प्रमोद भार्गव
वैश्विक आतंकवाद की छाया में यूरोपीय देशों में उभरती शरणार्थीं समस्या ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रमुख वजह बनी है। दरअसल इस्लामिक आतंकवाद के चलते जो देश उजड़ रहे हैं, उनके निवासी शरणार्थियों के रूप में यूरोपीय देशों में बड़ी संख्या में घुसपैठ कर रहे हैं। इस कारण ब्रिटेन समेत कई देशों को अपनी मूल पहचान बनाए रखना मुश्किल हो रहा है। पिछले दो वर्षों में बीती शताब्दी तक ब्रिटेन के ही मातहत रहे कई उपनिवेषों से लाखों अप्रवासी और शरणार्थी तो ब्रिटेन आए ही, आगे भी इनके आने का सिलसिला बना हुआ है। शरणार्थी होने की लाचारी में होने के बावजूद इनमें उदारता देखने तो आई नहीं, अलबत्ता ये अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते स्थानीय मूल निवासियों के लिए और संकट बन गए। इस कारण ब्रिटेन में ही नहीं यूरोप के अन्य देशों में भी शरणार्थियों के खिलाफ दक्षिणपंथी संगठन और जनता उग्र हो रहे हैं। यदि कालांतर में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल ट्रंप चुन लिए जाते हैं तो यूरोप में ही नहीं दुनिया में दक्षिणपंथ और असरकारी साबित होगा। जिसका खामियाजा मुस्लिम शरणार्थियों को ही नहीं, अन्य देशों के प्रवासियों को भी भुगतना होगा। ऐसा होता है तो विश्वग्राम और आर्थिक उदारवाद की अवधारणाएं स्वतः घूमिल होती चली जाएंगी।
पिछले साल आम चुनाव के दौरान डेविड कैमरन ने यूरोपीयन संघ में बने रहने के विरोध में 20 साल से चली आ रही मुहिम का नेतृत्व कर रहे दक्षिणपंथी दल ‘यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेस पार्टी‘ और सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी से वादा किया था कि यदि वे सत्ता में वापस आए तो इस सवाल का हल जनमत संग्रह से निकालेंगे। डेविड ने वादे पर अमल करते हुए जनमत संग्रह करा भी लिया। राय-शुमारी के दौरान डेविड ने जनता से यूसं में बने रहने की अपील भी की थी। इसी अपील में अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल समेत दुनिया के कई नेताओं ने भी सुर मिलाया था। लेकिन शरणार्थी संकट और इस्लामिक आतंकवाद का दंश झेल रही जनता ने इन भावुक और बहुलतावादी बयानों को दरकिनार कर दिया। दरअसल इन समस्याओं के व्यापक होते जाने के परिप्रेक्ष्य में जनता अपने देश की मूल राष्ट्रिय सांस्कृतिक पहचान के घूमिल होने का संकट का अनुभव कर रही थी। स्काॅटलैंड भी कुछ ऐसे ही पूर्वाग्रहों के चलते जनमत संग्रह के लोकतांत्रिक प्रावधान के बूते ब्रिटेन से डेढ़ साल पहले ही स्वतंत्र हुआ है। इन जनमतों से जो निर्णय पेश आए हैं, उनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि व्यक्ति के अवचेतन में पैठ बनाए बैठे जातीय संस्कार कितने प्रबल होते हैं।
ये आशंकाएं भी जोर पकड़ रही है कि 28 सदस्यीय देशों का यह संघ देर-सबेर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। क्योंकि कई देशों में न केवल शरणार्थी समस्या विकराल रूप ले रही है, बल्कि देशों के बहुलतावादी स्वरूप को भी खतरा साबित हो रही है। ज्यादातर यूरोपीय देशों में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष विविधता व नागरिक स्वतंत्रता है। इसीलिए यूरोप को आधुनिक लोकतंत्र का प्रणेता माना जाता है। किंतु इस्लामिक आतंकवाद के विस्तार के साथ इन देशों के जनमानस में खुलापन कुंद हुआ और सोच में संकीर्णता बढ़ने लगी। जनमत संग्रह का नतीजा इसका प्रमाण हैं। मुस्लिम और मुस्लिम देशों के साथ सोच और धार्मिक कट्टरता का विरोधाभासी संकट यह है कि जहां-जहां ये अल्पसंख्यक होते हैं, वहां-वहां धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की वकालात करते हैं, परंतु जहां -जहां बहुसंख्यक होते हैं, वहां इनके लिए धार्मिक कट्टरता और शरीयत कानून अहम् हो जाते हैं। अन्य धार्मिक अल्पसंख्कों के लिए इनमें कोई सम्मान नहीं रह जाता है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक मुस्लिमों की इसी क्रूर मानसिकता का दंश झेलते हैं। भारत के ही कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के चलते अल्पसंख्यक हिंदू, सिख और बौद्ध घाटी से ढाई दशक पहले निकाल दिए हैं। चार लाख से भी ज्यादा विस्थापितों का अपने ही मूल निवास स्थलों में पुनर्वास इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि धार्मिक दुर्बलता के चलते घाटी के ज्यादतर लोग अलगाववादियों के समर्थन में हैं। इस दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ कि देश की बड़ी मुस्लिम आबादी ने विस्थापितों के पुनर्वास के लिए आंदोलन कोई किया हो। जबकि भारत में मुस्लिमों की आबादी करीब 17 करोड़ है। इसी मानसिकता की वजह है कि दुनिया का एक भी मुस्लिम देश धर्मनिरपेक्ष देश नहीं है।
ब्रिटेन के इस जनमत संग्रह के परिणाम का असर आने वाले दिनों में और भी कई यूरोपीय देशों में दिखाई देगा। हालांकि हाॅलैंड कमोबेश ऐसी ही परिस्थितियों का पूर्वाभास करके ब्रिटेन से अलग हुआ है। आॅस्ट्रिया में दक्षिणपंथी इन्हीं स्वरों को बुलंद करते हुए सत्ता के करीब हैं। फ्रांस में लगातार हो रहे आतंकी हमलों के बाद दक्षिणपंथियों का जनता में प्रभाव बढ़ रहा है। ब्रिटेन के संघ से अलग होने के बाद अमेरिका में चल रही राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया में भी दक्षिणपंथ अब और तेज होगा। दरअसल यूरोपीय देशों में जिस तरह से शरणार्थी प्रवेश करते जा रहे हैं, उससे इन देशों में जो नई बस्तियां वजूद में आ रही हैं, वे अपना धार्मिक व सांप्रदायिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए स्थानीय समुदायों से संघर्ष भी करने लग गई हैं।
इस संघर्ष की मिसाल नए साल के जश्न के मौके पर 31 दिसंबर 2016 की रात जर्मनी में देखने में आई थी। यहां के म्यूनिख शहर में अपनी परंपरा के अनुसार जब उत्सव चरम पर था, तब शरणार्थी की भीड़ धार्मिक नारे लगाते हुए आई और जश्न के रंग को भंग कर दिया। शरणार्थी बोले, इस्लाम में अश्लील नाच-गानों पर बंदिश है, इसलिए इसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। इस्लाम के बहाने इस विरोध के स्वरूप ने कोलेन में तो हिंसक रूप धारण कर लिया था। यहां एक चर्च के सामने जश्न मना रहे उत्सवियों पर हमला बोला गया। महिलाओं के कपड़े तार-तार कर दिए। कई महिलाओं के साथ दुष्कर्म भी हुए। हैरानी इस बात पर भी है कि इनमें अनेक महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने उदारता बरतते हुए शरणार्थियों को अपने घरों में पनाह दी थी। इस घटना के बाद से शरणार्थियों को शक की निगाह से देखा जाने लगा। इनकी बेदखली शुरू हो गई। एक जर्मन युवती जब शरणार्थियों के शिविर के पास से गुजरी तो उसे 20 जनवरी 2016 को सामूहिक हवस का ष्किार बना लिया गया। इस युवती ने इस दुष्कर्म की कहानी एक टीवी समाचार चैनल पर बयान कर दी। इससे जर्मन जनता शरणर्थियों के खिलाफ खड़ी हो गई। बावजूद जर्मन सरकार को चेतना तब आई जब मिश्र की अल अजहर विश्वविद्यालय की एक महीला प्राध्यापक ने बयान दिया कि ‘इस्लाम में मुस्लिम पुरुषों को गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार की इजाजत है।