क्यों हिचक रही है भाजपा?

अमिताभ त्रिपाठी

अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने दो सप्ताह के उत्तर प्रदेश के प्रवास से वापस आया । प्रवास के दौरान मैंने अनेक स्तर पर सामान्य जनता और भाजपा के सामान्य कार्यकर्ताओं से यह जानने का प्रयास किया कि उनकी दृष्टि में देश की राजनीतिक दशा कैसी है? मुझे तो यह जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि जनता राजनीतिक रूप से कितनी परिपक्व है लेकिन उन लोगों को अवश्य हो सकता है जो अब भी जनता को राजनीतिक रूप से अविवेकी ही मानते हैं और मानते हैं कि बडे संगठन या फिर तथाकथित बडे नेता की छद्म छवि से जनता प्रभावित हो जाती है। उत्तर प्रदेश में जहाँ कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही चुनाव हुए हैं और भारी बहुमत से एक सरकार चुनकर आयी है वह तेजी से अपनी लोकप्रियता खोती जा रही है। भारी भरकम वादों और अपेक्षाओं के बोझ तले दब रही इस सरकार ने उत्तर प्रदेश में नयी राजनीतिक सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं।

यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि कुछ ही माह पूर्व जिस भाजपा को मुँह छिपाने की जगह नहीं मिल रही थी उसके बारे में उत्तर प्रदेश में लोग फिर से चर्चा करने लगे हैं। अब आगामी लोकसभा चुनावों के संदर्भ में बात होती है और फिलहाल कांग्रेस को एक चुकी हुई शक्ति मान लिया गया है। देश वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ में मजबूत नेता और मजबूत एजेंडे की हनक के साथ जो भी राष्ट्रीय दल अपनी उपस्थिति अभी से जनता के मध्य दर्ज करा लेगा वही 2014 में बाजी मार ले जायेगा।

कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए तो यह दूर दूर तक नहीं दिखता कि वह राहुल गाँधी को आगे कर चुनाव लडने जा रही है। कांग्रेस के साथ निकटता रखने वाले मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि कांग्रेस धीरे धीरे कुछ दिनों के लिये विपक्ष में बैठने का मन बना रही है और राहुल गाँधी को लेकर उनकी तैयारी अगले लोकसभा के लिये तो नहीं होगी।

ऐसी स्थिति में दूसरी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण भाजपा का यह दायित्व बनता है कि वह देश को बेहतर विकल्प दे। इस प्रक्रिया में जैसी सक्रियता और कुशलता उसे दिखानी चाहिये उससे वह कोसों दूर है। जिस प्रकार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर एक कदम आगे तो तीन कदम पीछे की नीति पार्टी अपना रही है वह घातक है । नरेंद्र मोदी को लेकर मूल रूप से दो प्रश्न उठते हैं कि इससे राजग एकजुट नहीं रह सकेगा और उनकी कार्यशैली को लेकर संगठन में आशंका है। ये दोनों ही प्रश्न बचकाने और प्रायोजित हैं। राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाये रखने के लिये संगठन को अपने अनुसार दाँव पेंच के दायरे में बनाये रखना कौन सी नयी बात है। आज जिन अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कसीदे काढे जा रहे हैं क्या उन्हें खुश रखने के लिये संगठन ने लोगों की बलि नहीं ली थी। पुरानी बात को कुरेदना उचित और प्रासंगिक भी नहीं है लेकिन कितने ही लोग अब भी अटल जी के साथ समन्वय स्थापित न कर पाने के कारण आजीवन वनवास भुगत रहे हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को आधार बनाना केवल एक बहाना है। इसी प्रकार राजग के टूटने की आशंका भी निराधार है । राजग में आज यदि जनता दल यूनाइटेड को छोड दिया जाये तो शेष सभी घटक भाजपा के स्वाभाविक और विचारधारागत मित्र हैं और हमें नहीं भूलना चाहिये कि 1996 में जब पहली बार श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे बडे दल के रूप में सरकार बनाने के लिये आमन्त्रित किया गया था तो यही स्वाभाविक मित्र साथ थे लेकिन 1992 के बाबरी ध्वंस के आरोपी सदस्यों के साथ ही 1998 में राजग सदस्य 300 से भी अधिक हो गये। ऐसा क्यों हुआ ?क्योंकि भाजपा की अपनी शक्ति इतनी हो गयी कि उसके बिना सरकार बन पाना असम्भव था। आज पुनः वही स्थिति सामने है कि यदि भाजपा अपने बल पर 175 से अधिक का आँकडा छू लेती है तो घटक दलों में धर्मनिरपेक्षता के अनेक ठेकेदार पंक्तिबद्ध होकर समर्थनपत्र लेकर खडे नजर आयेंगे।

