बुलंदशहर की घटना हमसे कह रही है…..

rapeराकेश कुमार आर्य

अपनी ही निगाहों से हमने अपना ही चमन जलते देखा।
अपना मधुबन जलते देखा अपना उपवन जलते देखा।।
बस्तियां जलाने वालों को कोई दोष न दे तो अच्छा है।
घर के ही चिरागों से हमने ये घर-आंगन जलते देखा ।।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जनपद बुलंदशहर फिर मानव की उस निकृष्टतम सोच और हरकत को देखने का गवाह बना है, जिसको बयां करने में यह लेखनी कांपती है। कुछ दिन पहले हमने दिल्ली की ‘निर्भया’ के लिए मोमबत्ती जलाकर यह समझ लिया था कि संभवत: भविष्य में अब ऐसी घटनाएं नही होंगी। लेकिन ‘निर्भया’ काण्ड के अगले ही दिन से ऐसी घटनाएं भारत में नित्य होती आ रही हैं। अब बुलंदशहर में दो मां-बेटियों के साथ जो कुछ भी हुआ है उसने फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि दुनिया में दरिंदा और दरिंदगी दोनों जिंदा हैं। घटना के बाद प्रशासन और शासन हर बार की भांति ‘अति सक्रिय’ हुआ और कई प्रशासनिक अधिकारियों को यहां से हटा दिया गया। किसी प्रशासनिक अधिकारी को स्थानांतरित कर देना उसके लिए सजा नही होती, अपितु प्रशासन द्वारा जनता के प्रकोप से यथाशीघ्र अपने नियुक्त अधिकारी को बचाने की एक भावना होती है। यह भावना अंग्रेजों के समय से काम करती आ रही है, जब उनके समय में किसी अधिकारी के तैनात रहते हुए देश के लोगों का किसी घटना को लेकर लावा उबलता था तो अंग्रेज लोग उस लावा से सर्वप्रथम अपने अधिकारी को बचाते थे। कुल मिलाकर कुछ ऐसा ही खेल अब भी जारी है।

बुलंदशहर की घटना को लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खासे नाराज बताये जा रहे हैं। उनकी नाराजगी में वजन हो सकता है, बशर्ते कि ऐसी घटना आज के बाद न हों। लेकिन ये घटनाएं आगे भी होंगी-और इसका कारण केवल ये है कि हम ऐसी घटनाओं को होते रहने देने के लिए सभी सामूहिक रूप से जवाबदेह हैं। हमारी सरकारी नीतियों के तहत नारी को उच्छ्रंखल बनाने और उसे अपनी लज्जा से बाहर निकालने की हर सीमा को तोड़ा गया है। आधुनिकता के नाम पर देश में सिनेमा संस्कृति का विस्तार किया गया, युवाओं को बरगलाने और उन्हें अपनी सीमाओं से बाहर जाकर सब कुछ करने की खुली छूट यहीं से प्रारंभ हुई। आज बढ़ते-बढ़ते यह सिनेमा हर घर में घुस गया है। सारा माहौल वासनात्मक बना दिया गया है। हमारी सरकारें सब कुछ जानती हैं कि कुछ मुट्ठी भर लोग रातों-रात सिनेमा के माध्यम से धनी होने के लिए देश के बहुसंख्यक समाज पर अपनी सोच लादने का कार्य कर रहा है। पर देश के इन गद्दारों को पकडऩे या उन पर हाथ डालने का साहस नही किया जाता। इन गद्दारों देश के विद्यालयों का पाठ्यक्रम भी अपने अनुकूल बनवा लिया है। देश के टीवी चैनल और तथाकथित मीडिया से जुड़े लोग भी अपनी जमीर बेचकर इन्हीं गद्दारों के लिए लिखते हैं और फिर इन सबके सामूहिक प्रयास से एक ऐसा माहौल बनता है जिसमें ‘निर्भया’ काण्ड आराम से हो जाता है। यह कैसे संभव है कि रसोई में मां ने पकौडिय़ां तल दी हों और कोई भी बच्चा उन्हें खाने न आए? सारा परिवेश ही जब वासनात्मक बना दिया गया हो तो लोगों से संस्कारशील रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इन सारे गद्दारों ने संस्कारों को तो रूढि़वाद कहकर कोसा है-और अब ये संस्कारशील समाज की अपेक्षा करते हैं-पता नही इनको बुद्घि कब आएगी?

