गोरी-काली नस्लों में बंटता अमेरिका

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racialप्रमोद भार्गव

 

अमेरिका में निरंतर नस्लीय हिंसा से जुड़ी निर्मम वारदातें सामने आ रही हैं। दक्षिण केरौलिना के चार्ल्सटन शहर में अश्वेतों के ऐतिहासिक चर्ज में डायलन रूफ नाम के श्वेत युवक ने हिंसक हमला किया और नौ लोगों की हत्या कर दी। गिरफ्तारी के बाद रूफ द्वारा पुलिस को दिए बयान और उसकी फेसबुक प्रोफाइल से पता चला है कि वह अमेरिका में श्वेतों के प्रभुत्व का पक्षधर है और अश्वेतों से घृणा करता है। इसीलिए उसने गोलीबारी करते हुए हुंकार भरी थी कि ‘तुमने हमारी महिलाओं के साथ दुष्कर्म किए हैं,इसलिए तुम्हें हमारे देश से निकलना होगा।‘

बराक ओबामा जब अमेरिका के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए थे,तब यह धारणा बनी थी कि गोरों और कालों के बीच नस्लभेद खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं ? यह हकीकत अमेरिका में लगातार हो रहे नस्लीय दंगों से सामने आ रही है। हालांकि इसके विपरीत ओबामा के फिर से राष्ट्रपति बनने के बाद इस धारणा को भी बल मिला था कि अमेरिका में नस्लीयता और बढ़ जाएगी। क्योंकि ३९ फीसदी गैर अमेरिकियों के वोट ओबामा को मिले थे। ये वोट अफ्रीकी और एशियाई लोगों के थे। मूल अमेरिकियों के महज २० प्रतिषत वोट ही ओबामा को मिले थे। इस सर्वे से यह आशंका उत्पन्न हुई थी कि अमेरिका में रंग-भेद की खाई निरंतर चौड़ी हो रही है। पिछले साल फर्ग्युसन शहर में १८ साल के अश्वेत युवक माइकल ब्राउन की पुलिसकर्मी द्वारा हत्या और फिर ग्रांड ज्यूरी के आए फैसले के बाद अमेरिका में दंगों की आग जिस तरह से भड़क कर कई शहरों में फैली थी,उससे साफ हो गया था कि अमेरिकी अदालतें नस्लीय भेद-भाव की मानसिकता से ग्रस्त होकर फैसले सुना रही हैं। शायद इसीलिए ओबामा को कहना पड़ा था कि अश्वेत अमेरिकियों और न्यायायिक प्रक्रिया के बीच अभी और सुधारों की जरूरत है ? लेकिन इस दिशा में कोई पहल बीते एक साल के भीतर नहीं की गई। अब ताजा घटना के बाद ओबामा ने देश में बंदूक रखने के अधिकार पर सवाल उठाया है।

दुनियाभर में लोकतंत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों की सीख देने वाले अमेरिका में एक तरफ तो नस्लभेद बढ़ रहा है,वहीं दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों की सुरक्षा भी नहीं हो पा रही है। इसका ताजा सबूत अफ्रीकी मूल के अश्वेत नागरिकों की चार्ल्सटन की चर्च में घटी घटना है। हालांकि अमेरिका में नस्लभेदी दंगे कोई नई बात नहीं है। पिछले १३८ साल से इन दंगों का सिलसिला जारी है। इस भेद का तीखा विरोध १ दिसंबर १९५५ को पहली बार देखने में आया था। यह घटना मांटगोमरी में एक बस में घटी थी। रोजा लुईस मैकाले पार्क्स नामक काली महिला ने कालों के लिए आरक्षित सीट जब एक गोरी महिला को देने से इंकार कर दिया तो रोजा को हिरासत में ले लिया गया। इस फासीवादी हरकत से अश्वेत इतने आक्रोशित हो गए थे कि रोजा की गिरफ्तारी नागरिक एवं मानव अधिकारों की लड़ाई में बदल गई थी।

उस समय अमेरिका में कालों के साथ इस हद तक बुरा बर्ताव था कि उन्हें नागरिक अधिकारों के प्रति लंबा संघर्ष करना पड़ा, तब कहीं जाकर १९६५ में कालों को गोरे नागरिकों के बराबर मताधिकार दिया गया। इसके पहले तक काले मताधिकार से वंचित थे। इस अधिकार के मिलने के बाद ही ओबामा का एक श्वेत राष्ट्र का राष्ट्रपति बनना संभव हुआ। बावजूद गोरों और कालों के बीच सामाजिक,आर्थिक एवं षैक्षिक असमानताएं बनी हुई हैं। जातीय भेद अमेरिका की कड़वी सच्चाई हैं। इसी वजह से गोरों की बस्तियों में कालों के घर बिरले ही मिलते हैं। अमेरिका में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले लोग करीब ४.५ करोड़ हैं,इनमें से ८० फीसदी काले हैं। अभी भी अमेरिका में कुल जनसंखया के बरक्ष कालों की संख्या मात्र १५ फीसदी है। लेकिन वहां की जेलों में अपराधियों की कुल संख्या में ४५ फीसदी कैदी काले हैं। यह अमेरिकी रंगभेद की बदरंग तस्वीर है।