आज राजग के बिखराव की बात करके नरेंद्र मोदी का मार्ग अवरुद्ध करने का घटनाक्रम राजग सरकार के उन दिनों को याद दिलाता है कि जब श्री जार्ज फर्नांडीस को आगे कर तत्कालीन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हिंदुत्व के किसी भी मुद्दे पर आगे बढने से इंकार कर देते थे कि इससे राजग बिखर जायेगा। आज वही स्थिति फिर से सामने है जब कुछ लोग अपनी निजी मह्त्वाकाँक्षा के चलते राजग के बिखराव की दूर की कौडी चल रहे हैं।

आज देश की जो स्थिति है उसने सर्वत्र निराशा का वातावरण खडा कर दिया है। आर्थिक स्थिति से लेकर विदेश नीति और विश्व में भारत की स्थिति पर बुरा असर पड रहा है। वर्तमान वैश्विक स्थिति को देखते हुए सदियों के बाद भारत के पास अपनी सभ्यतागत भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्राप्त हुआ है और यदि इस अवसर को हमने हाथ से जाने दिया तो पिछली अनेक पीढियों का बलिदान औत त्याग व्यर्थ हो जायेगा। यह बात कम से कम उन लोगों को तो समझनी ही चाहिये जिन्होंने भारतमाता को वैभवशाली बनाने के स्वप्न को लेकर ही अपनी अनेक पीढियाँ व्यतीत की हैं ।

यदि चुनावी ग़णित के हिसाब से भी देखें तो नरेंद्र मोदी को आगे करने से भाजपा को कोई क्षति नहीं होने वाली है। पिछले कुछ वर्षों के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की परिपाटी को देखा जाये तो हर बार विश्लेषक यही आकलन लगाते हैं कि त्रिशंकु विधानसभा या लोकसभा होगी , छोटी पार्टियों का बोलबाला होगा आदि आदि पर हर बार परिणाम यही आता है कि जनता किसी न किसी दल को स्पष्ट बहुमत देती है। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण हैं और इससे पूर्व 2009 में लोकसभा चुनावों में कांग्रेसको मिली अप्रत्याशित सफलता । शर्त केवल एक है कि जनता के पास एक चेहरा और एजेंडा होना चाहिये। भाजपा इन दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह असमंजस में घिरी दिखाई देती है और उसका कारण कहीं न कहीं संगठनों में समन्वय का अभाव और व्यक्तित्वों का टकराव है और इसका सबसे बडा कारण विचार के प्रति निष्ठा में आयी कमी है। समस्त विचार परिवार किसी एक तत्व के प्रति निष्ठावान नहीं रह गया है जिसके चलते सूक्ष्म से उठकर स्थूल पर अधिक ध्यान चला गया है।

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में विचार परिवार विचार से अधिक प्रबंधन को लेकर चिंतित अधिक दिखता है यही कारण है कि भाजपा पर नियंत्रण स्थापित करने की ललक का आभास सामान्य जनमानस को जाने लगा है। यदि तत्व के प्रति निष्ठावान कार्यकर्ताओं की रचना जारी रहेगी तो भाजपा भी ठीक रहेगी अन्यथा शीर्ष पद पर कोई भी हो इसका अधिक लाभ नहीं होने वाला। संघ भले ही यह कहता हो कि भाजपा के आंतरिक मामलों में उसकी भूमिका नहीं है परंतु पिछले कुछ वर्षों में यह भूमिका अधिक बढी है जिसका दोहरा दुष्परिणाम हुआ है। संघ के कार्यकर्ता राजनीतिक प्रशिक्षण से नहीं आते इस कारण वे राजनीतिक रूप से उतने सफल नहीं हो पाते लेकिन अपनी सक्रियता से भाजपा को एक राजनीतिक ईकाई के रूप में क्षति पहुँचा जाते हैं।

