उत्कृष्ट अमेरिकी इतिहासकार ने इतिहास में भारत पर ब्रिटिश शासन को सबसे बड़ा अपराध बताया

लालकृष्ण आडवाणी

‘मदर इण्डिया‘ शीर्षक वाली घिनौनी भारत विरोधी पुस्तक लिखने वाली कुख्यात लेखिका केथरीन मायो का नाम मैंने पहली बार तब सुना जब मैं कराची में विद्यार्थी था। महात्मा गांधी ने इस पुस्तक की निंदा ‘गटर इंस्पेक्टर की रिपोर्ट‘ के रुप में की!

मायो एक अमेरिकी पत्रकार थी जिसने लगभग 1927 में भारत में ब्रिटिश राज के पक्ष में यह पुस्तक लिखी। उसने हिन्दू समाज, धर्म और संस्कृति पर तीखे हमले किए।

लगभग इसी समय मैंने दो अन्य अमेरिकी लेखकों के बारे में सुना था जिन्होंने खुले दिल से भारत के पक्ष और ब्रिटिशों के विरूध्द लिखा था। इनमें से पहले विल डुरंट थे जो विश्व प्रसिध्द महान इतिहासकार और दार्शनिक माने जाते हैं, दूसरे थे एक चर्च नेता रेवेण्ड जाबेज़ थामस सुडरलैण्ड।

विल डुरंट के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उनके द्वारा लिखित ग्यारह खण्डों वाली ‘दि स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन‘ श्रृंखला है, जो उन्होंने अपनी पत्नी एरियल के साथ मिलकर लिखी है। विल और एरियल को सन् 1968 में जनरल नॉन-फिक्शन के लिए पुल्तिज़र पुरस्कार मिला।

विल डुरंट की दूसरी लोकप्रिय रचना ‘दि स्टोरी ऑफ फिलास्पी‘ सामान्य व्यक्ति तक दर्शन को पहुंचाती है।

सन् 1896 में अपनी पहली भारत यात्रा के दौरान सुंडरलैण्ड न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे और बंगाली राष्ट्रवादी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से मिले। वह पहले अमेरिकी थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया।

मुझे स्मरण आता है कि लगभग 1945 में मैंने उनकी एक सशक्त पुस्तक ‘इण्डिया इन बांडेज‘ पढ़ी थी। गांधीजी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें कृतज्ञता भरे पत्र लिखे थे। ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक को भारत में प्रतिबंधित कर दिया था।

अनेकों को संभवतया यह पता नहीं होगा कि अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेज भारत आए तब देश राजनीतिक रूप से कमजोर था लेकिन आर्थिक रूप से धनवान था।

सुडरलैण्ड ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में इस सम्पदा के बारे में लिखा जोकि हिन्दुओं ने व्यापक और विभिन्न उद्योगों से सृजित की थी।

”भारत, यूरोप के किसी या एशिया के किसी अन्य देश की तुलना में एक महानतम औद्योगिक और उत्पादक राष्ट्र था। इसका टेक्सटाइल सामान-इसके लूम से उत्पादित बेहतर उत्पादन, कॉटन, वूलन, लीनन और सिल्क-सभ्य विश्व में प्रसिध्द थे: इसी प्रकार इसकी आकर्षक ज्वैलरी और प्रत्येक प्रिय आकार में उसके बहुमूल्य नग: उसी प्रकार पोट्ररी, पोरसेलिन्स, सिरेमिक्स-सभी प्रकार के, गुणवत्ता, रंग और सुंदर आकार में: उसी प्रकार धातु में इसका उत्तम काम-लौह, स्टील, चांदी, और सामान में। इसका महान वास्तु-दुनिया के किसी अन्य के बराबर सुंदर। इसका महान इंजीनियर काम। इसके पास महान व्यापारी, व्यवसायी, बैंकर और फाइनेंसर्स। यह न केवल पानी के जहाज बनाने वाला महान राष्ट्र था अपितु सभी ज्ञात सभ्य देशों के साथ इसका विशाल व्यवसायिक और व्यापारिक सम्बन्ध था। ऐसा भारत अंग्रेजों ने अपने आगमन पर पाया।”

ळालांकि, बाद में मुझे विलियम डुरंट द्वारा 1930 में लिखित पुस्तक ‘दि केस फॉर इण्डिया‘ देखने को मिली, लेकिन कई दशकों तक यह उपलब्ध नहीं थी। मुंबई के स्ट्रांड बुक स्टॉल और इसके संस्थापक टी.एन. शानबाग ने इन्फोसिस के मोहनदास पई से डुरंट की इस पुस्तक की फोटो कॉपी लेकर 2007 में पुन: प्रकाशित कर इतिहास की उत्कृष्ट सेवा की है।

‘दि केस फॉर इण्डिया‘ की प्रस्तावना में डुरंट लिखते हैं:

