कार्टून पत्रकारिता का काला दिन

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charlie  hebdoप्रमोद भार्गव

कार्टून पत्रकारिता के इतिहास में 7 जनवरी 2015 काला दिवस के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गया है। इस दिन पेरिस से निकलने वाली व्यंग्य-पत्रिका ‘शार्ली एब्दो‘ के 12 पत्रकारो की दो इस्लामी उग्रवादियों ने नृषंस हत्या कर दी। इनमें पत्रिका के संपादक और व्यंग्य चित्रकार स्टीफन शाबेनियर भी शामिल थे। स्टीफन उदार वामपंथी पत्रकार थे। लिहाजा वे किसी भी मजहब से जुड़ी धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध थे। इसीलिए इस पत्रिका में जितना हमला इस्लामिक कट्टरता पर बोला जाता था,उतना ही ईसायत पर भी होता था। जबकि स्टीफन ईसाई थे। इसलिए यह हमला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ फ्रांस की सांस्कृतिक बहुलता और धर्मनिरपेक्ष शासन-व्यस्था पर था। इस क्रूरता के प्रतिक्रियास्वरूप न केवल फ्रांस में बल्कि संपूर्ण में यूरोप राष्ट्रवाद का स्वर मुखर होने की शंका बढ़ गई है। क्योंकि इस्लामिक उग्रवाद बहुसांस्कृतिक व बहुधर्मी देशों में धार्मिक एकरूपता लाने की दृष्टि से उभरता दिखाई दे रहा है।

स्टीफन अभिव्यक्ति की बैचेनी का शिकार हुए हैं। उनकी यह बेचैनी मानवता को उदार और सांस्कृतिक समावेषीकरण की दृष्टि से अह्म थी। इसी विवशता के चलते वे समय-समय पर अनेक धार्मों पर कार्टून के माध्यम से कटाक्ष करते रहे हैं। इस नजरिए से वे न केवल पैगंबर मोहम्मद बल्कि हर धर्म की विसगांतियों पर करारा कटाक्ष करते रहते थे। कुछ समय पहले ही स्टीफन ने केथोपिक ईसाईयों के ब्रहनचर्य से जुड़ी धारणा का कार्टून छापकर खिल्ली उड़ाई थी। इस कार्टून में ईसाई धर्मगुरू पोप डेनोडिक्ट गर्भ निरोधक हिलाते हुए दिखाया गया था।

इस पत्रिका में फ्रेंच गणज्य के संस्थापक चाल्र्स द गाॅल की कार्यशैली पर भी तीखे व्यंग्य चित्रों की श्रृखंलाएं छपी है। इस्लाम धर्म में किसी भी रूप में पैगंबर मोहम्मद की तस्वीर छापने पर प्रतिबंध है। बावजूद शार्ली एब्दों में 2006 में पैगंबर का कार्टून छापा गया। इसके अलावा अपने वामपंथी रुझान के वशीभूत स्टीफन ने इससे भी ज्यादा दुस्साहिक कार्य तब किया,जब उन्होंने 2007 में डेनमार्क के ऐ अखबार में प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद के उन विवास्पद कार्टूनों को भी छाप दिया,जिनका तल्ख विरोध मुस्लिम चरमपंथी कर चुके थे। इसके बाद से ही संपादक स्टीफन शाबोनियर को मौत के घाट उतार देने की धमकियां मिलने लगी थी। डेनमार्क में छपे कार्टूनों में से पेगंबर का एक कार्टून छापने की भूल देश के प्रसिद्ध पत्रकार आलोक तोमर ने भी की थी। तब वे सीनिया इंडिया के संपादक थे। इसे छापने के परिणामस्वरूप आलोक को जेल भी जाना पड़ा था। अभिव्यक्ति की आजादी का यह जवाब कानूनी प्रक्रिया के जरिए दिया गया था,इसलिए उचित था। किंतु फ्रांस के पत्रकारों को बोली का उत्तर गोली से देकर चरमपंथियों ने साफ कर दिया है कि स्टीफन जो व्यक्त कर रहे थे,वह धार्मिक विसगंतियों का कटू यर्थाथ था। धमकी के बावजूद शार्ली एब्दों में आइएस आइएस के सरगना अबूबकर अल बगदादी का नए साल के उपलक्ष्य में कार्टून छापा था। इसमें बगदादी शुभ कामना संदेश में कहता है,नए साल का जश्न मेरे कायदों के मुताबिक मनाओ। जाहिर है,भय की कोई भी लक्ष्मण रेखा उनकी अभिव्यक्ति की बेचैनी को दबा नहीं पाई।

फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता की बुनियाद 1779 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी वाल्टेयर ने रखी थी। विचार-स्वतंत्र के इसी आलोक में स्टीफन ने फ्रांसीसी लेखक माइकेल होलबेक के ‘सबमिशन उपन्यास‘ का भी उपहास उड़ाया था। वह इसलिए,क्योंकि इस उपन्यास में जनता से आग्राह किया गया था कि फ्रंास 2022 तक इस्लामी कठमुल्ललाओं के मातहत हो जाएगा। क्योंकि देश में जिस रफ्तार से इनकी आबादी बढ़ रही है और ये अपनी नस्ल,धर्म,भाषा और पहनावे की पहचान को स्थापित करने के दुराग्रहों से जुड़े हैं,उसके चलते यह आशंका निर्मूल नहीं हैं। किंतु बहुसांस्कृतिका एवं बहु- धार्मिकता के पक्षधर स्टीफन ने इस गल्फ-गाथा का विरोध किया। इससे फ्रांस के संविधान में दर्ज सांस्कृतिक बहलता के प्रति उदात्त आस्था की पुष्टि होती है। लेकिन फ्रंास में सक्रिय आतंकवादियों ने स्पष्ट कर दिया कि विचार स्वतंत्रता की भावनांए उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती है। प्रतिरोधी आवाज को बर्बरतापूर्वक खामोश कर देना और दूसरों पर अपनी चरम दक्षिणपंथी सोच थोपना ही,उनका एकमात्र धर्म है। ऐसा इसलिए है,क्योंकि इन चरमपंथियों ने न तो अपने धर्म से सीख ली है और न ही अन्या सहिष्तावादी धर्मों से ? यदि पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों से ही आतंकवादियों ने कुछ सीखा होता तो अभिव्यक्ति का बदला पत्रकारों की निर्मम हत्या करके न लिया होता। एक यहूदिन स्त्री पैगंबर पर रोजाना मेला फेंका करती थी। एक दिन जब उन्होंने इस मैला फेंकने वाली स्त्री को सामने नहीं पाया तो वे बेचैन हो गए। जानकारी लेने पर मालूम हुआ कि वह स्त्री बीमार है। तुरंत पैगंबर उसके घर पहुंचे उसकी दवा-दारू दी। कबीर ने भी निंदकों को निकट रखने की बात कही है। लेकिन जो खुद जिन्हें विश्व-प्रणोता स्वयंभू होने का भ्रम हो गया है,उन्हें संदेशों से सीख लेने की क्या जरूरत ?

इस सब के बावजूद तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि लोकतांत्रिक व्यव्स्था में कहने,लिखने और व्यंग्य चित्र बनाने की छूट चाहे तिजनी क्यों न हो,विचार-स्वतंत्रता की स्व-नियमन से ही सही,सीमाएं तो तय करना ही होंगी। जिससे धर्म-संस्कृति के बहाने किसी व्यक्ति और समुदाय को ठेस न लगे। इस दृष्टि से शार्ली एब्दो आतिवादी अतिक्रमण का भी शिकार होती रही है। ऐसा ही हमारे यहां हाल ही में ‘फाॅबर्ड प्रेस‘पत्रिका ने देवी दुर्गा और महिशासुर राक्षस के अशोभनीय व गैरपरंपरागत चित्र छापकर किया है,जो बिना किसी अश्लील दुर्भाव के धर्म,संस्कृति,समाज और राजनीति पर व्यंग्य कसने में दक्ष हैं। वास्तव में यही वे कार्टून होते हैं,जो देखने व पढ़ने पर तो चेहरे पर मुस्कान लाते हैं,जो देखने उसमें लक्षित वक्रोक्ति संदर्भ से जुड़ी विसंगाति का यथार्थ प्रगट करती है। बावजूद ये हमले वैश्विक समाज के लिए चेतावनी है कि इस आंतक के विरुद्ध सामूहिक लड़ाई लड़ी जाकर ही सभ्य दुनिया को सुरक्षित रखना संभव होगा। अन्यथा चरमपंथी क्रूरताएं जख्म हरे बनाए रखने में लगी ही रहेंगी।