संघ को देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा को एक स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में पैरों पर खडा होने का अभ्यास करने देना चाहिये तथा स्वयं को विचार के स्तर पर मार्गदर्शक की भूमिका में अधिक रखना चाहिये। भाजपा देश की वर्तमान स्थिति को सुधार सकती है यदि श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री लालकृष्ण आडवाणी की तर्ज पर अब नरेंद्र मोदी और अरूण जेटली के मध्य शक्तियों का बँटवारा हो जाये क्योंकि यह साझेदारी अधिक लम्बी और टिकाऊ हो सकती है जो कि देश को नयी ऊर्जा भी दे सकती है।

6 COMMENTS

  1. मैं अपनी टिपण्णी ” सच्चा हिन्दू कट्टरवादी और साम्प्रदायिक नहीं होता ” पर दृढ हूँ पर उसे कायर, दबू, दोसरों की मार खानेवाला, आत्मविस्मृत समाज की तरह भी नहीं देखा जाना चाहिए और इसकी जैसी व्याख्या बंधुवर तिवारीजी ने की है उसमे और मेरी सोच में कुछ फर्क है
    यह सच है की हिंदुत्वा का वांग्मय काफी विशाल है पर जो लोग ‘ सीने पर हिंदुत्व का तमगा लगाए हुए हैं या सत्ता पाने का साधन बनाये हुए हैं’ उनमे भी अनेक भांति के लोग हैं.

    यदि कोई हिंदुत्व के कट्टरपन का विरोधी यह कहे की छत्रपति शिवाजी या महारण प्रताप का हिंदुत्व पुराना हो गया अब उसकी जरूरत नहीं -चल सकता है पर यदि वे अरविन्द और विवेकनद के हिंदुत्व को भी नकार दें तो आप क्या कहेंगे- मुझे ऐसा लगता है की संघ परिवार के हिंदुत्व में इन चरों महँ पुरषों के व्याख्याओं का योग है.
    यदि कोई हिन्दू विरोधी के नाते हिंदुत्व या भारत पर आक्रम करेगा तो शिवाजी और महाराणा का शौर्य चाहिए
    यदि दर्शन और राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में बात आती है तो अरविन्द की व्याख्या कम में आयेगी -यदि गरीबी, दीनता को दूर करना हो तो विवेकानंद की व्याख्या- कुल मिलाकर ये सभी एक दुसरे के पूरक हिं जिनका अधिष्ठान वैदिक काल से चला आ रहा सनातन अधिष्ठान है जिसके अनेक प्रार हैं,,
    यह सत्य है के “. हिन्दू तो वे भी हैं जो भाजपा और आर एस एस या तथाकथित संघ परिवार से कोसों दूर हैं,’ यह उन हिन्दू विरोधी विचारधाराओं को भी सोचना होगा की वे मंदिर तोड़ने से बाज आवें, देश के विभाजन से बाज आवें, . इसका जबाब उनको देना है की देश के अनेक विभाजन क्यों हुए..हिन्दू के संखिकीय घटने का अर्थ हिंदुस्तान का संकोचन क्यों हो जाता है . इन गलत बातों का विरोध कोई करे तो उसे साम्प्रदायिक अथवा फासीवादी कैसे कहा जा सकता- अत्म्रखाशा भे इक चीज होती है- परमाणु बम वाजपेयी से पहले इंदिरा के समय पोहरण हुआ था..
    यह ठीक है की “हिंदुत्व एक जीवन पध्धति है जिसमें भारत की अधिसंख्य जनता अपने जन्म से लेकर मरण तक के क्रिया कलापों का नियमन करते हुए संतुष्ट है. जो लोग राजनीती से अलग रहते हुए अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुरूप अध्यात्मिक आनंद की खोज में लगे हैं ऐंसे अनेक महापुरुष हिन्दू समाज में सदा रहे हैं और सदा होते रहेंगे.” यह भी सत्य अहि की” भाजपा के सत्ता में लाने की जबाबदारी उनकी नहीं,” पर यह भी देखना होगा अकी हिन्दू हितों के एंदेझी कोई नहीं करे- जब से ऐअसा हो रहा तभी से प्रतिक्रियाएं हो रही हैं,,
    एक लाइन में ,” हिन्दू,मुस्लिम सिख ईसाई,जैन,बौद्ध ,पारसी सभी को मंजूर हो,” लिखना अपर्याप्त है- इसमें हर पंथ की अलग भूमिका रही है और है किसी ने कभी पारसी के खिलाफ क्यों नहीं कहा यह विचारनी य है? उनके सामान मुस्लिम या ईसाई क्यों नहीं हुए? क्या सत्ताबल का अर्थ मंदिर का तोदन होता है? सिख, जैन, बुधा- इन तीनो की भी स्थिति अलग है- ये प्रकारांतर से हिन्दू हैं आस्तिक सिख व नास्तिक जैन बौध्ह.. जैन समाज हिन्दुओं में घुल मिल गया है- बौद्ध में तो नव बौध्ह हे एही -बांकी बुद्धिसिम बचा है बौध्ह नहीं दुनिया भर में .
    यह सही है की “:३० करोड़ वो मजदूर और वेरोजगार भी हैं जिन्हें न तो राजनीती से और न ही साम्प्रदायिक सोच से कोई मतलब है. इन्हें जो काम दिलवाएगा,रोटी -कपड़ा- मकान -बिजली-पानी-दवा दिलवाने में अग्रसर दिखेगा वे उसी के साथ हो लेंगे.फिर चाहे तो वे कम्युनिस्ट हों या भाजपाई कोई भी इनके सहयोग से सत्ता में आ सकता है. उस रस्ते से हे कोई भाजपा समेत सत्तामें आ सकती
    ” अयोध्या गोधरा या नागपुर,” का तर्क बेमानी है. इनके कारणों पर जाना चाहिए और इस्लाम ईसाइयत और साम्यवाद समेत एनी वाद को अपने भीतर परिवर्तन लाना चाहिए की वह एकमुखी न हो दूसरों के भी भावनाओं का आदर करना सीखे.

