उत्तरप्रदेश में ब्राह्मण भी बन सकते हैं किंगमेकर..

कभी उत्तरप्रदेश में ब्राह्मण वोट सत्ता की सीढ़ी का पहला पायदान हुआ करते थे मगर ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ने सूबे में राजनीति की तस्वीर बदल कर रख दी| किन्तु वर्तमान में परिदृश्य बदलते ही अब एकायक १९८९ के बाद ब्राह्मण हर सियासी दल के लिए महत्वपूर्ण हो गए हैं| इसका अंदाज़ा तो इस बात से लगाया जा सकता है कि बहुजन समाज पार्टी ने २००७ विधानसभा चुनाव में जहां ८० ब्राह्मणों को टिकट दिया तो इस विधानसभा चुनाव में ७४ ब्राह्मण प्रत्याशी हाथी की चाल को तेज़ करने का दम भरते नज़र आ रहे हैं| भारतीय जनता पार्टी ने भी मैदान मारते हुए ७३ ब्राह्मण प्रत्याशियों को कमल संदेश फैलाने की बागडोर सौंपी है| मुस्लिम-यादव गठजोड़ कर सत्ता पर काबिज़ हुई समाजवादी पार्टी यूँ तो ब्राह्मणों की राज्य की सियासत में बढ़ती भूमिका को खुलकर व्यक्त नहीं कर पा रही है मगर उसने भी जातिगत आधार पर ५० ब्राह्मण प्रत्याशियों को साइकिल की सवारी करवाई है| इस दौड़ में कांग्रेस पिछड़ती नज़र आ रही है| कांग्रेस को यूँ तो ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता रहा है मगर जबसे कांग्रेस के नीति-नियंताओं ने अल्पसंख्यक वोट बैंक की ओर लार टपकाती नज़रों से देखना शुरू किया; यही ब्राह्मण कांग्रेस से छिटक दूसरी पार्टियों के साथ हो लिए| दरअसल ब्राह्मण १९८० के दशक से कांग्रेस के लिए अबूझ पहेली रहे हैं जिसका असर कांग्रेस प्रत्याशियों की सूची देखने से भी पता चलता है| इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी ही असमंजस स्थिति का सामना करते हुए मात्र ४२ ब्राह्मण प्रत्याशियों को हाथ का सहारा दिया है| सूबे का राजनीतिक इतिहास देखें तो प्रदेश के १९ मुख्यमंत्रियों में से ६ मुख्यमंत्री ब्राह्मण जाति से आए हैं और ये सभी पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी से थे| यानी कुल मिलाकर २३ वर्षों तक सूबे में सत्ता की कमान ब्राह्मणों के हाथों में थी| पर सत्ता संघर्ष और दलित आंदोलन के प्रादुर्भाव ने ब्राह्मणों को राजनीतिक रूप से हाशिये पर डाल दिया था| जातिवाद की जकड़न में कैद प्रदेश में ब्राह्मणों के हाथ से सत्ता तो गई ही, उनका राजनीतिक रूप से भी पतन हुआ और उनको राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा|

 