 

 

 

संदर्भःपेरिस में पत्रकारों पर हमला-

मानवता के विकास में बाधा बनती कट्टरता

यह विडंबना ही है कि एक तरफ दुनिया चहुंमुखी एवं सुविधायुक्त विकास की ओर बढ़ रही है,वहीं इस्लामिक उग्रवाद और असहिष्णुता विश्वव्यापी हो रही है। यह ठीक है कि फ्रांस जैसे कायरतापूर्ण हमलों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर, अर्से तक ठहरने वाला नहीं है। पत्रकारों पर नरसंहार के कुछ ही घंटों बाद पेरिस समेत फ्रांस के अन्य नगरों में आतंकी हरकत के खिलाफ जो भीड़ उमड़ी,उसने यह अहसास करा दिया कि वे दहशत की गिरफ्त में आने वाले नहीं है। उनके हौसले की तस्दीक गले में लटकी उन तख्तियों से भी हुई,जिन पर लिखा था ‘में हू चार्ली‘। लेकिन अभिव्यक्ति की सामूहिक स्वंतत्रता और लेखकीय स्वंतत्रता में थोड़ा फर्क होता है। लेखक,पत्रकार या व्यंग्य चित्रकार जहां व्यक्ति को धर्म,संस्कृति और भाषा के स्तर पर उदार बनाने की पहल करते हैं,वहीं सामूहिकता इन्हीं स्तरों पर व्यक्तियों का ध्रुवीकरण करते हैं। यही वजह रही कि वैचारिक दृष्टि से उदार माने जाने वाले फ्रांस में ‘चार्ली एब्दो‘ पर हुए हमले के बाद दो शहरों में मस्जिदों पर हमले हुए। जाहिर है,आतंकी ताकतों के खिलाफ दूसरे चरमपंथी प्रतिक्रियास्वरूप लामबंद होने को विवश हो रहे हैं। लिहाजा सोचने की जरूरत है कि अखिर विकास में रोड़ा बनते ये चरमपंथी मानवता को कहां पहुंचाना चाहते हैं ?

शायद इसी आशंका का अहसास करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कहा भी है कि ये हत्याएं व्यापक टकराव का हिस्सा हैं,लेकिन यह प्रतिरोध दो धार्मिक सभ्यताओं के बीच नहीं,बल्कि स्वयं सभ्यता और उन लोगों के बीच है,जो सभ्य दुनिया की आधुनिकता अपने रुढ़ीगत पूर्वाग्रहों के चलते बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि धर्म और नस्ल आधारित रुढि़वाद विश्व समाज को स्तब्ध करते हुए ध्रुवीकरण के अवसर उत्पन्न करा रहा है। यह ध्रुवीकरण पश्चिमी देशों में मुखर होने को आतुर दिखाई देने लगा है।क्योंकि जिस फ्रांस के पत्रकारों को पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून छापने के ऐबज मारा गया है,उसी फ्रांस की धरती पर चार सौ साल पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का संदेश देते हुए प्रसिद्ध चिंतक व क्रांतिकारी वाल्टेयर ने कहा था कि ‘मै आप के विचारों से भले ही सहमत न हो पाउं,लेकिन आपके विचार प्रगट करने की स्वतंत्रता के अधिकारों की मैं रक्षा करूंगा।‘ फ्रांस में लोकतंत्र का रास्ता इसी विचार-स्वातंत्र्य से निकला और इसी विचार ने फ्रांस की शासन व्यवस्था को धर्म के अनुशासन से अलग किया। फलस्वरूप फ्रांस के प्रजातांत्रिक संविधान में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को महत्व दिया गया। नतीजतन वहां मुस्लिमों को भी मूल नागरिकों की तरह समानता के अधिकार मिलते रहे। गोया कि यहां अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में मुस्लिम आबादी धार्मिक स्वतंत्रता के चलते निर्बाध बढ़ती रही। फ्रांस की कुल आबादी में करीब 35 लाख जनसंख्या मुसलमानों की है,जिसका प्रतिषत 7.5 है। बावजूद विडंबना यह रही कि सांस्कृतिक बहुलता वाले देश फ्रांस में मुस्लिम स्वयं को समावेषी जीवन शैली में ढालने में कमोबेश नाकाम रहे। वे अपने विशिष्ट, धर्म, भाषा, नस्ल और यहां तक की पहनावे की पहचान भी भिन्न बनाए रखे। जबकि उनसे अपेक्षा थी कि वे देश के नागरिक होने के नाते मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि अपने कट्टर जन्मजात जातिवादी संस्कारों के कारण फ्रांस में ही पैदा हुई तीसरी व चौथी पीढ़ी के युवा भी मुख्यधारा से अलग-थलग ही रहे। अलबत्ता वे अपने धार्मिक व सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति ज्यादा कट्टर दिखाई देने के आडंबरों में लिप्त होते चले गए। हैरानी है कि सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ने के लिए शिक्षित मुस्लिम युवाओं ने भी तर्क व बुद्धि से काम नहीं लिया।

