कार्टून ’वाद’ और विवाद

रत्नेश कातुलकर

इन दिनों मीडिया और वैकल्पिक मीडिया दोनों ही जगह डॉ आंबेडकर के कार्टून के मुद्दे पर बहस गरम है. संसद जहां एक स्वर से इस कार्टून को गलत बताकर एन.सी.ई.आर.टी. की किताब से इसे हटवाने पर प्रस्ताव पास कर चुकी हैं. वहीँ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग, इस विरोध को बचकाना बताते हुए इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बता रहा है. संसद के इस फैसले के विरोधस्वरूप एन.सी.ई.आर.टी. की कमेटी से योगेन्द्र यादव और प्रो. पल्शिकर का इस्तीफ़ा इसे और भी हवा देने में कामयाब रहा.

एक निजी टीवी चेनल पर बहस में प्रसिद्द कार्टूनिस्ट सुधीर तेलंग एक कदम आगे बढ़कर बोले कि ‘जिस तरह भारतीय राजनीति में डॉ. आंबेडकर का स्थान है, उसी तरह कार्टून की दुनिया में इस कार्टून के रचियता शंकर का स्थान है.’

प्रगतिशील तबके का मानना है कि कार्टून एक ऐसी कला है, जिसके माध्यम से समाज की हलचल को दर्शाया जाता है, पर कार्टून के विषय में हमें यह भी समझना होगा कि विचार अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमो के विपरीत कार्टून एक प्रतिक्रियावादी कृति है. जो समाज या राजनीति का विवेचन नहीं, बल्कि उस पर कसा चित्रात्मक व्यंग होता है. जिन लोगो को कार्टून ‘प्रतिक्रियावादी’ कला न् लगे उन्हें याद दिलाना उचित होगा कि भारत के ख्यात प्रतिक्रियावादी शिव सेना के पूर्व सुप्रीमो बाल ठाकरे खुद एक आल्हा दर्जे के कार्टूनिस्ट है.

कार्टून वास्तव में साहित्य जैसे कथा, कविता, गीत, ग़ज़ल, या फिल्म, थियेटर जैसी समय की सीमा से परे कृतियों के विपरीत एक अलग विधा है. इस बात को समझने के लिए प्रकाशकों द्वारा किताब और अखबार के बीच बताएं जाने वाला मूल अंतर बरबस याद आता है. उनका कहना है कि किताब ताउम्र चलती है, जबकि अखबार का जीवन सिर्फ एक दिन का होता है.

यदि यह बात निश्चित रूप से सही है तो हमें समझ लेना चाहिए कि तमाम कार्टूनो की तरह वर्ष 1949 में छपा डॉ आंबेडकर का यह विवादास्पद कार्टून भी एक अखबार का ही हिस्सा था. यानि इस कार्टून की उम्र एक दिन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए थी. उस वक्त इस पर कोई विवाद भी नहीं हुआ. पर जब इस कार्टून को पाठ्य पुस्तक का अंश बनाया गया तो इसकी एक दिन की जिंदगी स्वतः ही अमर हो गयी यानि कार्टूनिस्ट शंकर की एक दिन कि यह प्रतिक्रिया अब पाठ्य पुस्तक के माध्यम से हमारे विद्यार्थियों के मन में स्थायी हो गयी.

हमें यह समझना होगा कि यह कार्टून यूँ ही हवा में नहीं पैदा हुआ था बल्कि उस समय आलोचकों ने संविधान निर्माण में हो रही कथित देरी की तुलना रोम के जलते समय नीरो की ऐश से की थी. उनका मानना था कि संविधान समिति ने अपने काम में देरी कर देश का पैसा बर्बाद किया है.

इन आलोचनाओं का जवाब स्वयं डॉ आंबेडकर ने संविधान सभा के अपने उद्बोधन में दिया था. उन्होंने संविधान निर्माण में हुई कथित देरी का उत्तर देते हुए कहा था कि विश्व के तमाम देशो के संविधान निर्माण में जहां अमरीका एक मात्र देश है जिसने 4 महीने के भीतर अपना संविधान का निर्माण कर रिकॉर्ड कायम किया, वहीँ कनाडा के संविधान निर्माण मे 2 साल 5 माह लगे तो ऑस्ट्रेलिया को इस काम में पूरे 9 साल का समय लगा. जबकि इन तमाम देशो के संविधान के विपरीत भारत का संविधान सबसे बड़ा था इसमे जहाँ 395 अनुच्छेद थे वहाँ अमरीका के संविधान में मात्र 7, कनाडा में 147 और ऑस्ट्रेलिया में 128 अनुच्छेद ही थे. हमारे संविधान के इतने विशाल आकार के बावजूद भी यह और जल्दी तैयार हो चुका होता पर इस विलम्ब के पीछे इसमे संविधान सभा के द्वारा हर प्रस्ताव पर चर्चा और इसमें 2,473 संशोधन कराया जाना था.

