अस्तित्व में आया तीसरा मोर्चा

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-प्रमोद भार्गव-  third front cartoon
अकसर आम चुनाव के पहले सिर उठाने वाले तीसरा मोर्चे के पैरोकारों ने 11 क्षेत्रीय दलों का गठबंधन वजूद में ला दिया है। साथ ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने उम्मीद जताई है कि यह संख्या बढ़कर 15 भी हो सकती है। हालांकि इस बार बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक और असमगण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंत गठजोड़ की इस कवायद से नदारद रहे। इस साझा मोर्च में अन्ना द्रमुक की मुखिया जयललिता ने अपना प्रतिनिधि भेजकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली। यहीं नहीं, जिस समय दिल्ली में तीसरा मोर्चा गठबंधन की गांठ बांध रहा था, उसी समय चेन्नई में जयललिता लोकसभा चुनाव के लिए अपना लोक-लुभावन घोषणा-पत्र जारी कर रही थी, जबकि तथाकथित तीसरे मोर्च ने दिल्ली में अलग घोषणा-पत्र जारी किया है। जाहिर है, जयललिता की मंशा अपनी खिचड़ी अलग पकाने की है। उन्होंने तीसरे मोर्च के वजूद को ताक पर रखकर तमिलनाडु की सभी सीटों पर लोकसभा प्रत्याशी भी घोषित कर दिए हैं, जबकि माकपा और भाकपा से उनका चुनावी गठबंधन हो चुका है। तय है, जयललिता ने गठबंधन को ठेंगा दिखाने का काम उसके अस्तित्व में आने के साथ ही कर दिया।
माकपा और भाकपा द्वारा एकत्रित किए गए इस भानुमती के कुनबे की जरूरत का मौका जनमत सर्वेक्षणों ने दिया है। ये दावा कर हैं कि कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की लोकप्रियता में उम्मीद से ज्यादा गिरावट आई है और नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किए जाने के बाद भाजपा समेत राजग गठबंधन बढ़त में है, किंतु केंद्र में सत्ता पर काबिज होने के लायक सीटें मिलने वाली नहीं हैं। जाहिर है, सत्ता की चाबी क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं। लिहाजा चार वामदलों समेत सपा, जदयू, अन्नाद्रमुक, असमगण परिषद्, झारखंड विकास मोर्चा, जदएस और बीजद शामिल हैं। इस मौके पर एचडी देवगौड़ा, नीतीश कुमार, शरद यादव, मुलायम सिंह, प्रकाश करात मौजूद थे। फिलहाल यदि चुनाव बाद तीसरे मोर्च की सरकार केंद्र में बनती है तो प्रधानमंत्री कौन होगा यह ऐलान नहीं किया है।
सांप्रदायिकता से लड़ने और संघीय एजेंडा के बहाने 11 दल तीसरी ताकत को उभारने के लिए आखिरकार एकजुट हो गए हैं। लेकिन सांप्रदायिकता से लड़ने का न तो वे कोई साझा कार्यक्रम दे पाए और न ही भविष्य की रूपरेखा सामने लाने वाली नीति दे पाए। जाहिर है, तीसरे विकल्प के रहनुमाओं में, कुछ महज इस कोशिश में हैं कि लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद सप्रंग और राजग के पिछड़ने पर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे और प्रधानमंत्री बनने का अवसर चंद नेताओं को मिल जाए। क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, चंद्रशेखर और इंद्र कुमार गुजराल भाग्य बनाम अवसरवाद की ऐसी ही उपज थे। हालांकि गैर कांग्रेसवाद के बहाने वैकल्पिक सरकारें वजूद में आती रही हैं। ऐसा पहली बार 1977 में हुआ था, जब जनता पार्टी और जनसंघ ने एकजुट होकर केंद्र में सरकार बनाई थी। इसके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बने थे। लेकिन लोकदल के चौधरी चरण सिंह ने भांजी मारकर मुरारजी देसाई की सरकार गिरा दी थी और इन्दिरा गांधी की मदद से खुद प्रधानमंत्री बन बैठे थे। पर इस सरकार की उम्र लंबी नहीं रही। 1980 में लोकदल के नेतृत्व में कई दल एक हुए पर सरकार नहीं बना पाए। 1989 में जनमोर्चा बना और जनता दल के वीपीसिंह प्रधानमंत्री बने। भाजपा ने इस सरकार को बाहर से समर्थन दिया। लेकिन राम मंदिर के मुद्दे पर सरकार गिरा दी। सरकार गिरी तो कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। परंतु राजीव गांधी ने चार माह के भीतर ही इस सरकार को औंधे मुंह गिरा दिया। बाद में कांग्रेस के समर्थन से ही संयुक्त मोर्चा की ही सरकार बनी, जिसके प्रधानमंत्री देवगौड़ा बने। लेकिन यह सरकार भी दो साल पूरा होते-होते पटक दी गई। इसके बाद एक बार फिर कांग्रेस की कृपा से ही इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली सरकार बनी। जाहिर है, तीसरे मोर्च के कुंभकार कांग्रेस और भाजापा से दूरी बनाए रखने की डींगें भले ही हांकते रहें, आखिर में उन्हें जाना इन्हीं दलों की शरण में पड़ता है।
