बुंदेलखण्ड : प्रकृति नहीं, सियासत का कोप भारी है !

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सुनील अमर 

बुंदेलखण्ड देश का दूसरा विदर्भ बनता जा रहा है। केन्द्र और राज्य सरकारों के तमाम घोषित उपायों के बावजूद यहॉ के किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गत माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय उ.प्र. ने समाचार पत्रों में छप रही आत्महत्याओं की खबरों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए केन्द्र व उ.प्र. सरकार से कैफियत तलब की है। इस क्षेत्र की बदहाली के लिए प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ राजनीतिक कारण कितने जिम्मेदार हैं, इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि केन्द्र द्वारा गत वर्ष बुंदेलखण्ड को अतिरिक्त सहायता के मद में दिए गए 800 करोड़ रुपये को उ.प्र. सरकार खर्च ही नहीं कर पाई है और उसने बीते मार्च माह तक मात्र 73 करोड़ यानी सिर्फ 09 प्रतिशत धनराशि का उपयोग प्रमाण पत्र दिया है! जानना दिलचस्प होगा कि केन्द्र सरकार ने बुंदेलखण्ड के विकास और राहत कार्यों के लिए कुल लगभग 8000 करोड़ रुपयों का भारी-भरकम विषेश पैकेज दे रखा है लेकिन वहॉ प्रशासनिक स्तर पर घोर अवयस्था के चलते स्थिति सुधारने के बजाय और बिगड़ती ही जा रही है।

बीते 15 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उक्त मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए न सिर्फ केन्द्र व राज्य सरकार से जवाब तलब किया है बल्कि अग्रिम आदेश तक इस क्षेत्र में सभी प्रकार की राजकीय व साहूकरी वसूली पर रोक भी लगा दी है। आत्म हत्याओं के ऑकड़े से चिंतित न्यायालय ने उ.प्र. के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वे ऐसे प्रत्येक प्रकरण में अस्पताल,थाना तथा ब्लाक मुख्यालय से विस्तृत जानकारी तथा किसानों को शासन द्वारा दी जाने वाली कुल सहायता का ब्यौरा एक माह के भीतर न्यायालय में पेश करें। न्यायालय की चिंता को किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के इन ऑकड़ों से समझा जा सकता है कि वर्ष 2009से अब तक यानी मात्र दो वर्षों में 1670 किसानों ने कर्ज व गरीबी से तंग आकर अपनी जान दे दी है। बुंदेलखण्ड मध्य प्रदेश और उ.प्र. के कुछ हिस्सों को मिलाकर बनता है। इसमें उ.प्र. के बॉदा, जालौन, हमीरपुर, झॉसी, चित्रकूट, महोबा और ललितपुर जिले हैं। केन्द्र से पर्याप्त धनराशि आने के बावजूद प्रदेश सरकार की प्रशासनिक अक्षमता के कारण योजनाओं पर अमल नहीं हो पा रहा है जिससे हताश किसान अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर ले रहे हैं।

बुंदेलखण्ड की प्रमुख समस्या सूखा है। एक तो यह समूचा क्षेत्र वैसे ही पथरीला और असमतल है दूसरे बीते एक दशक से यहॉ नियमित बरसात न होने के कारण स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि जगह-जगह जमीन फट जाती है और दरारों में से बेतहाशा धुॅआ निकलने लगता है। उ.प्र. में इस बार जब बसपा की सरकार सत्तारुढ़ हुई तो उसने तीन साल पहले 2008में बुंदेलखण्ड के सूखे से चिन्तित होकर वहॉ कृत्रिम बरसात कराने की घोषणा की और इसके लिए विदेशों से तकनीकी जानकारी भी प्राप्त की गई। यह प्रक्रिया इसमें सिल्वर आयोडाइड (चॉदी का एक अवयव) इस्तेमाल होने के कारण मॅहगी तो थी लेकिन इसके व्यापक असर को देखते हुए इस पर अमल करने का निश्चय किया गया। अब पता नहीं कोई प्रशासनिक अड़चन आयी या लगभग उसी दौरान कॉग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गॉधी ने बुंदेलखण्ड पर थोड़ा ध्यान देना शुरु कर दिया, जो भी हो, राज्य सरकार ने इस अत्यन्त उपयोगी योजना को किसी तहखाने में डाल दिया।

