पौधा ऊपर, तब उठता है।
पत्थर से पत्थर, जुडता जब,
नदिया का पानी, मुडता है।
अहंकार दाना, गाडो तो,
राष्ट्र बट, ऊपर उठेगा,
कंधे से कंधा, जोडो तो,
इतिहास का स्रोत, मुडेगा।
अहंकार-बलिदान, बडा है,
देह के, बलिदान से,
रहस्य, यह जान लो,
जीवन सफल, होकर रहेगा।
इस अनन्त आकाश में,
यह पृथ्वीका बिंदू कहाँ ?
और, इस नगण्य, बिन्दुपर,
यह अहंकार, जन्तु कहाँ?
फिर ”पद” पाया, तो क्या पाया ?
और ना पाया, तो क्या खोया ?
{”क्या पाया? क्या खोया? ”}
अनगिनत, अज्ञात, वीरो नें,
जो चढाई, आहुतियाँ-
आज उनकी, समाधि पर,
दीप भी, जलता नहीं है।
अरे ! समाधि भी तो, है नहीं।
उन्हीं अज्ञात, वीरो ने,
आकर मुझसे, यूँ कहा,
कि छिछोरी, अखबारी,
प्रसिद्धि के,चाहनेवाले,
न सस्ते, नाम पर,
नीलाम कर, तू अपने जीवन को
”पद्म-श्री, पद्म-विभूषण,
”रत्न-भारत, ”उन्हें मुबारक।”
बस, हम माँ, भारती के,
चरणों पडे, सुमन बनना, चाहते थे।
अहंकार गाडो, माँ के लालो,
राष्ट्र सनातन ऊपर उठाओ,
और कंधे से, कंधा जोडो,
इतिहास पन्ना, पलटाओ।
इतिहास पलट के दिखाओ।
इतिहास पलट के दिखाओ।
इतिहास पलट के दिखाओ।
भारतवर्ष की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि यहां हम सब अपने व्यक्तिगत धर्म को तो समझते हैं पर राष्ट्रधर्म की अनदेखी करते हैं। भाजपा के नेता अपने एक – एक मुठ्ठी आसमान के लिये लड़-मर रहे हैं जबकि पूरा क्षितिज उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। काश वह जागें और देख पायें कि वह जनता को किस सीमा तक निराश कर रहे हैं। !
डाक्टर मधुसुदन ,सोये हुए को जगाया जा सकता है,पर आप तो उन जागे हुओं को जगाने का प्रयत्न कर रहें हैं,जो स्वार्थ में मदांध हो कर अपने साथ राष्ट्र का भी विनाश करने पर तुले हुए है.
बहुत दिनों के बाद अंतरात्मा को झकजोर करने वाली पंक्तिया पड़ी…..
शशिकान्त
सटीक कविता, सामयिक मार्गदर्शन.
मधुभाई,
आपके पीड़ा की अभिव्यक्ति गहराई तक पहुँच रही है. आशा है उनतक भी पहुंचेगी जिनतक पहुंचना आवश्यक है.
बलराम सिंह