”एक ऐसे व्यक्ति जिसके सांस्कृतिक इतिहास को समझने के लिए मैं भारत गया ताकि दि स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन लिख सकूं……

लेकिन मैंने भारत में ऐसी चीजें देखी कि मुझे महसूस हुआ कि मानवता के पांचवे हिस्से वाले लोगों-जो गरीबी और दमन से इस कदर कुचले हुए थे जैसे कि धरती पर कहीं अन्य नहीं है, के बारे में अध्ययन और लिखना बेमानी है। मैं डरा हुआ था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि किसी सरकार के लिए अपने नागरिकों को ऐसे कष्टों के लिए छोड़ना भी संभव होगा।

”मैं वर्तमान भारत और उसके समृध्द अतीत का अध्ययन करने के संकल्प के साथ आया: इसकी अद्वितीय क्रांति जो पीड़ाओ के साथ लड़ी गई लेकिन कभी वापस नहीं आई के बारे में और सीखने के: आज के गांधी और बहुत पहले के बुध्द के बारे में पढ़ने के लिए। और जितना ज्यादा मैं पढ़ता गया मैं विस्मय और घृणा के साथ-साथ क्रोध से भी भरता गया यह जानकर कि डेढ़ सौ साल में इंलैण्ड द्वारा भारत को जानबूझकर लहूलुहान किया गया है। मैंने यह महसूस करना शुरु किया कि मैं सभी इतिहास के सर्वाधिक बड़े अपराध को देख रहा हूं।”

डुरंट ने सुंडरलैण्ड के विस्तृत रुप से संदर्भ दिया है और कहा कि ”जिन्होंने हिन्दुओं की अकल्पनीय गरीबी और मनोवैज्ञानिक कमजोरी को देखा आज मुश्किल से विश्वास करेगा कि यह अठारहवीं शताब्दी के भारत की सम्पदा थी जिसने इंग्लैण्ड और फ्रांस के पेशेवर समुद्रीय लुटेरों को इसकी तरफ आकर्षित किया था।”

डुरंट कहते हैं कि यही वह दौलत थी जिसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी हथियाने को आतुर थी। 1686 में पहले ही ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों ने अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। सदा-सर्वदा के लिए ”भारत में एक विशाल, सुव्यवस्थित अंग्रेज अधिपत्य स्थापित करने हेतु।”

सन् 1757 में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी में बंगाल के राजा को हराया और अपनी कम्पनी को भारत के इस अमीर प्रांत का स्वामी घोषित किया। डुरंट आगे लिखते हैं: क्लाइव ने धोखाधड़ी और संधियों का उल्लंघन कर, एक राजकुमार को दूसरे से लड़ाकर, और खुले हाथों से घूस देकर तथा लेकर-क्षेत्र को और बढ़ाना। कलकत्ता से एक पानी के जहाज के माध्यम से चार मिलियन डॉलर भेजे गए। उसने हिन्दू शासकों जो उसके और उसकी बंदूकों पर आश्रित थे से 1,170,000 डॉलर ‘तोहफे‘ के रुप में स्वीकार किए: इसके अलावा 1,40,000 डॉलर का वार्षिक नजराना था: ने अफीम खाई जिसकी जांच हुई और संसद ने उन्हें माफ कर दिया, और उसने अपने को खत्म कर लिया। वह कहते हैं ”जब मैं उस देश के अद्भुत वैभव के बारे में सोचता हूं और तुलनात्मक रुप से एक छोटा सा हिस्सा जो मैंने लिया तो मैं अपने संयम पर अचम्भित रह जाता हूं।” यह निष्कर्ष था उस व्यक्ति का जो भारत में सभ्यता लाने का विचार रखता था।

भारत-विश्लेषक अक्सर भारत की जाति-व्यवस्था के बारे में काफी अपमानजनक ढंग से बात करते हैं। हालांकि विल डुरंट जातिवादी उपमा को भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य को सभी इतिहास में सर्वाधिक बड़े अपराध की अपनी निंदा को पुष्ट करने के रुप में करते हैं।

”दि कांस्ट सिस्टम इन इंडिया” उपशीर्षक के तहत डुरंट लिखते हैं:

”भारत में वर्तमान वर्ण व्यवस्था चार वर्गों से बनी है: असली ब्राह्मण है ब्रिटिश नौकरशाही; असली क्षत्रिय है ब्रिटिश सेना, असली वैश्य है ब्रिटिश व्यापारी और असली शूद्र तथा अस्पृश्य हैं हिन्दू लोग।”

पहली तीन जातियों के बारे में निपटने के बाद लेखक लिखता है:

”भारत में असली वर्ण व्यवस्था का अंतिम तत्व अंग्रेजों द्वारा हिन्दुओं के साथ सामाजिक व्यवहार है। अंग्रेज जब आए थे तब वे प्रसन्न अंग्रेजजन थे, सही ढंग से व्यवहार करने वाले भद्रपुरुष; लेकिन उनके नेताओं के उदाहरण तथा गैर-जिम्मेदार शक्ति के जहर से वह शीघ्र ही इस धरती पर सर्वाधिक घमण्डी तथा मनमानी करने वाली नौकरशाही में परिवर्तित हो गए। 1830 में संसद को प्रस्तुत एक रिपोर्ट कहती है कि ”इससे ज्यादा कुछ आश्यर्चजनक नहीं हो सकता कि जो लोग परोपकारी उद्देश्यों से सक्रिय थे। वे भी व्यवहारतया तिरस्कार के लक्ष्य बन रहे थे।” सुंडरलैण्ड रिपोर्ट करते हैं कि ब्रिटिश हिन्दुओं को भारत में अजनबी और विदेशियों के रुप में इस ढंग से मानकर व्यवहार करते थे जैसे प्राचीन काल में जार्जिया और लुसियाना में अमेरिकी दासों के साथ ‘असहानुभूतिपूर्वक‘ कठोर और प्रताड़ित ढंग से किया जाता था।”

डुरंट ने गांधी जी को उदृत करते कहा कि जिस विदेशी व्यवस्था के तहत भारत पर शासन चलाया जा रहा था, उसने भारतीयों को ‘कंगाली और निर्बलता‘ में सिमटा दिया।

डुरंट टिप्पणी करते हैं ”1783 की शुरुआत में एडमण्ड ब्रुके भविष्यवाणी करता है कि इंग्लैण्ड को भारतीय संसाधनों की वार्षिक निकासी बगैर बराबर की वापसी के वास्तव में भारत को नष्ट कर देगी। प्लासी से वाटरलू के सत्तावन वर्षों में भारत से इंग्लैण्ड को भेजी गई सम्पत्ति का हिसाब बु्रक एडमस् ने ढाई से पांच बिलियन डॉलर लगाया था। इससे काफी पहले मैकाले ने सुझाया था कि भारत से चुरा कर इंग्लैण्ड भेजी गई दौलत मशीनी आविष्कारों के विकास हेतु मुख्य पूंजी के रुप में उपयोग हुई और इसी के चलते औद्योगिक क्रांति संभव हो सकी।”

विल डुरंट ने अपनी पुस्तक ”दि केस फॉर इण्डिया” सन् 1930 में लिखी। जब कुछ समय बाद यह रवीन्द्रनाथ टैगोर के ध्यान में आई तो उन्होंने मार्च, 1931 के मॉडर्न रिव्यू में एक लेख लिखकर विल डुरंट को गर्मजोशी भरी बधाई दी, और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा ”जब मैंने विल डुरंट की पुस्तक में उन लोगों के बारे में जो उनके सगे सम्बन्धी नहीं थे, के दर्द और पीड़ा के बारे में मर्मस्पर्शी नोट देखा तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैं जानता हूं कि लेखक की अपने पाठकों से लोकप्रियता पाने का एक छोटा मौका मिलेगा और उनकी पुस्तक को हमारे लिए निषिध्द करने का जोखिम बना रहेगा, विशेषकर उन लोगों के विरुध्द अस्वाभाविक निन्दा करने की धृष्टता के बगैर भी अपने दुर्भाग्य से प्रताड़ित हो रहे हैं। लेकिन मैं निश्चिंत हूं कि उनके पास पश्चिम में स्वतंत्रता और निष्पक्षता की पैरोकारी की बेहतरीन व्यवस्था का परचम उठाए रखने के रुप में अनुपम पारितोषिक मिलेगा।”

पश्च्यलेख (टेलपीस)

विलियम डुरंट और एरियल डुरंट विद्वता के साथ-साथ प्रेम कहानी में भी सहभागी थे। अक्टूबर, 1981 में विलियम बीमार पड़े और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनके अस्पताल में भर्ती होने के बाद से एरियल ने खाना त्याग दिया। 25 अक्टूबर को उनकी मृत्यु हो गई। जब विलियम को एरियल की मृत्यु के बारे में ज्ञात हुआ तो वह 7 नवम्बर को चल बसे।

2 COMMENTS

  1. माननीय आड़वाणी जी स्मरण के रूप में लिखा आप का लेख उत्कृष्ट अमेरिकी इतिहासकार ने इतिहास में भारत पर ब्रिटिश शासन को सबसे बड़ा अपराध बताया पढा अच्छा लगा। क्यो कि आप ने भारत वर्ष के निर्माण में हिस्सा लिया। एक छोटे से भारत को आप ने अपनी गोदी में पाल पोस कर बढा किया अपनी नजरो के सामने इसे बढते हुए देखा। आशा करूगां कि आप उस भारत के बारे में नौजवान पीढी को अपने वो स्मरण बताए जिन को पढकर नौजवानो में देश प्रेम पैदा हो और भारत की एकता, अखंड़ता कायम करने के लिये एक बर फिर से आप और आप के कलम को पूरा देष बधाई दे।

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