आज बुंदेलखण्ड के दोनो हिस्सों की मुख्य समस्या पानी की किल्लत और इससे उत्पन्न समस्याऐं जैसे कि फसल का सूखना तथा चारे व पेयजल की कमी आदि ही हैं। जाहिर है कि ये समस्याऐं हल की जा सकती हैं और इनको हल करने के लिए तमाम योजनाऐं वहॉ लागू भी है लेकिन वे सब प्रशासनिक लूट-खसोट की शिकार होकर उत्पीड़नकारी हो गयी हैं। वहॉ गॉवों में सामुदायिक रसोई चलाकर जरुरतमंदों को भोजन देने की योजना है तो जानवरों के लिए चारा बैंक भी है। पेयजल के सचल टैंकरों से जलापूर्ति की व्यवस्था है तो मनरेगा जैसी योजनाओं की मार्फत कार्य के अवसर भी उपलब्ध कराये जा रहे है और मनरेगा के श्रम का उपयोग तालाबो की खुदाई, उनका सुदृढ़ीकरण तथा बरसाती जल को रोकने के लिए मेंड़ व बॉध बनाने में भी किया जा रहा है। किसानों की ऋण माफी योजना वहाँ भी लागू की गई है। यें सब है लेकिन इन सबके वहॉ काम न कर पाने का मुख्य कारण प्रशासनिक भ्रष्टाचार है जिसके कारण जरुरतमंद लोग कोई भी लाभ नहीं पा रहे हैं और उनके सामने अंतिम विकल्प अपनी जान गँवा देने का ही है। सार्वजनिक वितरण के लिए वहॉ गए पेयजल के टैंकरों को बदमाश बन्दूक के बल पर लूट लेते हैं और फिर मनमाना दाम लेकर बेचते हैं। बाकी योजनाओं के हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। हताशा का आलम यह है कि आत्महत्या के साथ-साथ इस क्षेत्र से पलायन भी तेजी से हो रहा है। सरकारी ऑकड़ों की ही मानें तो इधर के वर्षों में लगभग 13000 परिवार उ.प्र. के बुंदेलखण्ड से पलायित हो चुके हैं। गैर सरकारी तौर पर यह संख्या दोगुनी बतायी जाती है।

उच्च न्यायालय के संज्ञान लेने के तत्काल बाद केन्द्रीय योजना आयोग की एक बैठक हुई जिसमें उक्त क्षेत्र के सांसदों ने हिस्सा लिया। बुंदेलखण्ड पैकेज की धनराशि के खर्च पर हुई इस समीक्षा बैठक में शामिल बांदा से सपा सांसद आर. के. पटेल ने कहा कि सारी योजनाऐ अधिकारियों की लूट-खसोट की शिकार हैं और इनकी सी.बी.आई. जॉच होनी चाहिए। सपा के ही घनश्याम अनुरागी ने पैकेज के कार्यो में भारी बंदरबॉट की शिकायत की तो झॉसी के सांसद प्रदीप जैन आदित्य ने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार जानबूझकर बुंदेलखण्ड में केन्द्रीय योजनाओं की दुर्दशा कर रही है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं योजनाओं की सफलता का श्रेय राहुल गॉधी को न मिल जाय। जैन ने किसानों के कर्ज के एकमुश्त समाधान किए जाने की मॉग केन्द्र सरकार से की जबकि हमीरपुर के बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने आरोप लगाया कि बुंदेलखण्ड के लिए प्रस्तावित कई योजनाओं के लिए केन्द्र के कई विभागों से धन मिलना था जो कि आज तक मिला ही नहीं। बहरहाल श्री सिंह के आरोप उस वक्त निराधार साबित हो गये जब गत दिनों उ.प्र. के मुख्य सचिव ने स्वीकार किया कि केन्द्र द्वारा दिए गए धन को खर्च करने के लिए अभी उन्हें एक वर्ष का समय और चाहिए। उन्होंने यह स्वीकारोक्ति बुंदेलखण्ड पर केन्द्रीय पैकेज के प्रभारी डॉ. जे.एस. सामरा के साथ हुई एक बैठक में की।

बुंदेलखण्ड के लोगों की हताशा और विषाद का मुख्य कारण पानी है। इसका हल हुए बगैर वहॉ जन जीवन सामान्य नहीं हो सकता। तमाम कारगर और तस्वीर बदलने मे सक्षम योजनाऐं वहॉ राजनीतिक खींचतान में उलझी पड़ी हैं। इसलिए आवश्यकता वहॉ जलागम की कोई केन्द्रीय योजना शुरु करने की है। इसी समस्या के हल के लिए बहुउद्देष्यीय केन-बेतवा नदी जोड़ने की योजना बनाई गई है। केन्द्र की इस योजना के तहत केन नदी के अतिरिक्त पानी को बेतवा नदी तक पहॅुचाया जाना प्रस्तावित है तथा इसमें बनाये जाने बॉध, बैराज और नहरों से पूरे बुंदेलखण्ड को हरा-भरा किया जाना है। इसके तहत मकोरिया, रिछान, बरारी और केसरी नामक स्थानों पर बॉध बनाये जाने हैं तथा इसी में से नहरें निकलेंगी। प्रारम्भ में 1800 करोड़ रुपये की अनुमानित यह योजना अब 9000 करोड़ रुपये की बतायी जा रही है, लेकिन इसका क्रियान्वयन बुंदेलखण्ड की सूरत बदल सकता है।

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सुनील अमर
लगभग 20 साल तक कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद पिछले कुछ वर्षों से स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन| कृषि, शिक्षा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा महिला सशक्तिकरण व राजनीतिक विश्लेषण जैसे विषयों से लगाव|लोकमत, राष्ट्रीय सहारा, हरिभूमि, स्वतंत्र वार्ता, इकोनोमिक टाईम्स,ट्रिब्यून,जनमोर्चा जैसे कई अख़बारों व पत्रिकाओं तथा दो फीचर एजेंसियों के लिए नियमित लेखन| दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी वार्ताएं प्रसारित|

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