  2. डॉ धनाकर ठाकुर की टिपण्णी ” सच्चा हिन्दू कट्टरवादी और साम्प्रदायिक नहीं होता ” यही सच है और इस सचाई का विस्तार ये है कि सिर्फ वे ही लोग हिन्दू नहीं हैं जो सीने पर हिंदुत्व का तमगा लगाए हुए हैं या सत्ता पाने का साधन बनाये हुए हैं. हिन्दू तो वे भी हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी के लिए जन्म से लेकर मरण तक जूझना पड़ता है. हिन्दू वे भी हैं जो भाजपा और आर एस एस या तथाकथित संघ परिवार से कोसों दूर हैं. उन हिन्दुओं में जो कांग्रेस के साथ हैं मार्क्सवादियों के साथ हैं,क्षेत्रीय पार्टियों के साथ हैं या व्यक्तिवादियों के साथ हैं और उन हिन्दुओं में जो वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रभाव में संघ परिवार के साथ हैं बहुत बड़ा अंतर है.यही अंतर अर्थात वैचारिक द्वन्द सिद्ध करता है कि भारत में किसी भी साम्प्रदायिक अथवा फासीवादी विचारधारा का वर्चस्व संभव नहीं है. हालाँकि हिंदुत्व एक जीवन पध्धति है जिसमें भारत की अधिसंख्य जनता अपने जन्म से लेकर मरण तक के क्रिया कलापों का नियमन करते हुए संतुष्ट है. जो लोग राजनीती से अलग रहते हुए अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुरूप अध्यात्मिक आनंद की खोज में लगे हैं ऐंसे अनेक महापुरुष हिन्दू समाज में सदा रहे हैं और सदा होते रहेंगे किन्तु भाजपा के सत्ता में लाने की जबाबदारी उनकी नहीं. भाजपा को सता में चाहे मोदीजी लायें,चाहें दिलीप सूर्यवंशी[शिवराज के भामाशाह] लायें ,चाहें तो राम लला जी लायें चाहें तो ‘ संघ’ के हुतात्मा इस प्रयोजन हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करते रहें किन्तु होगा वही जो हिन्दू,मुस्लिम सिख ईसाई,जैन,बौद्ध ,पारसी सभी को मंजूर हो. इसमें देश के ३० करोड़ वो मजदूर और वेरोजगार भी हैं जिन्हें न तो राजनीती से और न ही साम्प्रदायिक सोच से कोई मतलब है. इन्हें जो काम दिलवाएगा,रोटी -कपड़ा- मकान -बिजली-पानी-दवा दिलवाने में अग्रसर दिखेगा वे उसी के साथ हो लेंगे.फिर चाहे तो वे कम्युनिस्ट हों या भाजपाई कोई भी इनके सहयोग से सत्ता में आ सकता है. उस रस्ते से भाजपा अकेले कभी सत्तामें नहीं आ सकती जो अयोध्या गोधरा या नागपुर से होकर जाता है.