‘ इस बयान के बाद जर्मन ही नहीं ब्रिटेन भी चैकन्ना हो गया।
नतीजतन जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहना पड़ा कि ‘उन्हें अब शरणार्थियों की नीति पर पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है।‘ जबकि इराक, सीरिया और लीबिया से आए शरणार्थियों को शरण देने में सबसे ज्यादा उदारता जर्मनी ने ही बरती थी। किंतु हवन करते हाथ जलने की कहावत चरितार्थ होने पर अब वहां नए शरणार्थियों के आने पर अंकुश लगा दिया है। दरअसल इस हिंसा से परेशान होकर जर्मनी के दक्षिणपंथी नेता तातजाना फेस्टरलिंग ने सवाल उठाया था,‘ जब लाचार और भुखमरी की हालत में मुस्लिम शरणार्थी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का अनादर कर रहे हैं, तो जब से यहां बाईदेव बहुसंख्यक व शक्ति संपन्न हो गए तो ईसाइयों को ही यूरोप से बेदखल करने लग जाएंगे।‘ इस घटनाक्रम के बाद से ही यूरोप में शरणार्थियों को वापस भेजने का आंदोलन व गतिविधियां तेज हुईं। स्वीडन, नीदरलैंड और ग्रीस ने इसी साल के अंत तक शरणार्थियों को अपने देश से वापस भेजने का वादा जनता से किया है।
डेविड कैमरन ब्रिटेन के यूसं से जुड़े रहने के पक्ष में जरूर थे, लेकिन उन्होंने मुस्लिमों की आबादी ब्रिटेन में बढ़े इस पर अंकुश की कानूनी प्रक्रिया जर्मन की घटना के बाद ही शुरू कर दी थी। डेविड ने जनवरी 2016 में शर्त लगाई कि ब्रिटेन में दूसरे देशों से जो नागरिक आते हैं, उन्हें अंग्रेजी भाषा सीखना जरूरी है। यह शर्त उनके लिए है, जो ब्रिटेन में अस्थाई रूप में या तो व्यापार करने आते हैं या फिर नौकरी करने के लिए अपनी बिबीयों को साथ लाते हैं। इन औरतों को अंग्रेजी नहीं आती है। ब्रिटेन इन लोगों को पांच साल का वीजा देता है। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इन महिलाओं को ढाई साल के भीतर अंग्रेजी सीख लेने की सहूलियत दी है। इस दौरान ये अंगेजी नहीं सीख पाती हैं, तो इन की रवानगी डाल दी जाएगी। ब्रिटेन में दो लाख ऐसी मुस्लिम महिलाएं हैं, जिन्हें कतई अंग्रेजी नहीं आती है। डेविड ने इसी समय मुस्लिमों के धार्मिक कानूनों पर एतराज जताते हुए, उन्हें अप्रासंगिक हो चुके मध्ययुगीन धार्मिक कानून धोने की संज्ञा दी थी। साफ है, डेविड कैमरन जैसा एक उदार व सुलझा हुआ व्यक्ति इस तरह के अल्फाज बोल रहा है तो कुछ आशंकाएं ऐसी जरूर हैं, जो किसी भी धर्म्रनिरपेक्ष बहुलतावादी लोकतांत्रिक देश पर कालांतर में भारी पड़ सकती हैं ? जाहिर है, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के बाद यूरोप में जो शरणार्थी विरोधी माहौल है, उसे स्थानीय जनता का और मजबूत सर्मथन मिलेगा। यह स्थिति ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में ही नहीं, पूरी दुनिया में समुदायों के भीतर पनप रहे संप्रदायवाद को भी विभाजित एवं रेखांकरित करेगी।