क्या येदुरप्पा की कुर्बानी से भाजपा के पाप धुल जायेंगे

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वीरेन्द्र जैन

श्री येदुरप्पाजी के जीवनवृत्त पर निगाह डालने के बाद उनके प्रति पहले श्रद्धा और फिर सहानिभूति ही पैदा होती है। पिछले दिनों पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे लोकायुक्त की रिपोर्ट में वे दोषी पाये गये और उनकी पार्टी ने शरीर में पैदा हो गये गेंगरीन के जग जाहिर होते ही रोगग्रस्त अंग की तरह उनको काट कर फेंक देना चाहा। उन्होंने अनुशासन बनाये हुए सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे पार्टी की छवि और ज्यादा खराब होती हो पर पार्टी के अन्दर वे बराबर त्यागपत्र न देने के लिए सम्वादरत रहे। आखिर वे क्या तर्क थे जिनके आधार पर वे ऐसे मुद्दे पर त्यागपत्र न देने के लिए जिद कर रहे थे जिसके कारण पूरे देश में उनकी थू थू हो रही थी, तथा सत्तारूढ पार्टी को घेरने के अभियान की हवा निकल रही थी। भाजपा की विरोधी पार्टियां ही नहीं अपितु पार्टी के नेता भी एक मन से यह चाहते थे कि येदुरप्पा तुरंत वैसे ही स्तीफा दे दें जैसे कि हवाला कांड में नाम आ जाने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी या मदन लाल खुराना ने दे दिया था, ताकि पार्टी की छवि का मेकअप किया जा सके। किंतु वे जाते जाते पार्टी की बची खुची इज्जत भी लेते गये।

येदुरप्पा को राजनीति विरासत में नहीं मिली थी, वे 1943 में एक साधारण से परिवार में पैदा हुये। उनके पिता सिद्धलिंगप्पा लिंगायत समुदाय से थे। उनके नाम में बूकानाकेरे उस जगह का नाम है जहाँ वे पैदा हुये थे और सिद्धलिंगप्पा उनके पिता के नाम से आया है। संत सिद्ध्लिंगेश्वर ने येदुयर नामक स्थान पर एक शैव्य मन्दिर बनवाया है जिसके नाम पर उनका नाम येदुरप्पा रखा गया। कुल मिलाकर उनके नाम में उनके परिवार की आस्था का स्थान, उनका जन्म स्थान और जन्म देने वाले पिता का नाम सम्मलित है। उनकी माता पुत्ताथायम्मा का जब निधन हुआ तो वे कुल चार वर्ष के थे। ऐसी परिस्तिथि में भी उन्होंने बीए पास किया और 1965 में राज्य सरकार के समाज कल्याण विभाग में प्रथम श्रेणी क्लर्क नियुक्त हो गये। पर सरकारी नौकरी उन्हें रास नहीं आयी और उसे छोड़ कर शिकारीपुर की वीरभद्र शास्त्री की चावल मिल में क्लर्क हो गये। दो साल के अन्दर ही उन्होंने फिल्मी कथाओं की तरह अपने मिल मालिक वीरभद्र शास्त्री की कन्या मैत्रा देवी से ही विवाह रचा लिया, तथा शिमोगा आकर हार्डवेयर की दुकान खोल ली। उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियों समेत पाँच संतानें हुयीं। पूजापाठ तंत्र-मंत्र में अगाध आस्था रखने वाले येदुरप्पा की पत्नी आज से सात वर्ष पूर्व अपने घर के पास वाले कुँएं में गिरकर मर गयीं। इस दुर्घटना के बारे में कहीं कोई प्रकरण दर्ज नहीं हुआ। वे उस समय विधानसभा सदस्य थे।

