भ्रष्टतंत्र सुधरे तो कुछ काम बने

डॉ. आशीष वशिष्ठ

गुडगांव की माही बोरवेल के गडढे में गिरकर मर जाती है और एहतियाती कदम उठाने की बजाए प्रशासन लीक पीटने का काम करता है। ऐसा भी नहीं है कि माही पहली ऐसी बदकिस्मत बच्ची थी जो बोरवेल में गिरकर अपनी अनमोल जिंदगी गंवा बैठी। इससे पूर्व भी कई नौनिहाल अव्यवस्था के चलते काल के मुंह में समा गये। यहां मुद्दा खुले बोरवेल का नहीं व्यवस्था का है। यह कोई एक अकेला ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर आम आदमी को क्रोध, नाराजगी और हैरानी हो। हमारे चारों ओर अव्यवस्था का आलम है और जिनके कंधों पर व्यवस्था को सुधारने और दुरुस्त रखने की जिम्मेदारी है वो कानों में तेल डाले बैठे हैं, उनकी दृष्टि और भारी भरकम सरकारी फाइलों में सब कुछ ठीक-ठाक है।

देश को आजाद हुए 64 वर्षों को लंबा समय बीत चुका है बावजूद इसके देश में अव्यवस्था का बोलबाला और वर्चस्व है। रेलवे टिकट से लेकर कुकिंग गैस की बुकिंग तक, स्कूल-कॉलेज में एडमिशन से लेकर न्याय पाने तक आप जहां भी जाएंगे आपका स्वागत लंबी कतार और अव्यवस्था से होगा। घर से बाहर निकलते ही सडक़ पर लगा कूड़े का ढेर, बजबजाती नालियां, अव्यवस्थित ट्रैफिक, चौराहों पर लगी भीड़, वसूली करते पुलिस वाले, छुट्टा जानवर अव्यवस्थाओं की पोल खोलते हैं। सरकारी अस्पतालों के दरवाजे पर जन्म लेते बच्चे, हड़ताली डाक्टर, दम तोड़ते मरीज, भ्रष्ट और घूसखोर तंत्र, आम आदमी को घनचक्कर बनाती व्यवस्था सोचने को विवश करती है कि देश की जनता कितनी विषम परिस्थितियों में जीवनयापन कर रही है। तंत्र और व्यवस्था संचालक बेशर्म, घूसखोर, भ्रष्ट और मोटी चमड़ी के मालिक हैं। जनता जिए या मरे उनकी बला से।

प्रजातंत्र में प्रजा मालिक होती है लेकिन चालाक और धूर्त नेताओं ने भोली-भाली जनता को इस तरह गुमराह किया है कि प्रजा मालिक की बजाए याचक की भांति नेताओं और व्यवस्था के समक्ष अपने हक और हकूक के लिए गिड़गिड़ाती और गणेश परिक्रमा करने को विवश है। पिछले छह दशकों में सारी दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है लेकिन हमारे यहां अभी तक रोटी,कपड़ा, मकान ही सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं। आम आदमी सडक़, नाली, खडंजे, स्ट्रीट लाइट, पेयजल और बिजली के फेर में फंसा है।

इन हालातों के लिए व्यवस्था के साथ जनता भी बराबर की कसूरवार है। जनता इन हालातों में जीने की आदी हो चुकी है। पांच-सात घण्टे बिजली गुल होने या फिर दो-तीन दिन तक पानी न आने या फिर गंदा पानी आने और सूखे हैण्डपंप को देखकर अब कम ही लोगों को झुंझलाहट होती है। जनता इस वातावरण और अव्यवस्था को अपना भाग्य या नियती मान-समझ चुकी है। ऐसा भी नहीं है कि देश में साधनों और संसाधनों का अभाव है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना जारी है। देश के विकास और जनता के कल्याण के लिए लाखों करोड़ रुपये पिछले 64 वर्षों में सरकारी कागजों में खर्चे हो चुके हैं बावजूद हालात बद से बदतर हो रहे हैं। व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त रखने के लिए सैंकड़ों कानून और नियम बने हैं बावजूद इसके देश में अव्यवस्था सिर चढक़र बोल रही है।