मगर २० वर्षों से अधिक समय से सत्ता के शीर्ष से दूर ब्राह्मण पुनः किंगमेकर बनने जा रहे हैं| हालांकि ब्राह्मणों के किंगमेकर बनने का समय तो २००७ में ही आ गया था जब बहुजन समाज पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिये एकमुश्त ब्राह्मण वोट अपने पाले में ले लिए थे जिससे माया सरकार निर्विरोध अपने कार्यकाल को पूरा करने में सफल रही थी| बसपा के लिए सतीश मिश्रा ने इस भूमिका को बखूबी अमलीजामा पहनाया था| तभी से सभी राजनीतिक दलों को यह महसूस हुआ था कि ब्राह्मणों का एकमुश्त समर्थन जिस किसी को भी मिलेगा, सूबे में सत्ता पर काबिज़ होने से उसे कोई नहीं रोक पायेगा| और ऐसा हो भी क्यों न? आखिर प्रदेश के ६२ जिलों में ब्राह्मण मतों का प्रतिशत लगभग ८ फ़ीसदी है और इनमे से ३१ जिलों में तो यह प्रतिशत २०-२५ के आंकड़े को पार कर जाता है| बुंदेलखंड में १७-१९ फ़ीसदी ब्राह्मण वोटों की वजह से यहाँ सभी दलों की निगाहें लगी है| अवध, मथुरा, गोरखपुर, हरित प्रदेश जैसे कुछ भू-भाग ब्राह्मण बहुल वोट बैंक हैं जहां यदि ब्राह्मण एकजुट हो जाएँ तो किसी भी दल को अर्श से फर्श पर लाने की कुव्वत रखते हैं| इसी वजह से अल्पसंख्यक एवं दलित वोट बैंक से इतर ब्राह्मण भी इस बार किंग नहीं; किंगमेकर की भूमिका में है पर राजनीतिक दलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि ब्राह्मणों को कैसे अपने पाले में लाया जाए? चूँकि इस बार ब्राह्मण खामोश है और राजनीति की कुटिल चालों को देख रहा है तो सभी दलों में घबराहट और बेचैनी स्पष्ट देखी जा रही है| यह भी सच है कि ब्राह्मणों का बहुजन समाज पार्टी से मोहभंग हो चुका है| उसे लगता है कि सोशल इंजीनियरिंग की आड़ में उसे ठगा गया है और इस बार वह सबक सिखाने को तैयार भी बैठा है| बसपा के ब्राह्मण चेहरे सतीश मिश्रा ने भी ब्राह्मण बिरादरी के लिए कुछ नहीं किया| जहां तक सवाल समाजवादी पार्टी का है तो यादव-मुस्लिम गठजोड़ के अलावा ब्राह्मण वोट बैंक पार्टी की ज़रूरत कभी नहीं बना और इस बार भी ऐसा ही रहने की उम्मीद है| तो फिर ब्राह्मण जाएगा किसके साथ? कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी ही ब्राह्मण वोट पाने की स्वाभाविक हकदार हैं मगर कांग्रेस के लिए इसमें भी थोड़े बहुत पेंच हैं|

 

सलमान खुर्शीद, दिग्विजय सिंह, पी.चिदंबरम जैसे नेताओं की सेक्युलर राजनीति की वजह से प्रबुद्ध वर्ग में गिना जाने वाला ब्राह्मण वर्ग कांग्रेस से छिटक सा गया है जिसका अनुमान पार्टी के आला नेताओं को भी है और इससे उन्हें विधानसभा चुनाव में नुकसान भी उठाना पड़ सकता है; लेकिन कांग्रेस ने जिस राह पर चलना शुरू किया है उससे वह अपने कदम पीछे नहीं खींच सकती| यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस पर दोहरा वज्रपात होना तय है| ब्राह्मण तो उससे दूर है ही, अल्पसंख्यक भी कांग्रेस का दामन छोड़ देंगे| ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ज़रूर थोड़े फायदे में दिख रही है| चाहे वह नेतृत्व का मामला हो या ब्राह्मणों को उचित मान-सम्मान देने का; भाजपा अब ब्राह्मणों को वापस अपनी ओर लाने का भरसक प्रयत्न कर रही है| इसी नीति के तहत पार्टी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपाई को अपने चुनाव प्रचार का प्रमुख अस्त्र बनाया है ताकि ब्राह्मण मतदाताओं तक यह संदेश पहुँचाया जा सके की राम, रोटी और ब्राह्मण; आज भी भाजपा के मूल एजेंडे में शामिल हैं| कलराज मिश्र, रमापति त्रिपाठी जैसे नेताओं को विधानसभा चुनाव में उतार पार्टी ने ब्राह्मणों की नब्ज़ पर तो हाथ रख ही दिया है| फिर भी स्पष्ट तस्वीर को लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु यह तय है कि २००७ विधानसभा चुनाव ने जिस तरह दलित-ब्राह्मण गठजोड़ को विजयश्री दिलाई थी, यदि इस बार भी ब्राह्मण किसी वर्ग या जाति के साथ एका कर बैठा तो प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर बदलने से कोई नहीं कोई पायेगा| कुल मिलाकर लब्बोलुबाव यह है कि ब्राह्मण धीरे-धीरे ही सही; सत्ता की भागीदारी में अपना पुराना वर्चस्व पाने की ओर तेज़ी से बढते जा रहे हैं जिन्हें रोक पाना फिलहाल तो संभव नहीं है|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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