बोनसाई सरकार के संकट

-प्रमोद भार्गव-

kejri jang

-संदर्भः- दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच जंग-

दिल्ली में निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के बीच छिड़ी जंग से इस हकीकत से पर्दा उठ रहा है कि एक चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा हैसियत एक नौकरशाह बनाम उपराज्यपाल की है। वह तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का मजबूत आत्मबल है, जो वे नजीब जंग से टकराने का नैतिक और संवैधानिक दुस्साहस दिखा पा रहे, वरना किसी और दल का मुख्यमंत्री होता तो शरणगत हो गया होता ? यह सही है कि दिल्ली को एक पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है ? इसलिए देश का अहम् राज्य होते हुए भी इस राज्य की निर्वाचित सरकार को कई मुद्दों व समस्याओं के बावत केंद्र सरकार और दिल्ली के उप-राज्यपाल पर निर्भर बने रहने की मजबूरी झेलनी होती है। लेकिन मुख्य सचिव के मसले पर मंत्री परिशद के फैसले को ठेंगा दिखाकर एक चुनी हुई सरकार को बोनसाई साबित करने का अधिकार उक नौकरशाह को कतई नहीं है ? यह हठधर्मिता लोकतंत्र और संविधान के बीच जो अलिखित मर्यादा है, उसे तोड़ने का काम करती है।

इस जंग ने एक बार फिर से इस मुद्दे को छेड़ दिया है कि दिल्ली एक अहम् राज्य होने के बावजूद पूर्ण राज्य क्यों नहीं है ? दरअसल दिल्ली का जो इलाका लुटियंस क्षेत्र कहलाता है, वह केंद्र सरकार के मातहत है। इस राज्य की भूमि और पुलिस भी केंद्र के अधीन हैं। यही नहीं दिल्ली की नगरीय सत्ता के प्रति कर्तव्यपालन की जिम्मेवारी की जवाबदेही चुने हुए दिल्ली के नगर नियमों को है। चूकिं दिल्ली अधूरा राज्य है, इसलिए यहां की प्रशासनिक व्यवस्था में हस्तक्षेप का अधिकार उपराज्यपाल को भी मिला हुआ है। इन मजबुरियों के चलते दिल्ली की अभी तक की सभी निर्वाचित सरकारें एक प्रकार से बोनसाई सरकारें साबित हुई हैं, लेकिन ये अरंविद केजरीवाल ही हैं, जो बोनसाई बना देने की बाध्यता से उभरने की चुनौती स्वीकार रहे हैं, अन्यथा दिल्ली के अन्य मुख्यमंत्री इस लाचारी के शिकार ही हुए हैं।

दरअसल विधायिका और कार्यपालिका के बीच तू-तू, मैं-मैं का यह खेल मुख्यमंत्री द्वारा नई पदस्थापनाएं करने और राज्यपाल द्वारा उन्हें रद्द करने के अादेशों के मार्फत हुई। आम आदमी पार्टी की सरकार ने बाकायदा मंत्री-परिषद की बैठक में प्रस्ताव पारित करके वरिश्ठ आईएस अधिकारी अरंविद राय को सामान्य प्रशासन विभाग का प्रधान सचिव बनाने का फैसला लिया था। विधायिका के इस निर्णय को प्रधान सचिव की हैसियत से राजेंद्र कुमार ने पालन करते हुए राय की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। जबकि नजीब जंग ने इस संवैधानिक कार्यवाही को ठेंगा दिखाते हुए निष्क्रिय घोषित कर दिया। इसके पहले जंग सरकार द्वारा किए गए कार्यवाहक मुख्य सचिव शकुंतला गैमलिन और अनिंदो मजूमदाार के तबादले भी निरस्त कर चुके हैं। इस तनातनी ने दिल्ली सरकार और राज्यपाल की स्थिति को हास्यास्पद बना दिया है।

