पसंख्यकों कि हत्या के आरोप से जिसके हाथ रंगे हों, अपने ही सचिव शशिनाथ झा के परिवार को अनाथ करने का कलंक जिसके माथे पर हो, आखिर भाजपा उससे अप्राकृतिक सम्बन्ध स्थापित करने के बाद भाजपा किस मूंह से जनता का सामना करेगी. अब किस तरह भाजपा नक्सलवादियों के विरोध का राग अलापेगी ? सीधे तौर पर इस गठबंधन से , कुछ महीने के सत्ता सुख की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी भाजपा को शायद उसका अंदाजा अभी भी नेताओं को नहीं है.

हाँ, इसके साथ एक और बात जनता को समझाना मुश्किल है. आखिर केवल कटौती प्रस्ताव पर एक वोट को गलत जगह डाल देने के बहाने पार्टी शिबू को औकात बताने पर तूल गयी थी, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव जैसे महत्वपूर्ण समय पर शिवसेना की धोखाधड़ी, केवल क्षेत्रीय आधार पर राजग का साथ छोड़ देने पर उस समय भाजपा कुछ बोल तक नहीं पायी. तो इस समर्थन वापसी के बहाने भाजपा ने अनायास ही शिबू को ‘पीड़ित’ की भूमिका में आरूढ़ कर दिया. मोटे तौर पर जितना गलत कदम पार्टी का शिबू को समर्थन देना था, समर्थन वापसी का फैसला तो इस आलोक में तो उससे भी ज्यादा गलत साबित हुआ. खैर. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है भाजपा के लिए. लोकसभा के परिणाम के बाद भी एक मात्र प्रासंगिक विपक्ष के रूप में भाजपा का रह जाना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं है. बस ज़रूरत इस बात की है कि जिस भारतीय संस्कृति की बात भाजपा करती आयी है उसका प्राण-तत्त्व उसे याद रखना होगा. सीधी सी बात यह कि भारत में केवल और केवल त्याग की पूजा की जाती है. भाजपा के लिए झारखंड का सबक महज़ इतना है कि जिस दिन वह लोगों तक यह सन्देश देने में सफल हो जाय कि यह पार्टी केवल सत्ता के लिए राजनीति नहीं करती है. उसी दिन उसके अच्छे दिन आने शुरू हो जायेंगे.

आखिर राजनीति में ‘होना’ से ज्यादा ‘दिखना’ महत्त्वपूर्ण होता है. और खासकर छवि के मामले में तो कम से कम कोंग्रेस अभी बढ़त हासिल कर ली ही है. वर्तमान राजनीति में सोनिया एक मात्र हस्ती साबित हुई है जिसने एकाधिक बार प्रधान मंत्री जैसे पद को ठुकरा दिया. या उसी परिवार के राहुल के बारे में यह बात सर्वज्ञात है कि केबिनेट में किसी भी पद को सम्हाल लेने के खुले आमंत्रण के बावजूद उसने कोई भी सरकारी पद लेना स्वीकार नहीं किया है. हालाकि यह सही है कि वे लोग भी कोई त्याग की प्रतिमूर्ति नहीं हैं. ज़रूर उनलोगों का एक बड़ा ‘गेम प्लान’ है. लेकिन सामन्य सन्देश तो कांग्रेस की राजनीति का यही गया है कि उसके शीर्ष नेतृत्व के लिए ‘कुर्सी’.द्वितीय प्राथमिकता का मामला है. यध सन्देश देने में कांग्रेस सफल भी होती दिखती है. तो अब बीजेपी को यह साबित करना, भले ही थोड़े मुश्किल के साथ ही लेकिन ज़रुरी है कि वह वास्तव में अलग तरह की पार्टी है. उसके समक्ष यह भी चुनौती है कि खुद को केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस से अलग दिखाए. गडकरी जी इस सन्देश को जितनी जल्दी समझ जाय पार्टी की सेहत के लिए उतना ही अच्छा. अन्यथा झारखंड में तो भाजपा ने खोया ही खोया है, देश में अब भी ‘पाने’ की उम्मीद शेष है.

2 COMMENTS

  1. पंकज जी
    आपने तो अपने लेख में मेरे मन की भावनाओ को व्यक्त कर दिया है.भाजपा नेतृत्व को ईश्वर सदबुद्धि देवे.पार्टी हाईकमान कार्यकर्ताओ एवं भारतीय जनता की भावनाओं पर तुषारापात न करे अन्यथा क्षणिक सुख के लालच में चिरस्थाई दुःख भी मिल सकता है
    नारायण भुषानिया रायपुर (छत्तीसगढ़)

  2. सर जी जैसा की हम सब जानते है की भाजपा एक दिलवाली पार्टी है| यह बात में इसलिए कह रहा हु की कुछ दिन पहले हमारे अध्यक्ष महोदय ने कहा था की हम दिल से काम करते है | तो श्री मान जी दिल तो कभी भी टूट सकता है| जैसा की अभी झारखण्ड में हुआ | चुकी भाजपा एक रास्ट्रीय पार्टी है तो दिल से ही नहीं दिमाग से भी काम लेना पड़ेगा नहीं तो जैसा झारखण्ड में हुआ यह हमेसा होता रहेगा | भाजपा का दिल इतना टूट जायेगा की इस पार्टी से लोगो का दिल ही हट जायेगा | जन्हा तक कांग्रेश का सवाल है वो एक दिमागदार पार्टी है| वह दिल से बाद में दिमाग से पहले काम लेती है | कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है की जन्हा उसे लगता है की यंहा हमें कुछ घटा हो रहा है लेकिन हमसे जयादा घाटा बीजेपी को हो रहा है तो वह घाटा उठाने के लिए भी तैयार रहती है | लेकिन जन्हा तक मेरी राइ है बीजेपी हमेसा देस का भला ही सोचती है इसलिए वह हर किसी का साथ देने के लिए चल पड़ती है | जन्हा तक झारखण्ड का सवाल है में बस इतना ही कहना चाहूँगा की बीजेपी ने वंहा चुनाव में कड़ी मेहनत की थी इसलिए वह चाहती थी की झारखण्ड का भला नहीं भी होवे तो कम से कम इन गलत लोगो के दुवारा बुरा भी न होवे | अभी बीजेपी को कड़ी महनत करने की जरुरत है| ताकि आगे इस तरह की मुसीबत ही नहीं आये | और हा सर जी आप जिस तरह के वाक्यों और मुहावरों का प्रयोग करते है वह बड़ा ही शुद्ध है |

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