संघ से अपने रिश्तों को विराम दे भाजपा

सिद्धार्थ शंकर गौतम

संघ के पूर्व प्रवक्ता और वरिष्ठ प्रचारक एमजी वैद्य ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की कुर्सी हिलाने का आरोपी बनाकर राजनीति में भूचाल ला दिया। अपने ब्लॉग में उन्होंने लिखा है कि मोदी की महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है और वे यह भली भांति जानते हैं कि जब तक गडकरी राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर काबिज हैं उनकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। लिहाजा गडकरी विरोध का केंद्र गुजरात बन गया है। इसी फेहरिस्त में उन्होंने मोदी द्वारा राम जेठमलानी को उकसाने का भी आरोप मढ़ा है। हालांकि संघ परिवार और भाजपा द्वारा वैद्य के बयान से किनारा कर लिया गया है। यहां तक कि स्वयं गडकरी ने भी वैद्य के बयान को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उनके दावे को निराधार बताया है। यानी पार्टी की साख, चाल, चेहरा और चरित्र की खातिर गडकरी अपनी मातृ संस्था से जुड़े कदावर प्रचारक की बात को झुठला रहे हैं। कुल मिलकर संघ और भाजपा के मध्य जारी अंतर्विरोध की कलई खुलकर सामने आ गई है। दरअसल संघ यूं तो स्वयं को सामाजिक संगठन बताता है किन्तु भाजपा में उसका किस हद तक हस्तक्षेप है; यह किसी से छुपा नहीं है। संघ भाजपा को अपने हिसाब से हांकना चाहता है और पार्टी उसकी पकड़ से मुक्त होना चाहती है। वर्तमान राजनीति का तकाजा भी यही कहता है कि कोई भी राजनीतिक दल विशुद्ध रूप से साम्प्रदायिकता की दम पर जनादेश प्राप्त नहीं कर सकता। खासकर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, समुदाय इत्यादि में इतनी मतभिन्नता हो वहां तो संकीर्ण विचारधारा का कोई स्थान नहीं है। भाजपा इस तथ्य को भलीभांति समझती है और उसने इस संकीर्णता के नकारात्मक परिणाम भोगे भी हैं किन्तु पता नहीं संघ परिवार क्यों इस आसान तथ्य को इतना गूढ़ बना देता है कि उसे राष्ट्रीयता और हिंदुत्व से इतर कुछ और सूझता ही नहीं है। राष्ट्रीयता और हिंदुत्व का मुद्दा किसी एक संगठन की जागीर आखिर कैसे हो सकता है? क्या इस मुद्दे पर संघ का एकाधिकार है? क्या भारत में निवास कर रहे अन्य नागरिकों में राष्ट्रीय की भावना का तत्व बोध क्षीर्ण हो चुका है? क्या हिंदुत्व की अवधारणा का यही सार है कि किसी अन्य सम्प्रदाय को तुच्छ समझ उसे हेय दृष्टि से देखा जाए? आखिर संघ परिवार ने अपनी मूल अवधारणा के उलट राष्ट्रीयता और हिंदुत्व की परिभाषा को क्यों विकृत कर दिया? और क्यों अब वही सोच वह भाजपा पर थोपकर उसे राजनीतिक मुद्दा बनाना चाहता है? यह सही है कि जनता पार्टी के अवसान से रातों रात भाजपा को जन्म देकर संघ ने राजनीति में मजबूत विकल्प की नींव को आधार दिया था। यह भी उतना ही सच है कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना अत्यावश्यक है और वर्तमान में भाजपा यदि इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही है तो वैचारिक दृष्टि से उसकी अपनी मजबूरियां हैं। पर संघ है कि यह समझने को तैयार ही नहीं है। वह तो भाजपा को तब तक हांकना चाहता है जब तक देश से कांग्रेस का नामोनिशान न मिट जाए और यह तो सर्वविदित है कि ऐसा होना असंभव ही है। तब संघ के सपनों के बोझ तले भाजपा आखिर क्यों दबती जा रही है? क्यों वह संघ से चोली-दामन का साथ पूर्ण विराम की ओर अग्रसर नहीं करती? क्या उसे यह उम्मीद है कि संघ की सैकड़ों स्वयंसेवकों की ताकत उसे बहुमत तक पहुंचाने का दम रखती है? मात्र २ लोकसभा सीटों से स्थापित हुई पार्टी आज यदि इस मुकाम तक पहुंची है तो इसे पीछे भले ही संघ की वैचारिक ताकत का जोर हो किन्तु पार्टी को इस मुकाम तक जनता ने ही पहुंचाया है और यह कैसे संभव है कि जिस जनता ने पार्टी को सत्ता शीर्ष पर काबिज करवाया हो; वे सारे ही संघी थे या आगे भी होंगे?

