आकाश का दुलार

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-चैतन्य प्रकाश

शिखर और सागर दोनों मनुष्य को आनंदित करते हैं मनुष्य की लगभग सारी यात्राएं शिखरों और सागरों की ओर उन्मुख रही हैं। मानवी सभ्यता के दो आत्यंतिक उत्कर्ष बिन्दुओं-धर्म और विज्ञान के विकास में शिखर और सागर सदैव प्रमुख सहयोगी रहे हैं।

किसी शिखर (पहाड़) की तलहटी से या सागर के तट से आंखें पसार कर आकाश को देखना बेहद आनंदित करता है, यों लगता है जैसे आकाश हमें गोद में उठाने के लिए तत्पर खड़ा है, लगभग ऐसे ही जैसे आंगन में खेलते छोटे बच्चे को उठाने के लिए पूर्णकाय पिता उपस्थित हो।

आकाश का ऐसा दुलार घर, नगर, गली, मोहल्ले में मिलना मुश्किल होता है। किसी तलहटी या सागर तट से धरती की नगरीय बसावट को देखने से हैरत होती है। सुंदरता की प्यास को जाने-अनजाने हर कहीं बयान करने वाला इंसान इतनी बेतरतीब बसावट का निर्माता क्यों है?

नगरीय बसावट की इस बेतरतीबी को यदि भीतर आकर देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक विषमताओं के अतिरिक्त ‘अपनी ढपली अपना राग’ की प्रवृत्ति एक प्रमुख कारक की तरह सामने आती है। यों लगता है जैसे मनुष्य घेरों में घिरे रहने के लिए अभिशप्त है। उसका यह ‘घिरा’ रहना उसकी अपनी भाषा में घर हो जाता है मगर सृष्टि के सौंदर्य के संदर्भ में यह एक कुरूपता निर्मित करता है।

सारे गङ्ढे, तालाब, पोखर लबालब होकर भी वह सौन्दर्य उत्पन्न नहीं कर पाते हैं जो एक मंद-मंद बहती नदी कर पाती है। वास्तव में सौंदर्य और पवित्रता का पर्याय बन कर नदियां इसीलिए पूज्य रही हैं क्योंकि उनमें अखंड प्रवाहमयता है। मनुष्य का ‘घिरा’ रहना उसे गङ्ढे, तालाब, पोखर की तरह कुरूप एवं अस्वच्छ बनाता है, मगर प्रकृति उसे निरंतर प्रवाहित करने के लिए उत्सुक है, इसीलिए मनुष्य घिरा रहकर जी नहीं पाता है।

अन्तर्निर्भरता उसके जीवन की प्रमुख शर्त है। इस कारण वह संबंध बनाता है, तदंतर सामाजिक बनता है। संबंधित होकर मनुष्य प्रवाहित होता है, परिणामत: उसमें सौंदर्य और पवित्रता का प्रकटीकरण होता है। निरंतर संबंधों में अपने स्नेह और प्रेम की ऊर्जा से प्रवाहित रहने वाला मनुष्य ‘घिरा’ रहने के अभिशाप से मुक्त होकर ‘अखंड प्रवाहमयता’ के वरदान को पा जाता है।

फिर वह विषमताओं की खाइयों को भी पाट पाता है और अलग-अलग ढपलियों में समवेत् स्वर लहरी का सा राग भी उठा पाता है। तब सचमुच वह व्यष्टि होकर भी समष्टि के व्याप को भीतर समाहित पाता है, फलत: उसे तरतीब बनाने के लिए आयोजन नहीं करना पड़ता, वह संबंधों की सूत्रात्मकता के सिलसिले में इस तरह खड़ा होता है कि समग्र का सहज हिस्सा हो जाने का उसका समर्पण ही सौंदर्य उत्पन्न करता है।

इन दिनों टेलीविजन धारावाहिकों में संबंधों की कुरूपता का बेहद चित्रण है, आम आदमी को यह नकारात्मक अतिरंजना लगता है। ये कथानक काल्पनिक हैं, मगर वास्तविक की तरह दिखाए जा रहे हैं। धारावाहिकों में चित्रित ये संबंध अपने-अपने अहं के गङ्ढों को भरने की नैतिक-अनैतिक कोशिशों के परिणाम हैं। अहं के गङ्ढों की अभिव्यक्ति के रूप में बने ऐसे सभी संबंध नगरीय सभ्यता के घरों (मकानों) की तरह बेतरतीब हैं, इसलिए असुंदर एवं अपवित्र हैं।

यहां नजरें और नजरिए तंग हैं, यहां आकाश को भरपूर आंखों से देखने की फुर्सत और गुंजाइश ही नहीं है तो उसका दुलार कैसे मिले? ये तमाम संबंध ‘घिरे रहने’ के अभिशाप को भोगने जैसे मारक हैं। ये खंड-खंड बंटे मनुष्य के आपसी तनाव और कलह की सूचना है।

इस खंड-खंड अलगाव को जोड़कर अखंड प्रवाहमय सृष्टि के सेतु की तरह प्रकट होने वाले संबंधों से समाज और सभ्यताओं की जीवंतता परिलक्षित होती है। हमारे संबंध परस्पर पोषक और प्रेरक होंगे तो हमारे जीवन भी सुंदर होंगे और नगर भी।

तब शिखर की तलहटी और सागर के तट से धरती को देखना भी सुखद होगा, कि हमारे नगर फूलों की बगिया जैसे स्वाभाविक सिलसिले की तरह होंगे, वे एक दूसरे से ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, बड़े-छोटे होने की स्पर्धाओं के बजाय परस्पर सहज साथी, संबंधी होने की आकांक्षा का परिणाम होंगे और तब हमारे घर, नगर, गली, मोहल्ले के प्रांगण से भी आकाश का, परमपिता (परमात्मा) का दुलार हमें सहज उपलब्ध हो सकेगा। हम उसका आशीष पाकर धन्य हो सकेंगे।

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