इस देश में नारी की रक्षा इसलिए होती थी कि नारी अपनी लज्जा को अपना आभूषण बनाकर पहनती थी और पुरूष वर्ग उससे एक दूरी बनाकर रहता था। नारी की उस लज्जा को और पुरूष वर्ग की उस दूरी को आज के कथित समाज ने एक संस्कार न मानकर तालीबानी सोच माना और उसे रूढि़वादिता कहकर कोसा है। अब परिणाम घातक आ रहे हैं तो सब परेशान हैं कि यह हो क्या गया है?

जो बीत गये वो जमाने नही आते।
मिलते हैं नये लोग पुराने नही आते।।
आज के आलम में फरिश्तों से शिकवा है।
वे लुटते हुए लोगों को बचाने नही आते।।
मुद्दत हुई इस पेड़ की शाख को सूखे हुए।
अब पंछी भी यहां रात बिताने नही आते।।
लकड़ी के घरों में चिरागों को न रखिये।
अब पड़ोसी भी आग बुझाने नही आते।।

लोग कहते हैं जमाना बदल गया-उन्हें कौन समझाये कि जमाना नही बदलता उसे बदलने वाले हम स्वयं होते हैं। नये-नये के चक्कर में पुराने की समीक्षा करना भी हमें अच्छा नही लगता। इसलिए आराम से कह देते हैं कि जमाना बदल गया। अपनी बात को और दमदार बनाने के लिए यह भी कह देते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हम भी मानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है-पर प्रकृति अपने बीते हुए कल को आज के साथ समायोजित करती है, हम ऐसी समीक्षा नही करते। जो पिछले वर्ष इन दिनों में मौसम था प्रकृति ने परिवर्तन की राह चलते हुए भी इन दिनों में लगभग वही मौसम हमें परोस दिया है। प्रकृति का हर महीना लगभग हर पिछले वर्ष के जैसा ही होता है। फिर कैसा परिवर्तन? वसंत के दिनों में पेड़ पौधों में नये फूल-पत्ते आ जाने मात्र को तो परिवर्तन नही कहा जा सकता। बात साफ है कि प्रकृति अपने कल को आज के साथ समायोजित करती है-ऐसे ही हमको भी अपने कल की अच्छी बातों को आज के साथ समायोजित करना चाहिए, इसी को सनातन धर्म कहते हैं। नारी अपनी लज्जा का, पुरूष अपनी ओर से उचित दूरी का, विद्यालय नैतिक संस्कारों का, शासन उचित शिक्षा का, समाज उचित परिवेश का, और मीडिया धर्म की न्याय व्यवस्था पर पैनी नजर रखने का यदि ईमानदारी पूर्वक पालन करें तो ‘निर्भया’ काण्ड जैसी घटनाओं से मुक्ति मिल सकती है।

बुलंदशहर की घटना हमसे कह रही है-

कुछ मजबूरन कुछ मसलनात कातिल को मसीहा कहते हैं।
जिस वतन को आग लगाई हम वली उसी को कहते हैं।।
बिजलियों ने आग दी जिस नशेमन को सौ मर्तबा।
हम तिल-तिल जलते रहकर भी अफसोस उसी में रहते हैं।।

1 COMMENT

  1. सर,एक तरफ़ तो आप अपने महान सनातन धर्म की दुहाइ दे रहे है जो सदियो से भारत की संस्क्रिति का आधार रहा है और दुसरी और आप कह रह है कुछ मुट्ठी भर लोगो ने सिर्फ़ धन के लिय सिनेमा के द्वारा हमरी संस्क्रिति के मूल्यो को बदल कर रख दिया। क्या हमारी संस्क्रिति वह इतनी कमजोर है कि कुछ विक्रत मानसिकता के लोगो द्वारा उसका मूल्य परिवर्तन कर दिया जाय या फ़िर हमारे आधार मे ही कुछ कमी है? जिसमे स्त्री को कुछ माना ही नहीं गया और इसके सबूत है हमारे तथाकथित धर्म-ग्रंध और तथाकथित धर्म गुरु।

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