असलियत यह है कि देश में एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त हो। रेलवे स्टेशन चले जाइए, हर कदम पर आपका स्वागत कमियों, परेशानियों से होगा। वहां की व्यवस्था आपका मुंह चिढाएगी और खीझ पैदा करेगी। प्लेटफार्म पर गंदगी के ढेर, टपकते और बहते नल, गंदे रेलवे ट्रेक, मनमाना किराया वसूलते कुली और वेण्डर, बंद पड़े पंखे, टूटे बेंच और सीटें आम आदमी के साथ अमानवीय व्यवहार नहीं तो और क्या कहा जाएगा। ट्रेन में गंदे शौचालय, रिजर्व बोगी में बैठे डेली पेसेंजर, खाने-पीने का बिकता घटिया सामान क्या अव्यवस्था नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल रेलवे स्टेशन पर ही आपका सामना अव्यवस्था से होगा अस्पताल, हवाई अड्डे, बस अड्डा, स्कूल-कॉलेज, सरकारी दफ्तर या मंत्रालय आपको कमोबेश हर जगह एक समान अव्यवस्था का माहौल मिलेगा। और हालात यह है कि व्यवस्था के लिए जिम्मेदार तंत्र बढ़ती जनसंख्या, साधन-सुविधाओं के अभाव, पैसे की कमी का रटा-रटाया राग अलापता रहता है। लेकिन सच्चाई यह है कि देश में साधनों-संसाधानों का उतना अभाव और टोटा नहीं है जितना बताया जा रहा है। पिछले तीन दशकों के आंकड़े उठाकर देख लीजिए देश में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए लाखों करोड़ रुपये का बजट खर्च हो चुका है। बावजूद इसके बिजली, पानी और सडक़ सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। सरकारी योजनाओं में बढ़ता भ्रष्टाचार और करोड़ों के घोटाले व्यवस्था की सच्चाई का बखूबी बयान करते हैं। जितना पैसा आजादी के बाद से देश विकास के नाम पर सरकारी कागजों में खर्चे किया गया है अगर ईमानदारी से उसका दस फीसदी भी जमीन पर लगा होता तो समस्त साधन-सुविधाओं से सुसज्जित एक नया देश बसाया जा सकता था।

देश में बजट, साधन-सुविधाओं और संसाधनों की कोई कमी नहीं है। सच्चाई यह है कि सरकारी तंत्र इस कदर भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है कि वो बिना कोई खाए-पीए एक कदम भी नहीं चलता है। सरकारी योजनाएं लूट-खसोट का साधन बनी है। पढ़ा-लिखा तबका वोट डालने नहीं जाता है और जो वर्ग वोट डालने जा रहा है वो धर्म, जाति और क्षेत्रवाद के फेर में पड़ा है जिसकी वजह से सही प्रतिनिधियों का चुनाव नहीं हो पाता है। वहीं इक्का-दुक्का अगर जननायक या नेता एमएलए या एमपी बन भी जाता है तो भ्रष्ट और जुगाड़बाज व्यवस्था उसको साइड लाइन लगा देती है। इमानदार अधिकारी हमेशा लूप लाइन में या फिर ट्रांसफर के फेर में ही उलझे रहते हैं।

तथ्य यह भी है कि जनता में गुस्स और उबाल तो है लेकिन उस गुस्से और नाराजगी को सही नेतृत्व नहीं मिल पा रहा है। अन्ना और रामदेव ने अव्यवस्था और भ्रष्टतंत्र के विरुद्घ आवाज बुलंद की और उन्हें भारी जनसमर्थन भी मिला लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था और तंत्र उनके प्रयासों को दबाने,कुचलने और मुंह बंद करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है। जनता को यह भी सोचना और समझना होगा कि अव्यवस्था उनके भाग्य में नहीं लिखी है यह भ्रष्ट व्यवस्था की पैदाइश है, और यही भ्रष्टतंत्र अपने निजी हितों और स्वार्थ के लिए जनता को गुमराह करके इस अव्यवस्था को पाल-पोस रहा है। धीरे-धीरे ही सही जनता में जागृति आने लगी है और जनता सही-गलत समझने भी लगी है। समय रहते अगर व्यवस्थाओं में सुधार नहीं हुआ तो वो समय दूर नहीं है जब देश में व्यवस्था सुधार के लिए जनता इकट्ठा होकर तंत्र से सवाल-जवाब करेगी, उस समय प्रजातंत्र की जीत होगी।

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  1. डाक्टर आशीष वशिष्ठ इस साफ़ साफ़ दो टूक,बेलाग बात कह्ने कें लिये यह वृद्ध आपको सादर नमन करता है.आप ने ठीक लिखा कि इन सब बद हालियों के लिए जनता भी कम जिम्मेवार नहीं है.अगर सच में जनता,ख़ास कर पढ़े लिखे लोग अपनी जिम्मेवारी समझे तो इससे अभी भी छुटकारा पाया जा सकता है.आप ने अपने आलेख के अंत में यह लिखा है कि” धीरे-धीरे ही सही जनता में जागृति आने लगी है और जनता सही-गलत समझने भी लगी है। समय रहते अगर व्यवस्थाओं में सुधार नहीं हुआ तो वो समय दूर नहीं है जब देश में व्यवस्था सुधार के लिए जनता इकट्ठा होकर तंत्र से सवाल-जवाब करेगी, उस समय प्रजातंत्र की जीत होगी।”
    काश, वह दिन देखना नसीब हो.

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