[पुस्‍तक समीक्षा:’हेलो बस्तर’] आदिवासियों का सवाल तो रह गया

सुदीप ठाकुर 

बस्‍तर और माओवादी आंदोलन पर केन्द्रित राहुल पंडिता की पुस्तक ‘हेलो बस्तर’ की समीक्षा लिखकर राजीव रंजन प्रसाद ने  इसे हकीकत से दूर बताया। इस विमर्श को आगे बढ़ाने को लेकर हम यहां 24 जुलाई 2011 को अमर उजाला में प्रकाशित सुदीप ठाकुर द्वारा लिखित इस पुस्‍तक की समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं। (सं.)  

पिछली शताब्‍दी के छठे दशक में लैटिन अमेरिका में छापामार युद्ध के जरिए जिन लोगों ने पूंजीवादी और सामंती व्‍यवस्‍था को बदलने का सपना देखा था और अमेरिका की नाक में दम कर रखा था, उनमें अर्नेस्‍ट चे ग्‍वेरा भी एक थे। बोलिविया में जब वे छापामार युद्ध की तैयारी में जुटे थे, तो 9 अक्‍तूबर 1967 को उन्‍हें गोली मार दी गई। चार दशक बाद भी चे की तस्‍वीरों वाली टीशर्टें दिल्‍ली में बिक रही हैं, तो इसका मतलब है कि वामपंथी रूमानियत अभी खत्‍म नहीं हुई है। बेशक इस पर भी हो सकती है कि तकरीबन उसी छठे दशक में शुरू हुआ नक्‍सल आंदोलन आज कहां है।

राहुल पंडिता ने हेलो बस्‍तर द अनटोल्‍ड स्‍टोरी ऑफ इंडियाज माओइस्‍ट मूवमेंट के जरिए यही पड़ताल करने की कोशिश की है। वह जंगलों में घूमे हैं, माओवादी नेताओं से रू-ब-रू हुए हैं और ढेरों दस्‍तावेज खंगाले हैं। इसके बावजूद वह माओवादी आंदोलन और आदिवासियों तथा जंगल से जुड़े कई सवालों के जवाब ढूंढ़ नहीं पाए। या हो सकता है कि जान-बूझकर उन्‍होंने ऐसे सवालों को छेड़ने की कोशिश ही नहीं की। आखिर बस्‍तर और उससे जुड़े दूसरे इलाकों में आदिवासी नेतृत्‍व क्‍यों नहीं उभर पाया। 1960 के दशक में ही बस्‍तर और उससे सटे इलाके में दो बड़े आदिवासी नेता उभरे थे और उन्‍होंने लोकतांत्रिक तरीके से राज्‍य को चुनौती दी थी। इनमें से एक थे बस्‍तर के राजा प्रवीर चंद भजदेव जिन्‍हें गोली मार दी गई थी, दूसरे थे राजनांदगांव जिले के लाल श्‍यामशाह, जिन्‍होंने आदिवासियों के सवाल पर संसद से इस्‍तीफा दे दिया था। हेलो बस्‍तर में इन दोनों आदिवासी नेताओं का जिक्र तक नहीं है।

राहुल क्रांति के रास्‍ते और संसदीय प्रक्रिया को लेकर नक्‍सल आंदोलन के अंतरविरोध पर कुछ नहीं लिखते। संभवत: इसलिए उन्‍हें चारू मजूमदार की मौत के बाद अग्रिम पंक्ति में गिने जाने वाले विनोद मिश्र का नाम याद नहीं आया, जिन्‍होंने दो दशक तक भूमिगत रहने के बाद अपना रास्‍ता बदल दिया था। किताब में एक और बड़े नेता नागभूषण पटनायक का भी जिक्र नहीं है।

राहुल ने गणपति, किशनजी, कोबाद गांधी (उनका तो पूरा एक लेख ही इस किताब में है) जैसे दर्जनों माओवादी नेताओं से बात की, और वह लिखा जो उन्‍होंने उनसे कहा, लेकिन वह उनसे हिंसा पर सवाल नहीं करते। वह उनके हवाले से राज्‍य को शत्रु लिखने से गुरेज नहीं करते। वह यह तो लिखते हैं कि माओवादियों ने बस्‍तर में शिक्षा के क्षेत्र में जबर्दस्‍त काम किया है, मगर उनसे यह नहीं पूछते कि आखिर उन्‍होंने दर्जनों स्‍कूल क्‍यों जला दिए। माओवादी अतिरेक में उन्‍होंने दंतेवाड़ा जिले की आबादी 70 लाख तक बता दी है।

माओवादी आंदोलन के इतिहास के लिहाज से देखें, तो यह किताब काफी जानकारीपरक है। उनकी रणनीति से लेकर सदस्‍यता की प्रक्रिया, हथियारों के प्रशिक्षण और फंडिंग के तौर-तरीकों तक के ब्‍यौरे हैं। छापामार जीवन का रोमांच है। हरा-भरा जंगल है। पहाड़ है। प्रेम कथाएं हैं। बिछोह है। मगर आगे का रास्‍ता साफ नहीं है। यही माओवादी आंदोलन की सबसे बड़ी दुविधा है। और दिल्‍ली से बस्‍तर जाने वाले पत्रकारों और लेखकों की भी।

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