हमें नहीं पता कि संविधान बनने के बाद शंकर ने कैसे कार्टून बनाये होंगे क्योंकि वे सब उन दिनों के अखबार के साथ ही लुप्त हो गए. वैसे वर्तमान पीढ़ी विख्यात कार्टूनिस्ट आर.के. लक्षमण को ज़रूर जानती होगी. एक समय ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में हर रोज प्रकाशित होने वाले उनके कार्टून आम आदमी की जिंदगी को छूते थे. इन कार्टूनों में भिखारी, गली का कुत्ता और हाथ में छाता पकडे एक आम आदमी भारत की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करता दीखता था. पर 1992 में जब सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग के पक्ष में फैसला दिया तब पता चला कि उनका यह ‘आम’ आदमी आम नहीं बल्कि एक उच्च जातीय हिंदू है. इस फैसले के अगले दिन अखबार में उनके कार्टून में पूरे शहर को आग की लपटों से जलता हुआ दिखाया गया था और मंडल प्रणेता पूर्व प्रधानमन्त्री वी.पी. सिंह को यह कहते हुए दिखाया था ‘अब में चैन से मरूंगा’.

आर.के. लक्ष्मण की तरह शंकर की विचारधारा उनके कार्टून बयान कर सकते थे पर अफ़सोस की ये हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं.

इन वैचारिक विरोधो के बीच रिपब्लिकन पार्टी के एक धड़े द्वारा प्रो. पल्शिकर के दफ्तर में तोड़फोड़ की घटना भी हुई. इसे किसी भी लोकतान्त्रिक देश में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. इसकी निंदा होनी चाहिए. पर हमें जानना होगा कि वह रामदास आठवले ही थे, जिन्होंने इस मुद्दे को सबसे पहले 2 अप्रेल को अपनी प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से उठाया था. पर तब माननीय मानव संसाधन मंत्री के साथ-साथ बात-बात पर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले मीडिया ने भी इस बात पर मौन धारण कर रखा था.

किन्तु नौ दिन बाद जब राज्यसभा में यह मामला कांग्रेस के पी.एल.पुनिया ने उठाया तो इसे रामविलास पासवान, दक्षिण के दलित सांसद थिरुमवलावन के स्वाभाविक समर्थन सहित मायावती की संसद नहीं चलने देने की धमकी के साथ-साथ तमाम राजनीतिक दलों के सदस्यों का सहयोग मिला. मीडिया ने भी तब इस मुद्दे को मायावती और पुनिया की तस्वीरो के साथ अपने मुख पृष्ठ पर स्थान देकर खासा समाचार बनाया.

वहीँ आठवले कि इस मुहीम को नज़रंदाज़ करने वाला मीडिया भी उस वक्त उन्हें अपने मुख पृष्ठ पर स्थान देने में नहीं हिचका जब उनकी पार्टी के लोगो ने प्रो. पल्शिकर के दफ्तर को अपना निशाना बनाया. हालाँकि इस वक्त मीडिया और तमाम प्रगतिशीलो ने इसे लोकतंत्र के खिलाफ कहकर इसकी निंदा ज़रूर की. इस बात पर प्रबुद्ध वर्ग चाहे आठवले की आलोचना करे पर उसे जानना चाहिए कि बदनामी से नाम कमाने की विधा उन्हें जायज़ तरीके से मांग उठाने पर कोई तवज्जो नहीं मिलने पर ही सीखनी पड़ी. वैसे यह विधा तो महाराष्ट्र खासतौर पर मुंबई और पुणे में वहाँ कि मुख्यधारा की पार्टियों शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की ही देन हैं.

जिस तरह समाज में तमाम कुरीतियाँ जैसे पर्दा प्रथा, दहेज, भ्रूण हत्या आदि उच्च वर्ग से निम्न तबके तक जाकर सभी वर्गों में अपनी छाप छोडने में कामयाब हुई है उस तरह यदि तोड़फोड़ की यह परंपरा संभ्रांत वर्ग की पार्टियों से हस्तांतरित होकर दलितो की पार्टी तक आ गयी तो इसमे हाय तौबा क्यों?

क्या अभिव्यक्ति तब तक ही जायज़ है जब तक वह दलित और मुस्लिम की आवाज़ ना हो. यदि ऐसा नहीं तो क्या कारण है कि डॉ आंबेडकर की किताबो के खिलाफ महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्य प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश करते रहे हैं और हिन्दुत्वादी समूहों के फतवों के कारण मकबूल फ़िदा हुसैन जैसे लोगो को अपने ही देश से निर्वासित होना पडता है. लोकतंत्र की दुहाई देने वाला हमारा देश कट्टरपंथी इस्लाम की विद्रोही को तस्लीमा नसरीन को अपने यहाँ शरण तक नहीं दे पाता. अभिव्यक्ति पर घोषित और अघोषित प्रतिबन्ध हिन्दुओ की दलित-महिला विरोधी किताब गीता को पूरे आत्मविश्वास के राष्ट्रीय ग्रन्थ मनवाता है. इस विषय पर प्रगतिवादी भी मुहँ खोलने में कोताही बरतते हैं पर आश्चर्य कि शंकर के इस अजीब कार्टून पर हमारे प्रगतिवादियो का दिल कैसे आ गया

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