काले धन से उपजी काली राजनीति

डॉ. मुनीश रायजादा
गत दिनों अरविंद केजरीवाल अमेरिका और दुबई की लघु यात्रा पर गए तो बीजेपी और कांग्रेस जैसे दलों को इस नवोदित पार्टी पर हमला करने का एक और मौका मिल गया। इन राजनीतिक दलों ने एक स्वयंभू अदालत के अंदाज में आम आदमी पार्टी को विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफ.सी.आर.ए.) और जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत दोषी करार दे दिया, जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनके खिलाफ अवैध तरीके से विदेश से पैसा जुटाने के इसी तरह के एक अन्य मामले को खारिज कर दिया था।  आइए, इसकी तुलना एक अन्य परिदृश्य से करते हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्मस (ए.डी.आर.) की 9 दिसंबर की एक रिपोर्ट के मुताबिक मान्यता प्राप्त 45 राजनीति दलों में से 29 दलों ने चुनाव आयोग के समक्ष चंदे से संबंधित अपनी रिपोर्ट नहीं जमा की है (चुनाव आयोग ने इसके लिए 30 नवंबर 2014 तक की अवधि निर्धारित की थी)। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बीजेपी एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने वित्तीय वर्ष 2013-14 में 20,000 रूपया से ज्यादा चंदा देने वालों के नामों का भी खुलासा नहीं किया है। मजे की बात तो यह है कि चुनाव आयोग को दाखिल रिपोर्ट में बहुजन समाज पार्टी ने बताया कि उसे 20 हजार रुपये की रकम से ज्यादा एक भी दान नहीं मिला है। ए.डी.आर. ने पिछले साल अपने एक रिपोर्ट में बताया था कि भारत की मुख्य राजनीति दलों को मिलने वाला चंदा का 75 फीसदी हिस्से का स्रोत अज्ञात है। साथ ही चंदे के ज्ञात स्रोत का 87 फीसदी हिस्सा कॉरपोरेट घरानों से मिला है।

उपर्युक्त उदाहरणों से यह तो स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों के आर्थिक प्रबन्धन का मुद्दा एक बेहद अहम मुद्दा है। दुनिया भर के परिपक्व और उभरते प्रजातांत्रिक देश राजनीति में धन के दुरुपयोग की समस्या से जूझ रहे हैं। तमाम बुराईयों के बावजूद भी एक राजनीतिक दल के संचालन के लिए धन बेहद जरूरी है। लेकिन चंदा प्राप्त करने का अनियंत्रित, अज्ञात और अपारदर्शी तरीका प्रजातंत्र और शासन के लिए बेहद खतरनाक है। जहां एक ओर धन की कमी से जूझ रही साधन विहीन पार्टी लोगों तक अपनी पहुंच और अपनी बात पहुंचाने के लिए कई मुश्किलों का सामना कर रही होती है, वहीं दूसरी ओर अवैध तरीके से चंदा हासिल कर संपन्न दल फिजूलखर्ची और दिखावा कर लोगों को लुभाते हैं। फिर सत्ता में आने के बाद वह आम लोगों की दिक्कतों पर ध्यान देने के बजाय पार्टी के पोषकों के हितों का अधिक ख्याल रखते हैं।

दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश भारत की अपनी समस्याएं हैं। यह बात समझने के लिये आपको कोई राजनैतिक पंडित होना आवश्यक नहीं है कि भारत की राजनीति तीन सी (C) से ग्रस्त है- करप्शन (भ्रष्टाचार), क्लाइंटेलिज्म (संरक्षणवादिता) और कलेन (वंशवाद)। अपने देश में भ्रष्टाचार की गाथा पर तो ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। जनता का भ्रष्टाचार और प्रशासनिक ग़ैरज़िम्मेदारी के दर्द से पुराना रिश्ता है। रिश्वतखोरी ने देश के सामाजिक और आर्थिक विकास को बेतहासा क्षति पहुंचाई है। सत्ता में कोई भी दल हो, घोटाले इस देश की नियति बन गए हैंI फलस्वरूप, सर्वदलीय भ्रष्टाचार ने देश को ‘रिवाल्विंग डोर’ वाला चुनावी प्रजातंत्र बना दिया है। साथ ही पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के अभाव ने प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया को भी धीमा कर दिया है।