जब तक अन्य क्षेत्रीय दल इस गठबंधन का हिस्सा नहीं बनते तब तक देशव्यापी स्तर पर यह मोर्चा कुछ विशेष हासिल कर लेगा, ऐसा लगता नहीं है। मुलायम और वामपंथियों से तकरार के चलते, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने इससे मुंह फेर लिया है। मायावती और मुलायम एक-देसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते। जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस अपनी खिचड़ी अलग पकाने में लगी है। तेलुगूदेशम पार्टी के चन्द्रबाबू नायडू का नरम रुख अभी भी भाजपा के प्रति है। इधर शिवानंद तिवारी नीतीश को आंखें दिखा चुके हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान का गठबंधन राजग से होने जा रहा है। दलित बुद्धिजीवी उदितराज ने भाजपा में शामिल होकर तय कर दिया है कि भाजपा अब दलितों के लिए भी अछूत नहीं रही है। जयललिता ने तीसरे मोर्च में भागीदारी के संकेत देने के बावजूद जिस तरह से लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में एकला चलो की रणनीति अपनाई हुई है, उससे लगता है वह चुनाव परिणाम बाद अपनी चाल का खुलासा करेंगी। बहरहाल कांग्रेस के गिरते ग्राफ के चलते कल्पित तीसरे मोर्चे के कुंभकारों का एकमात्र मकसद है, बिना किसी सिद्धांत, नीति और साझा कार्यक्रम के सत्ता हथियाने के लिए हाथ-पैर मारना !
इधर उत्तर प्रदेश और बिहार में हालात बदले हैं। बदले हालातों के चलते सपा और जद (एकी) को मौजूदा स्थिति भी बहाल रखना मुश्किल होगा ? ऐसे में तीसरे मोर्चे के समर्थक दलों की क्या स्थिति पेश आएगी, यह तो आम चुनाव के परिणामों से ही साफ होगा ? तथाकथित तीसरे मोर्चे की एक बड़ी भूल यह भी है कि वह सांप्रदायिकता को तो मुद्दा बना रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई को दरकिनार कर रहा है ? जबकि मौजूदा हालात में भ्रष्टाचार और महंगाई ज्यादा असरकारी मुद्दे हैं। बहरहाल राजनीतिक अवसरवाद ने तीसरे मोर्चे को आकार तो दे दिया है लेकिन वह इस मकसद में खरा उतरता है, यह तो नतीजों से ही साबित होगा।
दूसरी तरफ, तीसरे मोर्चे की कवायद को नरेंद्र मोदी पालीता लगाने में लगे हैं। कोलकाता में नरेंद्र मोदी ने तीसरे मोर्च को देष को तीसरे दर्जे की स्थिति में बनाए रखने की राजनीति बताकर उनके गुब्बारे की हवा निकालने का काम किया है। मोदी ने कोलकाता रैली में ममता बनर्जी के प्रति भी नरम रूख जताकर यह साफ कर दिया था कि राजग को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो मोदी ममता को साधने की कोशिश करेंगे। दूसरी तरफ, मोदी ने पूर्वोत्तर राज्यों में रैली करके जिस तरह से बांगलादेशी घुसपैठियों को हड़काने और हिंदुओं को अपनाने की चाल चली है, उससे लगता है भाजपा इन राज्यों में खाता खोलने में सफल हो जाएगी। राजग गठबंधन को सबसे बड़ा फायदा आम आदमी पार्टी के घटते जनाधार से होने जा रहा है, क्योंकि नगरीय क्षेत्रों में आप की बढ़त चुनावी सर्वे दिखा रहे थे, लेकिन दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार गिरने के बाद केजरीवाल प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से नाकाम सिद्ध हो गए है। जाहिर है, दिल्ली में भी अब आप लोकसभा की एकाध सीट ही बमुश्किल जीत पाएगी ? गोया, राजग और मोदी के लगातार बढ़ते ग्राफ के बरक्ष तीसरे मोर्चे की उपलब्धियां नगण्य ही रहेगी?

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  1. थके हारे चूके हुए लोग अपने पांव ज़मीन पर बनाये रखने के लिए यह असफल प्रयास कर रहे हैं. सब एक दूजे की नियत पर संदेह करते हैं. सब का लक्षय जितना लाभ उठाया जा सके उठाने का है.ऐसे में इसके बन ने पर ही संदेह है जैसा आपने बताया कि सब अपनी अपनी खिचड़ी बनाने में भी व्यवस्त हैं और इधर भी नज़र रखे हैं, ऐसे में दो नावों में पग रख आगे चलने की मुराद इन खुद को ही भारी पड़ेगी.हमेशा जैसा ही इनका हश्र होना है.और शायद इस बार ज्यादा, क्योंकि मतदाता बहुत समझदार हो गया है,समीकरण भी बदले हुए हैं, और राजनीतिक माहौल भी. अच्छा होता कि ये अपनी साख बचाये रखने को किसी बड़े दल से समझोता करते.

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