नतीजतन फ्रांस में दक्षिण चरमपंथ भी मजबूत होने लगा। फ्रांसीसी लेखक माइकेल होलबेक ने ‘सबमिशन‘ शीर्षक से एक ऐसा उपन्यास लिखा,जिसमें यह आशंका भरी कल्पना की गई है कि 2022 तक फ्रांस इस्लामी कठमुल्लाओं के अधीन हो जाएगा। मध्ययुगीन शासन-व्यवस्था फ्रांस पर थोप दी जाएगी। और धार्मिक उन्माद धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक अवधारणा को नेस्तनाबूद कर देगा। ऐसा इसलिए संभव होगा,क्योंकि इस्लाम धर्मावलंबियों के मूल चरित्र में समवेषी लक्षणों का अभाव है। उपन्यास में दर्ज इस विचार को मारे गए वामपंथी रुझान के पत्रकार स्टीफन षोबोनियर ने कोरी कल्पना माना और गणतांत्रिक फ्रांस के इस्लामिक राज्य में बदल जाने की गल्प को एक भ्रम मााना। गोया, स्टीफन माइकेल होलबेक को दक्षिणपंथी लेखक कहकर उसका मजाक भी अपनी पत्रिका में उड़ाते रहे। वे ऐसा इसलिए करते रहे,जिससे फ्रांस के जन-मानस में यह धारणा बनी रहे कि मुस्लिम समाज भी फ्रांस की सांस्कृतिक बहुलता का सम्मान करता है। अपने इसी समावेषी नजरिए के चलते स्टीफन उन हर विसंगतियों पर कुठाराघात करते रहे,जो व्यक्ति समूहों का सांप्रदायिक चरित्र गढ़ती हैं।

व्यंग्य पत्रिका चार्ली एब्दो पिछले 45 साल से पेरिस से स्टीफन शोबेनियर के संपादकत्व में निकल रही है। पत्रिका अपनी वामपंथी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जानी जाती है। धार्मिक,सांस्कृतिक,विसंगतियों और सामाजिक रुढि़यों एवं कुरीतियों पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करना इस पत्रिका का मुख्य ध्येय रहा है। ऐसा इसलिए रहा,जिससे भिन्न धर्मावलंबियों की सोच सांस्कृतिक बहुलता के प्रति उदार बनी रहे। इसी लिहाज से स्टीफन ने ‘सबमिषन‘ उपन्यास की धज्जियां उड़ाईं थीं। इस उपन्यास को फ्रंास के धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक अवधारणा के विरुद्ध बताया था। यही नहीं पत्रिका के निशाने पर ईसाई धर्म और उसके पांखड भी खूब रहे हैं। यहां तक कि स्टीफन ने फ्रेंच गाणज्य के संस्थापक चाल्र्स द गाॅल की कार्यशैली पर कटाक्ष करने वाले भी कई काटूर्न छापे थे। अपने ही इन्हीं वामपंथी रुझानों और समावेषी विचारों के चलते स्टीफन ने इस्लाम की कुछ परंपराओं को निशाने पर लिया और पैगंबर मोहम्मद के कार्टून छापे। जबकि इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद की किसी भी रूप में तस्वीर छापना निषेध है। यह पत्रिका अपने व्यंग्यात्मक चरित्रों व चित्रों को लेकर ही अभिव्यक्ति से जुड़ी आजादी की दुनिया में अपनी धाक व साख जमाए हुए थी।