शिमोगा आकर ही वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े थे और 1970 में संघ की शिकारीपुर इकाई के सचिव नियुक्त हुये। 1972 में वे जनसंघ [भाजपा] की तालुक इकाई के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1975 में वे शिकारीपुर की नगरपालिका के पार्षद और 1977 में चेयरमेन चुने गये थे। एक बार निरीक्षण के दौरान उन पर घातक हमला किया गया था। 1975 से 1977 के दौरान लगी इमरजैंसी में वे 45 दिन तक बेल्लारी और शिमोगा की जेलों में रहे। 1980 में शिकारीपुर तालुका के भाजपा अध्यक्ष के रूप में चुने जाने की बाद 1985 में वे शिमोगा के जिला अध्यक्ष बना दिये गये। अगले तीन साल के अन्दर ही वे भाजपा की कर्नाटक राज्य भाजपा के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1983 में पहली बार शिकारीपुर से विधायक चुने जाने के बाद वे छह बार इसी क्षेत्र से चुने गये। वे तब भी जीते जब 1985 में उनकी पार्टी के कुल दो सदस्य विजयी हो सके थे। बीच में कुल एक बार चुनाव हार जाने के कारण उन्हें विधान परिषद में जाना पड़ा। 1999 में वे विपक्ष के नेता रहे।

आज देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी भाजपा तब कर्नाटक में बहुत ही कमजोर थी जब येदुरप्पा ने उसका झण्डा थामा था और सारे झंझावातों के बाद भी ईमानदारी से थामे रहे थे। जनता दल में विलीन होने और उससे बाहर निकलकर भाजपा हो जाने के बाद ही इसका विकास हुआ और इसके साथ ही साथ येदुरप्पा का भी उत्थान हुआ। 1980 में उन्होंने काम के लिए अनाज योजना में घटित भ्रष्टाचार का खुलासा करके जाँच बैठवायी, इसी दौरान उन्होंने बँधुआ मजदूरों को मुक्त करवाया और 1700 ऐसे ही मुक्त मजदूरों के साथ जिला कलेक्टर कार्यालय पर प्रदर्शन किया। उन्होंने अनाधिकृत खेती के खिलाफ सफल आन्दोलन चलाया और 1987 में सूखा पीड़ित पूरे शिकारीपुर तालुका में साइकिल से यात्रा कर किसानों से सीधे उनका हाल जाना। वही येदुरप्पा आज बेल्लारी खनन घोटाले और अपने रिश्तेदारों के पक्ष में करोड़ों रुपयों के भूमि आवंटन घोटाले में आरोपित होकर अपने पद से हटाये गये हैं तो उनके इस पतन की पूरी कहानी की तह में जाना जरूरी है, ताकि राजनीतिकों की फिसलनों के नेपथ्य को जाना जा सके।