देश की राजनीति में संरक्षणवादिता के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जैसे कि पैसे और उपहारों के जरिए वोटों की खरीद-फरोख्त, नौकरी, कॉन्ट्रेक्ट, लाइसेंस और परमिट तथा शैक्षणिक संस्थाओं में नामांकन करा कर मतदाताओं को खुश करना, आदि। राजनीति में संरक्षणवादिता के प्रचलन से महिला उम्मीदवारों का रास्ता दुर्गम हो जाता है, क्योंकि उनकी दलालों और आपराधिक प्रवृति के लोगों तक पहुँच व सांठगांठ कम होती है। इससे राजनीति में लैंगिक असमानता भी बढ़ रही है।

और वंशवाद तो भारतीय राजनीति में इस कदर जड़ तक फैला है कि हममें से अधिकतर लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया है। रास्ट्रीय स्तर पर तो नेहरु-गांधी वंश इसका ज्वलंत उदाहरण हैं ही, परन्तु राज्य भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं I इसके चलते देश के  कई राज्य तो पारिवारिक ‘रजवाड़ों’ में तबदील हो चुके हैं। जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक वंशवाद की राजनीति का खूब बोलबाला है।

भ्रष्टाचार, संरक्षणवादिता और वंशवाद की राजनीति की वजह से भारतीय राजनीति सभ्रांत और प्रभावशाली परिवारों तक ही सीमित रह गई है। काले धन की बदौलत पार्टी और नेता सत्ता में हमेशा बने रहने के लिए किसी भी तरह की चुनावी धोखाधड़ी और हिंसा करने से नहीं हिचकते हैं। यहां तक कि जाली चुनाव तक के मामलें सामने आये हैं, जो एक प्रकार से लोकतंत्र को पंगु बना रहें हैं।

इससे स्पष्ट है कि सिर्फ शांतिपूर्ण व निष्पक्ष चुनाव करवाना ही लोकतंत्र के लिए काफी नहीं है। लोकतंत्र की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि राजनीति में धन के प्रबधन से हम किस तरह निपटते हैं!

आवश्यकता इस बात की है कि है कि राजनीतिक दलों को चन्दा ज्ञात स्रोत से बिना किसी शर्त के मिले। बीते कुछ दशकों से चुनाव में धन का प्रभाव बढ़ गया है, जिसने राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा को बेहद खर्चीला बना दिया है। इससे आम आदमी की राजनीतिक भागीदारी बिल्कुल घट गई है। चुनाव प्रचार के खर्च में भारी उछाल ने आम जनता के मन में यह धारणा बना दी है कि चुनाव सिर्फ अमीर और दबंग लोग ही लड़ सकते हैं।

इस समस्या का समाधान धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार से निपट कर ही मिल सकता है। इसके लिए हमें राजनीतिक चंदे से संबंधित नियमों में सुधार लाना होगा व इन्हें प्रभावी तरीके से लागू करना होगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को मिलने वाली आर्थिक मदद के तौर-तरीकों में पारदर्शिता लाकर ही लोकतंत्र को मजबूत और सफल बनाया जा सकता है। वर्तमान में इस खामी को तुरंत दूर करना होगा जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिक दल 20 हजार रूपये से कम चंदा देने वालों का नाम उजागर नहीं करते हैं। साथ ही साथ, धन के लेन-देन से जुड़े मसले पर राजनीतिक दलों को भी सकारात्मक रुख अपना कर प्रयास करने होंगे। उदाहरण के तौर पर बीजेपी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस संबंध में कई जटिलताओं का जिक्र करते हुए अक्सर कहा है कि हर एक चंदा देने वाले का ब्यौरा रखना संभव नहीं है, जबकि इसके ठीक उलट आम आदमी पार्टी ने हर एक चंदा देने वाले का रिकार्ड तुरंत अपने वेबसाइट डालकर दिखा दिया कि मन्शा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।