अमेरिका में भारतीयों के साथ भी लगातार नस्लभेद बरते जाने की घटनाएं सामने आ रही हैं। दो साल पहले विस्कोन्सिन गुरुद्वारे पर हुए हमले से यह तय हो गया था कि यहां अश्वेतों के लिए नही रहने लायक पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। क्योंकि इस घटना की जांच में जिन तथ्यों का खुलासा हुआ, वे हैरानी में डालने वाले थे। एक अश्वेत बाराक ओबामा को राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर बिठाने वाले देश में बाकायदा श्वेतों को सर्वोच्च ठहराने का सांगठनिक आंदोलन चल रहा है। गुरुद्वारे की घटना को जिस वेड माइकल पेज नामकसख्स ने अंजाम दिया था, वह अमेरिकी सेना के मनोविज्ञान अभियान का विषेशज्ञ था और नस्लीय आधार पर गोरों को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले नव-नाजी गुट ‘एंड एपैथी’ से जुड़ा था। यह आंदोलन इसलिए भी परवान चढ़ रहा है, क्योंकि इसे दक्षिणपंथी बंदूक लॉबी से भी समर्थन मिल रहा है। नतीजतन अमेरिका में उग्रवादी गोरों के निशाने पर अफ्रीकी, हिंदू, सिख और मुस्लिम आ रहे हैं। इसीलिए हाल की घटना के बाद राष्ट्रपति ओबामा को हथियार रखने के अधिकार पर सवाल खड़ा करना पड़ा है। यहां बंदूक के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं होती है,नतीजतन स्कूली छात्र भी पिस्तौल लेकर विद्यालय में चले जाते हैं।

ओबामा जब दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तब गैर अमेरिकियों में यह उम्मीद जगी थी कि वह अपने इतिहास की श्वेत-अश्वेत के बीच जो चौड़ी खाई है,उसे पाट चुका है, क्योंकि अमेरिका में रंगभेद, जातीय भेद एवं वैमनस्यता का सिलसिला नया नहीं है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इन जड़ों की मजबूती के लिये इन्हें जिस रक्त से सींचा गया था वह भी अश्वेतों का ही था। हाल ही में अमेरिकी देशों में कोलम्बस के मूल्यांकन को लेकर दो दृष्टिकोण सामने आये हैं। एक दृष्टिकोण उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व अस्तित्व उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या कोलम्बस के प्रति धारणा उन लोगांें की है जो दावा करते है कि अमेरिका का वजूद ही हम लोगों ने खड़ा किया है। इनका दावा है किकोलम्बस अमेरिका में इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलम्बस के आने तक अमेरिका में इन लोगों की आबादी २० करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर १० करोड़ के आस-पास रह गई है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का संहार लगातार जारी है। अवचेतन में मौजूद इस हिंसक प्रवृत्ति से लगता है कि अमेरिका अभी भी मुक्त नही हुआ है। अलबत्ता यह बिडंबना ही है कि ओबामा के कार्यकाल में नस्लीय नफरत सबसे ज्यादा मुखर होकर अल्पसंख्यकों पर कहर ढा रही है।

अमेरिकी समाज को नस्लभेद के नजरिए से विभाजित करने की कोशिशों की पृष्ठभूमि में गैर अमेरिकियों का अमेरिका की जमीन पर ही बौद्धिक क्षेत्रों में लगातार कब्जा करते जाना भी है। ऐसे लोगों में अफ्रीकी और एशियाई देशों से पलायन कर अमेरिका में जा बसे लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या हो गई है। ये जिस किसी भी बौद्धिकता से तात्लुक रखने वाले क्षेत्र में हों, अपने विषय में इतनी कुशल और अपने कर्त्तव्य के प्रति इतने जागरूक हैं कि अपनी सफलताओं और उपलब्धियों से खुद तो लाभान्वित हुए ही अमेरिका को भी लाभ पहुंचाने में भी पीछे नहीं रहे। परंतु विडंबना यह रही कि इन लोगों ने अपनी कर्मठता व योगयता से जो प्रतिष्ठा व सम्मान अमेरिका की धरती पर अर्जित किया,वही अब इन के लिए गोरे-काले के भेद के रूप में अभिशाप साबित हो रहा है। इससे अमेरिकी समाज में नस्लीयता बढ़ रही है। ९/११ के सांप्रदायिक हमलों के बाद यहरंग और गहराता जा रहा है।

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