येदुरप्पा को हटाकर भाजपा का हाथ झाड़ लेना बहुत आसान है किंतु इस पूरे काण्ड में अकेले येदुरप्पा नहीं अपितु इसके पीछे सत्ता लोलुपता की शिकार पूरी पार्टी है जो किसी भी तरह से सत्ता में जमे रहकर संघ परिवार के लिए धन और सम्पत्ति को अधिक से अधिक लूट लेना चाहती है। दूसरी पार्टियों में नेता भ्रष्ट होते हैं किंतु भाजपा पार्टी के स्तर पर भ्रष्टाचार करती है और संघ परिवार के विभिन्न संगठनों को अवैध ढंग से भूमि भवन आवंटित करने में सबसे आगे है। अपनी सरकारों वाली पार्टी इकाइयों पर वह धन संग्रह के लिए जो दबाव बनाती है वह भ्रष्टाचार को जन्म देता है। यह धन दलबदल कराने और सेलिब्रिटीज को पार्टी से जोड़ने में झौंका जाता है। अल्पमत सरकारों के लिए समर्थन खरीदने में ये सबसे आगे रहते रहे हैं। पार्टी कोष के लिए धन संग्रह का काम संगठन का होना चाहिए किंतु सबसे अधिक धन संग्रह मंत्रियों, विधायकों और सांसदों से कराया जाता है। वे जो धन संग्रह करते हैं उसकी कोई रसीद जारी नहीं करते और ना ही हिसाब रखते हैं। आरएसएस ने तो गुरु दक्षिणा के नाम पर बन्द लिफाफे लेने का जो चलन बनाया है वह काले और अवैध धन लेने के बाद अपनी जिम्मेवारी से बचने का तरीका है। अनुमान तो यह भी है कि इस तरह विदेशी शक्तियां भी अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे मजबूत करती हैं, विकीलीक्स में हुये खुलासे बताते हैं कि अमेरिकन राजदूतों से भाजपा नेता निरंतर भेंट करते रहते हैं और किसी आज्ञाकारी कर्मचारी की तरह उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करते रहते हैं। बेल्लारी में अवैध खनन करने वाले रेड्डी बन्धु भाजपा के सम्पर्क में तभी आये जब बेल्लारी से सुषमा स्वराज को सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव लड़वाया गया। उस चुनाव का बड़ा खर्च इन उद्योगपतियों ने ही वहन किया था तथा भाजपा को उस चुनाव में 41% वोट मिले थे। व्यापारियों उद्योगपतियों के लिए चुनाव में धन लगाना उनकी राजनीति नहीं होती अपितु यह उनका निवेश होता है। जब इस अहसान का उन्होंने बदला माँगा तो कैसे इंकार किया जा सकता था। भाजपा ने पूर्ण बहुमत पाये बिना ही सरकार बनायी। वर्तमान में स्वच्छ हाथों से कोई अल्पमत सरकार नहीं चलायी जा सकती। जिन विधायकों से समर्थन जुटाया गया उनके लिए जो कुछ भी करना पड़ा होगा, वो रेड्डी बन्धुओं ने ही किया। जब केन्द्र के नेता रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनाये जाने के लिए दबाव बनाने की जिम्मेवारी एक दूसरे पर डाल रहे थे, तब येदुरप्पा ने उस को अपने ऊपर लेते हुए कहा था कि उन्हें मैंने अपने विवेक से मंत्री बनाया था। उनका यह कथन सच नहीं था, क्योंकि संघ परिवार में पूरे मंत्रिमण्डल की मंजूरी न केवल भाजपा हाई कमान अपितु संघ के पदाधिकारियों से भी लेनी होती है। यदि भाजपा इस काम को गलत मानती थी और येदुरप्पा ने यह गलत काम किया था तो भाजपा हाईकमान ने उन्हें इससे रोका क्यों नहीं। इसके विपरीत जब रेड्डी बन्धु संघ की समर्पित कार्यकर्ता शोभा कलिंजिद्रे को हटाने या सरकार गिराने की धमकी दे रहे थे तब सरकार बचाने के लिए शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने के निर्देश किसने दिये थे। स्मरणीय है कि तब येदुरप्पा इस सैद्धांतिक मामले पर सरकार को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। दूसरी बार जब विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया था और कुछ विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था तब उसका प्रबन्धन किसने किया था। केन्द्रीय नेताओं ने किसके बूते यह कहा था कि येदि को कोई ताकत हटा नहीं सकती और वे पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

अपनी सत्ता लोलुपता के लिए किसी नेता के हाथों से जब निरंतर काले कारनामे करवाये जाते हैं तो यह बहुत सम्भव है कि इस बह्ती गंगा में वह स्वयं या उसके रिश्तेदार भी हाथ धो लें। येदुरप्पा को यही शिकायत रही कि उनके पूरे जीवन की सेवा के बाद उन्हें जबरन कुर्बान करवाया गया है और बदनाम करके निकाला गया है जबकि असली जिम्मेवार कोई और हैं। इस कुर्बानी के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं अपितु वसुन्धरा राजे के खिलाफ भूमि आवंटन की जाँच चल रही है व मध्यप्रदेश हिमाचल, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ, व झारखण्ड में जो अवैध भूमि आवंटन हुये हैं उनका विस्फोट कभी भी हो सकता है और यह विस्फोट करने वाले भी उन्हीं के मंत्रिमंडल के सदस्य ही होंगे। इस सत्र के पहले जब प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके पास भी विपक्ष के काले कारनामे हैं तो भाजपा के किसी भी नेता ने उनके दावे को चुनौती नहीं दी, अपितु उनके बयान की निन्दा भर की। शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेताओं की सलाहों को दरकिनार करते हुए येदुरप्पा को तब तक रखा गया जब तक कि लोकायुक्त की 2500 पेज की रिपोर्ट जारी नहीं हो गयी। गम्भीर आरोपों में हटाये जाने के बाद भी उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के चयन में पूरा हस्तक्षेप किया और इस हस्तक्षेप को मानकर भाजपा ने सन्देश दिया कि वे भ्रष्टाचार को तब तक बनाये रखना चाहते हैं जब तक कि कोई कानूनी अड़चन न पैदा हो जाये।