दूसरा उपाय यह हो सकता है कि राजनीतिक दलों के कामकाज का खर्चा और प्रत्याशियों का चुनावी व्यय सरकारी खजाने से वहन किया जायेI पिछले कुछ वर्षों में इस हेतु कई सरकारी आयोग गठित किये गये हैं, जिन्होनें ‘स्टेट फंडिंग’ पर अपनी सिफ़ारिशें सरकार के सामने रखी हैं। उनमें से प्रमुख हैं: इंद्रजीत गुप्त कमेटी (1998), भारतीय कानून आयोग की रिपोर्ट (1999),  राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग 2000, दूसरें प्रशासनिक सुधार आयोग 2007 ( प्रशासनिक नैतिकता) की रिपोर्ट, आदिI राज्य द्वारा फंडिंग किए जाने पर पर भ्रषटाचार और काले धन के प्रभाव में कमी आएगीI इससे जहां चुनाव पर होने वाले खर्चों में कमी आएगी, वहीं सभी दलों को चुनाव में समान रुप से अपनी क्षमता प्रदर्शन का मौका मिलेगा। स्टेट फंडिंग के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हो सकतें हैं। मसलन, राजनीतिक दल जनता के प्रति लापरवाह और उदासीन हो सकते हैं तथा उनमें मतदाताओं के बीच निचले स्तर पर जाकर काम करने का जज्बा नहीं रह जाएगा।

अमीर दानदाताओं, आपराधिक समूहों या अन्य निजी समूहों का प्रभाव घटाने के लिए सरकार छोटे चंदे (माइक्रो डोनेशन) देने वालों को प्रोत्साहित कर सकती है। ऐसी व्यवस्था की जा सकती है की सरकार राजनैतिक दलों को उनके द्वारा जनता से उगाहे चन्दे के बराबर या उसकी कुछ गुणा राशि दें। इससे राजनैतिक दल इस तरह के छोटे-छोटे फंड के लिए आम लोगों के पास जाएगें और उनके प्रति जिम्मेवार भी बने रहेंगे।
जैसा कि मैनें पहले भी कहा है कि पार्टी की आंतरिक कार्यप्रणाली और इसके वित्तीय लेन-देन के प्रति नजरिये का भी लोकतंत्र पर गहरा असर पड़ता है। राजनीतिक दलों का कामकाज भी प्रजातांत्रिक तरीके से चले इसके लिए सरकार कानून बना सकती है। उदहारण के तौर पर, पार्टी के चुनावी उम्मीदवारों के चयन में प्राथमिकी प्रक्रिया (प्राइमरी) की शुरूआत की जा सकती है। ऐसे सुधारों से राजनीति में सभ्रांत परिवारों का वर्चस्व और वंशवाद खत्म करने में मदद मिलेगी तथा राजनीतिक दलों के कामकाज में और अधिक खुलापन व पारदर्शिता आएगी।

मतदाताओं के पंजीयन तथा मतदान के प्रतिशत बढ़ाने के लिए भी ईमानदारी से प्रयास किए जाने की जरुरत है ताकि चुनाव परिणामों पर “प्रभावित वोटरों” का असर कम किया जा सके। चुनाव आयोग को कुछ विशेष अधिकार, खासकर न्यायिक अधिकार देकर राजनीतिक दलों और राजनीतिक प्रक्रिया में बेहतर अनुशासन लाया जा सकता है। अंततः हम कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वांछित सुधार के लिए चुनावीं प्रक्रिया में सुधार के साथ-साथ न्यायिक और आर्थिक सुधारों के करने की भी जरुरत है।

3 COMMENTS

  1. namankan, jamanat rashi, chunav chinh tatha e.v.m. bhrastachar ke mool char karan hai. in charo ke karan hi “bharat nirvachan ayog” apradhiyo ka janmadata aur poshak hai. jab tak ye charo, chunav pranali se nahi hatenge tab tak desh ki samasyao ka samadhan kisi prakar sambhav nahi hai. vartman me “bharat nirvachan ayog” ko bharat vinashak ayog padhe aur samajhe.

  2. Thanks,DR.RAIJADA for explaining the main discease of our country.AS a child sp.you have touched the NERVE of politicians.AND gave the clear cut reason for the failing moral values of our leaders.

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