इस्लाम चरमपंथियों के निशाने पर यह तब आई,जब फरवरी 2006 के अंक में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छपा था। इसके बाद 2007 में पत्रिका में डेनमार्क के एक अखबार में छपे पैगंबर के उन विवादापस्द कार्टूनों को छापा,जिनका जबरदस्त विरोध हो चुका था। कार्टूनिस्ट का सर कलम कर देने का फरमान भी धार्मिक उन्मादियों ने जारी किया था। और स्टीफन को जान से मार देने की धमकियां मिलने लगी थीं। उन्हें नस्ल-विरोधी मानते हुए कुछ मुस्लिम कार्टून मामलों को अदालत में भी ले गए। लेकिन अदालत ने स्टीफन को निर्दोश साबित करते हुए दलील दी थी कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान रखते हुए फ्रांसीसी कानून के मुताबिक छपे कार्टूनों पर न तो प्रतिबंध लगाया जा सकता है और न ही यह माना जा सकता है कि कार्टून इस्लाम विरोधी हैं। स्टीफन का इस फैसले से हौसला बुलंद हुआ और उन्होंने 2011 में एक बार फिर ‘शरीआ एब्दों‘नाम से एक कार्टून छापा था। इसे चरमपंथियों ने पैगंबर का अपमान माना और पत्रिका के दफ्तर पर गोली बारी की तथा बम फेंके। अलकायदा के मुखपत्र में पत्रिका ‘चार्ली एब्दों‘ को इस्लाम के लिए खतरा बताया गया। बावजूद स्टीफन की कलम थमी नहीं,उनकी अभिव्यक्ति की उदात्त भावना उन्हें चरमपंथियों के विरुद्ध उकसाती रही। अखिरकार संकीर्ण मानसिक सोच के लोग इस निर्भीक पत्रकार की कलम को तब रोक पाए,जब उन्होंने निर्ममता पूर्वक कलमकार की हत्या कर दी।

इस हत्या ने पश्चिमी देशों में रह रहे मुस्लिमों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। घटना के बाद फ्रांस में दो मजिस्दों पर हमला हुआ। स्वीडन में एक मस्जिद जला दी गई। जर्मनी में ‘पश्चिम को इस्लाम में बदलने की साजिश‘ नारे लगाती हुई भीड़ सड़कों पर उतर आई । जिस जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने नस्ल आधारित जातीय श्रेष्ठता को नकार दिया था,वहां मुस्लिमों के विरोध में लोग लामबंद हो रहे हैं। जाहिर है,यूरोपीय देशों में प्रतिक्रियास्वरूप आक्रमकता बढ़ रही है। भारत समेत अनेक एशियाई देश तो इस्लामिक कट्टरपंथ के दशकों से लहु-लुहान हैं। इसीलिए जॉन कैरी का यह कहना तर्कसंगत लगता है कि मौजूदा हमले व्यापक टकराव का सबब बन सकते हैं। क्या यह अंतरराष्ट्रिय समुदाय को जॉन कैरी की अपील है कि वह आंतकवाद के खिलाफ एकजुट हो जाएं ? क्योंकि अब इस्लामिक आतंकवाद वैश्विक चुनौती बन चुका है और इस चुनौती से विश्व समुदाय एकजुट होकर ही निपटने में कामयाब हो सकता है।

 

प्रमोद भार्गव

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