पद से हटकर पार्टी से असंतुष्ट होने वाले येदुरप्पा अकेले नहीं हैं अपितु इस सूची में मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती हों, या कोई चिमन भाई मेहता कोई खुश नहीं रहता, और पार्टी छोड़ने की स्तिथि तक जा पहुँचते हैं। येदुरप्पा उनके ताजा शिकार हैं, जो अभी दावा कर रहे हैं कि वे छह महीने में फिर आयेंगे। क्या उनका भविष्य भी दूसरे ऐसे मुख्यमंत्रियों की तरह होगा या वे सबकी पोल खोलेंगे।

5 COMMENTS

  1. आदरणीय पूर्वाग्रह ग्रसित जैन साहब, आपकी कांग्रेस से बेशर्म पार्टी चिराग लेकर धुन्धने पर भी नहीं मिलेगी, कम से कम एक बार येदियुर्रप्पा और कलमाड़ी की ही तुलना कर लेते…येदियुरप्पा ने तो आसानी से इस्तीफा दे दिया…कलमाड़ी की बेशर्मी तो आपको पता ही होगी..पूर्वाग्रह का चश्मा उतरेंगे तो बात समाज आएगी वर्ना वो तो सुना ही होगा की भैंस के आगे बीन बजाना, भैंस खाड़ी पगुराय(जय हो ) जय हिंद

  2. जैन साहब,
    दलबदल और टूट-फ़ूट किस पार्टी में नहीं होती? और जिसमें नहीं होती, स्वाभाविक है कि उसमें “वैचारिक तानाशाही” है। पहले दिल्ली (कांग्रेस), राइटर्स बिल्डिंग(माकपा) और नागपुर (भाजपा) से मुख्यमंत्री चुने जाते थे तब भी मीडिया को तकलीफ़ थी… अब कर्नाटक में वोटिंग के आधार पर मुख्यमंत्री चुना गया, तब भी मीडिया के पेट में मरोड़ उठे…। वामपंथ के भविष्य की बात मत कीजिये, भूतकाल भी देखिये कि उन्होंने कांग्रेस सरकारों (दिल्ली की) को गिराने के लिये कितना योगदान दिया है अब तक? जब कभी “निर्णायक क्षण” आते हैं, तो वामपंथी हमेशा “तीसरे मोर्चे” का राग अलापने लगते हैं, जबकि यह साबित हो चुका है कि तीसरा मोर्चा कभी भी अकेले दम पर सत्ता में नहीं आ सकता (जब भी आया, कांग्रेस की बैसाखी लेकर ही आया)…
    ऐसे में भाजपा को मौका देने में क्या बुराई है, जबकि वह साबित कर चुकी है कि कम से कम वामपंथियों के मुकाबले संसद में उसकी ताकत काफ़ी ज्यादा है… पहला लक्ष्य कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करना होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से वामपंथी ऐसा नहीं सोचते।