  3. वर्षों पूर्व १९८० में जनता पार्टी का प्रयोग लगभग असफल हो गया था, जनता पार्टी ‘दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर टूट चुकी थी. उस समय संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्वर्गीय श्री कौशल किशोर जी पूर्व जनसंघ और विभाजित जनता पार्टी के जनसंघ घटक में संघ का चेहरा थे.जनता पार्टी में संघ के कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के बारे में जब आलोचना हुई तो स्व.कौशल जी ने वापस संघ में लौटने की इच्छा व्यक्त की और वापस संघ में लौ गए.एक पुराने वरिष्ट प्रचारक से, जो अनुशंघिक संगठन में कार्य कर रहे थे, इस विषय में पूछने पर उन्होंने बताया की संघ में जो कुछ ऊपर के प्रचारक या पदाधिकारी द्वारा कहा जाता है उसे सभी स्वयंसेवक बिना किसी सवाल के मान लेते हैं जबकि संघेतर संगठनों में सभी प्रकार के लोग होते हैं जिनमे बहुत से लोग संघ की पृष्ठभूमि के नहीं होते हैं और वो सवाल जवाब भी करते हैं. अतः क्लास ओर्गेनायिजेशन और मास ओर्गेनायिजेशन का अंतर समझना आवश्यक है.
    श्री त्रिपाठी द्वारा भाजपा को १७५ का आंकड़ा लाने की जो सलाह दी है वो आज की निराशजनक तस्वीर को देखते हुए महत्वकांक्षी प्रतीत होती है लेकिन जब १९८४ में भाजपा के केवल दो लोग लोकसभा में पहुंचे थे तो एक वरिष्ठ पत्रकार का कमेन्ट था की भाजपा में स्फिंक्स पक्षी की तरह राख के ढेर में से भी पुनर्जीवित होने की जिजीविषा है.और १९८९ में ८९,१९९१ में १२५, १९९६ में १७५,१९९८ में १८५ सीटें भाजपा पा सकी. आज भी भाजपा यदि अपने अंतर्कलह और नेताओं की अतिमहत्वाकांक्षा पर कुछ काबू करले तो भाजपा में २५० सीटें लाने की क्षमता है. एक बार करवट तो बदलो, सारा जग जैकार करेगा.
    भाजपा अन्य मुद्दों के अतिरिक्त दो मुद्दों ‘ छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदुत्व’ और ‘ जाती तोड़ो, देश जोड़ो’ का सघन अभियान देशभर में चलाये. भाजपा कितना भी कहे की हम भी धर्मनिरपेक्ष हैं लेकिन फिर भी लोग भाजपा को हिंदूवादी पार्टी ही मानते हैं.और हिन्दू एकता में सबसे बड़ी बाधा उसका जातियों में बंटा रहना है.अतः यदि ‘जाती तोड़ो, देश जोड़ो’ अभियान चलाया जाता है तो वह प्रकारांतर से हिन्दू एकीकरण की ही दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.क्या आपसी झगड़ों में उलझे भाजपा नेता इस प्रकार का कोई रचनात्मक अभियान चला पाएंगे ये एक बिलियन डालर (या बिलियन हिन्दू) प्रश्न है. जिसका जवाब का इंतजार है.