हाल के समय में संघ के प्रचारकों ने जिस तरह की बयानबाजी की है उससे इस संगठन की बौद्धिक क्षमताओं पर ग्रहण लग गया है। गडकरी के भ्रष्टाचार को लेकर भी संघ दो खेमों में बंट गया है। पता नहीं संघ के शीर्ष पदों पर काबिज अधेड़ उम्र के बुद्धिजीवी ऐसा क्यों सोचते हैं कि वे जो कहेंगे उसे देश की बहुसंख्य आबादी सहर्ष स्वीकार ही कर लेगी। युवाओं से संघ परिवार में जुड़ाव का आव्हान तो किया जाता है किन्तु आज संघ में एक भी ऐसा युवा नहीं है जो इन वरिष्ठ प्रचारकों की पांत में दिखलाई देता हो। क्या इसी संगठनात्मक ढांचे के चलते संघ स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा सर्वश्रेष्ठ संगठन मानता है? क्या इन्हीं खूबियों की दम पर स्व. पं. जवाहरलाल नेहरु ने २६ जनवरी की सालाना परेड में संघ की सलामी ली थी? नहीं; सलामी उसके सेवा कार्यों को देखकर ली गई थी किन्तु जब सेवा कार्यों के चलते प्रसिद्धि राजनीतिक मंच का आधार मुहैया करवा दे तब क्या होता है यह संघ की वर्तमान हालत देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। ताजा विवाद ने संघ परिवार में खोखली हो चुकी जड़ों को प्रदर्शित किया है। भाजपा के लिए यह स्वर्णिम अवसर है कि वह संघ की छत्र-छाया से तुरंत बाहर निकले। वैद्य के ब्लॉग और उनके आरोपों ने उसे यह अवसर प्रदान भी किया है। यदि पार्टी अब भी संघ की सोच और दिशानिर्देशों के चलते दिग्भ्रमित होती रही तो उसका हाल भी जनता पार्टी जैसा होना तय है। तब करिश्माई मोदी हों या व्यापारी गडकरी; पार्टी की डूबती नैया को पार लगाना इनके बूते की बात तो नहीं है।

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

1 COMMENT

  1. मोदी की महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है इसमें कोई हर्ज़ नही है पर इसके लिए उन्हें गुजरात से बहार निकलना होगा इसमें गडकरी का राष्ट्रीय अध्यक्ष होना या नहीं होना मतलब नही रखता.
    अभी तो केंद्र में यदि अडवानी जी को आयु के चलते छोड़ दिया जाये तो भी मुरली मनोहर जोशी जैसे वरीय व्यक्ति हैं -फिर उनके हमउम्र पर वरीय राजनाथ , अरुण जेटली, सुषमा, वैंकया ,आदि . राम जेठमलानी के वक्तव्यों में कोई खास दम नही है -वे दलबदलू रहे हैं
    श्री वैद्य की बयानबजी बेकार है -उन्हें अब नहे बोलना चाहिए
    संघ और भाजपा के मध्य जारी अंतर्विरोध ख़राब नही है
    संघ भाजपा को अपने हिसाब से हांकना चाहता है क्योंकि उसने अपने समरोइत कायकता दे उसे बनाया है
    पार्टी के कुछ लोग उसकी पकड़ से मुक्त होना चाहते यह गलत है
    संघ साम्प्रदायिक नही है
    भाजपा का निर्माण ही दोहरी सदस्यता के कर्ण हुआ और जनसंघ राष्ट्रीयता और हिंदुत्व के मुद्दे पर संघ परिवार ने अपनी मूल अवधारणा के उलट राष्ट्रीयता और हिंदुत्व की परिभाषा को कभी विकृत नही किया .
    मात्र २ लोकसभा सीटों से स्थापित हुई पार्टी आज यदि इस मुकाम तक पहुंची है तो इसे पीछे संघ की वैचारिक ताकत का जोर रहा है और हिंदुत्व के पक्षधर जनता ने ही भारतीय जनता पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाया है हिंदुविरोधी जनता ने नही यह बीजेपी को ध्यान रखना चाहिए
    भले ही वे सारे संघी नही हो पर हिंदुत्व विरोधी किसी जनता ने बीजेपी को कभी वोट नही दिया है

    वैद्य भूतपूर्व प्रचारक हैं, संघ के प्रचारक बयानबाजी नही किया करते
    गडकरी के भ्रष्टाचार को लेकर भी संघ की और सभी स्वयंसेवकों की धरना स्पस्ट है की यदि वह ब्रस्त्चारी है तो सजा पाए- जाँच चल रही है- वह किसी सरकारी पद पर नही है की त्यागपत्र दे
    उसे दूसरा कार्यकाल नही दिया जाना चाहिए इसलिए नही की जांच चल रही है, इसलिए की नए -नए लोगो को दायित्व देने से जनसमर्थन भी बढ़ता है
    युवाओं से संघ परिवार में जुड़ाव ,नेहरु नही प्रधानमंत्री की संघ की सलामी आदि अलग मुद्दे हैं, । संघ परिवार में मंथन जरूर होना चाहिए .
    भाजपा अलग होना चाहता हो तो संघ के सभी प्रचारकों स्वयंसेवकों को अलग हो जाना चाहिए और नए सिरे से जन संघ की शैली में समर्पण के साथ करना चाहिए.

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