यहां सवाल उठता है कि दिल्ली में एक चुनी हुई सरकार सत्तारूढ़ है। लिहाजा वह मतदाताओं से किए वादों को निभाने के लिए भी उत्तरदायी है। तब क्या निर्वाचित सरकार की मंत्री परिषद को अपनी पसंद का अधिकारी नियुक्त करने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए ? यदि उपराज्यपाल के बहाने एक नौकरशाह दिल्ली सरकार पर अपने मनचाहे अधिकारी थोपने की जिद् करेगा, तो सरकार काम कैसे करेगी ? अपनी जिम्मेदारियां कैसे निभाएगी ? एक नौकरशाह के कर्तव्य की प्रतिबद्धता चुनी हुई सरकार के आदेशों को अमल में लाने की है, न कि उन्हें ठुकराने की हठधर्मिता में ? इसलिए जिस सरकार को जिस राज्य में काम करने का जनादेश मिला है, उसे काम की पूरी अजादी भी मिलनी चाहिए ? इस विवाद का यह दुखद व शर्मनाक पहलू है कि केंद्र सरकार नजीब जंग को उकसाने के काम में लगी है। जबकि केंद्र में वही भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्तारूढ़ है, जो एक समय दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग पुरजोरी से उठाती रही है।

याद रहे 2003 में भाजपा के कार्यकर्ता सम्मेलन में तत्कालीन गृहमंत्री लालकृश्ण आडवाणी ने सार्वजनिक घोशणा की थी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया है और जल्दी ही औपचारिक घोषणा कर दी जाएगी। बाद में यह प्रकरण संसद में पहुंचा और वहां से विधायी कार्यों से जुड़ी संसदीय समिति के सुपुर्द कर दिया गया। तब से ठंडे बस्ते में है। हालांकि उपराज्यपाल की रोड़े अटकाने की मानसिकता से तंग आकर दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी इस मुद्दे को हवा दी थी। उन्होंने तब कांग्रेसी विधायकों के साथ दिल्ली सचिवलाय से संसद तक पैदल मार्च भी किया था। इस समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। किंतु जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग सरकार वजूद में आ गई तो शीला दीक्षित ने भी दिल्ली को पूर्ण राज्य बना देने की मांग को लेकर मौन साध निया। इस दौरान हुए दिल्ली विधानसभा और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भाजपा ने जितने भी घोशणा-पत्र जारी किए, उन सभी में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का भरोसा जताती रही है। किंतु जब भाजपा स्वयं पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई और 2014 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो उसने अपने दृश्टि-पत्र से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मुद्दा गोल कर दिया। भाजपा की कथनी और करनी में यह अतंर केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद लगातार देखने में आ रहा है। तय है, फिलहाल दिल्ली को पूर्ण राज्य बना देने का स्वप्न साकार होने वाला नहीं है।

नजीब जंग भले ही अपनी नियुक्तियों को संवैधानिक ठहराते रहे हों, लेकिन उन्हें संविधान मंत्री-परिशद के निर्णय को नकारने का अधिकार नहीं देता है। इस लिहाज से दिल्ली की प्रमुख वकील इंदिरा जयसिंह ने आप सरकार का पक्ष लेते हुए कहा भी है कि ‘ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे उपराज्यपाल को मुख्य सचिव की तैनाती के मामले में स्वविवेक से काम करने का अधिकार मिलता हो ? दिल्ली के दूसरे प्रसिद्ध वकील राजीव धवन की दलील है कि ‘उपराज्यपाल अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ गए हैं और उन्होंने अपने व मंत्री परिशद के संबंधों को उस दिशा में मोड़ दिया है, जहां लोकतंत्र और संविधान के लिए संकट खड़े हो जाते हैं।‘ इसलिए लाचार बना दिए गए दिल्ली सरकार के मुखिया अरंविद केजरीवाल को कहना पड़ा है कि ‘उपराज्यपाल राश्ट्रीय राजधानी में राश्ट्रपति शासन की तरह काम कर रहे हैं।‘ हकीकत में उपराज्यपाल की ये हरकतें दिल्ली सरकार को केंद्र की शह के चलते नाकाम करने की हैं। यदि 70 में से 67 विधायकों वाली संपूर्ण बहुमत की दिल्ली सरकार के संविधान सम्मत फैसलों को भी एक नौकरशाह नकार देता है तो फिर चुनी हुई सरकार की भला जरूरत ही कहां रह जाती है ? इसलिए राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री को संविधान की गरिमा व मर्यादा की रक्षा के लिए सार्थक हस्तक्षेप करने की जरूरत है।

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