  4. त्रिपाठी जी के साहसपूर्ण आलेख की कद्र की जानी चाहिए वर्ना आज के इस महाबेइमानी पूर्ण राजनैतिक दौर में एक जिम्मेदार पार्टी का जिम्मेदार नेता अपनी अंदरूनी कलह को इस तरह उघाड़ने की हिमाकत नहीं कर सकता. उनका आशय भी गलत नहीं है’ कि’ हम जो अन्दर से हैं वही बाहर से भी दिखना चाहए’ इसी राह पर आगे बढ़ते रहोगे तो सत्ता भले ही न मिले किन्तु विचार धारा का झंडा तो कम से कम बुलंद रहेगा न! ‘शुभस्य शीघ्रम’

  5. संघ की एक स्वयं सेवक से जो अपेक्षाएं होती है, उन अपेक्षाओं में और एक सफल राजनेता से जनता की जो अपेक्षाएं होती है उनमें बड़ा ही अंतर होने से —सफल भाजपा राजनेता संघकी अपेक्षाएं पूरी करेगा तो जनता की अपेक्षाओं में और चुनाव में मार खाएगा|
    इसी विधान में हमारी असफलता का कारण छिपा है|
    राजनेता को अपनी उपलब्धियों को चिल्ला चिल्ला कर बताना पड़ता है|
    पर एक स्वयं सेवक अपनी उपलब्धियां गाएगा, तो अहंकारी समझा जाएगा|
    बस यही बड़ा कारण है, हमारी असफलता का |

    • मैं असहमत हूँ की “शर्त केवल एक है कि जनता के पास एक चेहरा और एजेंडा होना चाहिये।” मुझे ऐसा लगता है की जनता बहुत नेताओं को छह सकती है पर जब एक के चुनने की बात हो तो उसे सबों को स्वीकारने में कोई विद्रूपता नहीं दिखनी चाहिए.
      रही बात नरेन्द्र मोदी की तो प्रथमतः वे बहुत छोटे प्रान्त से आते हैं दूसरा उनका आक्रामक हिन्दुत्ववादी चेहरा न तो संघ के मूल सिद्धांतों से मेल खाता है न ही उनकी कार्यशैली.
      उनको अखिल भारतीय स्टार के कार्य का अनुभव भी नहीं है .
      यदि ईमानदारी से काम किया जय तो नया चेहरा सामने आयेगा .
      याद रखें की कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को सामने का र्दिया था – संघ के पास भी ऐसे लोगो की कतार है
      डॉ मधुसूदन जी ने सही बात कही है- संघ के कार्यकर्ता यदि अपनी बात रखें तो अहंकारी – उनकी प्रशंश दुसरे करनेवाली चाहिए. (यदि वे मोदी की बात करते हों तो कषमा करें मैं उनमे सांघिक गुणों का ही आभाव पता हूँ, अपनी उपलब्धियों को कहने के भी अछे तरीके हैं,, उत्तर प्रदेश में जब तक ४०-५० सीट न आयेगा जो अक्न्दा बताया गया ही कोई छू नहीं सकता अभी वहां जोशी जी की स्वीकार्यता है दूसरा क्षेत्र मिथिला का है जिसे प्रान्त बनाने की घोषणा बीजेपी मान ले तो मैं स्वयम ही इसके एक काफी बड़े क्षेत्र की कमान ले सकता हूँ(जिसका प्रव्भव २८+ ६८ बाहर के संसदीय खेत्रों में है ) – तीसरा क्षेत्र ओरिसा ही चौथा तटीय आंध्र . कर्नाटक में बड़े सुर्गेरी की आवश्यकता है . असाम पांचवां खेत्र है.. ५६ नहीं १० वर्ष की योजना चाहिए वैसे २०१४ के बाद २०१९ नहीं मध्यावधि चुनाव होगा.
      मैं अनिल गुप्ता के छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदुत्व’ और ‘ जाती तोड़ो, देश जोड़ो’ का सघन अभियान से सहमत नहीं हूँ. केवल भ्रस्ताचार और महगाई का मुदा केवल लेकर बढे पर इसके लिए कसुती ईमानदार लोगों को टिकट देने के एहो चाहे वे हारें या जीतें.. अन्यथा भाजपा जी तकर भी हार जायेगी और सारी कवायद बेकार होगी
      जातियों का नाम लेना जातिवाद वाद को बढ़ाना है. हर हिन्दू के इक जाती है- इसे स्वीकारने में न गावर हो न शर्म और जातीयता में न उलझे यही संघ का भी इस विषय में मूलमंत्र है. दुसरे विचारधाराओं से इस विषय पर जबसे नक़ल करनी शुरू हुई है यहाँ भी जैत्वाद आय है (और परिवारवाद भे या गया है, धनवाद भी आ गया ही ) धर्मनिरपेक्षता की बात बेमानी है . सच्चा हिन्दूवादी कट्टरवादी या सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता.

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