  3. @ सुरेश् जी,

    मैं बामपंथ का भविष्य ऐसा नहीं देखता। जहाँ वे थे वहाँ अब भी उन्होंने 41% से अधिक वोट लिए जबकि इतने प्रतिशत वोट किसी भी कांग्रेस की सरकार ने नहीं पाये हैं। इस चुनव में उनके वोट भी बंगाल में नौ लाख ज्यादा आये हैं। वे एक वैज्ञानिक विचारधारा लेकर चलते हैं इसलिए भविष्य उनका ही है। भाजपा तो किसी तरह जुटाये गये समर्थन से सरकारें बनाती और चलाती है, न कि अपने विचार के आधार पर। सर्वाधिक दलबदलू उन्हें के यहाँ पाये जाते हैं। सर्वाधिक गैरराज्नीतिक सेलिब्रिटीज वहीं खरीदी जाती हैं। इसीलिए वे बिकते भी जल्दी हैं, जबकि बामपंथ के साथ ऐसी कोरी बात नहीं होती

  4. महोदय देश के सामने मुझे केवल एक ही विकल्प नज़र आता है की विदेशी ताकतों के इशारों पर देश को तबाह करने वाली कांग्रेस को रोकने के लिए भ्रष्ट भाजपा को सत्ता में लायें और फिर अगली बार अधिक चरित्रवान विकल्प खडा करने का प्रयास करें जो भाजपा की तुलना में अधिक अच्छा हो. कांग्रेस आई तो देश का सारा लोकतांत्रिक ढांचा ध्वस्त कर दिया जाएगा. बहुत कुछ चुपके से हो चुका है और बाकी की तैयारी है. सोनिया जी की ‘एन.ए.सी’. द्वारा कैसे-कैसे भयावह कानून बनाए जा रहे है, इसकी जानकारी तो आपको होगी ? अन्यथा चिपलूनकर जी के लेख उनके ब्लॉग पर पढ़ लें. मीडिया, सरकार, न्यायपालिका, सब पर एक छत्र कब्जे की पूरी तैयारी है. कृपया इस पर ध्यान दें. इसे जानने का प्रयास करें. वरना फिर कोई विकल्प शेष नहीं रह जाएगा. ….

  5. आदरणीय,
    आपने कहा “…वर्तमान में स्वच्छ हाथों से कोई अल्पमत सरकार नहीं चलायी जा सकती…” तो क्या बहुमत वाली सरकार चलाई जा सकती है?
    जैन साहब भाजपा चाहे जैसी भी हो (आपकी नज़र में), कम से कम कांग्रेस जैसे “अभिशाप” का विकल्प तो है… वामपंथियों को केन्द्र में कांग्रेस का विकल्प बनने में अभी १०० साल और लगेंगे…। कांग्रेस को कमजोर करने की बजाय भाजपा की बदनामी और निंदा करने में वामपंथी आगे रहते हैं, इसी से पता चलता है कि वामपंथी असल में कांग्रेस को अपदस्थ करना ही नहीं चाहते…। और भाजपा की इतनी निंदा-आलोचना-भर्त्सना करने के बावजूद भाजपा कम से कम कुछ राज्यों में सरकार में तो है… वामपंथी तो जहाँ थे, वहाँ से भी बाहर कर दिये गये।
    रही बात स्वच्छता(?) की, तो माकपा कैडर द्वारा ठेठ ग्राम पंचायत स्तर तक की जाने वाली “वसूली” से कौन अनजान है भला?
    फ़िलहाल जनता के सामने तीन विकल्प हैं –
    १) या तो खुलकर कांग्रेस का साथ दे
    २) या (पसन्द न हो तब भी) खुलकर भाजपा का साथ दे
    ३) या दोनों पसन्द नहीं हैं तो तटस्थ रहकर तमाशा देखे
    मैं दूसरा विकल्प आजमा रहा हूँ, जबकि आप “चौथा” (?) विकल्प आजमा रहे हैं कि “कांग्रेस को गिराने में हम (वामपंथी) तो कभी सक्षम नहीं होंगे, परन्तु भाजपा को भी टंगड़ी मारकर गिराएंगे…”

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