जातिगत आरक्षण की अपेक्षा बढ़ाती राजनीति

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reservationसंदर्भः-पाटीदार-पटेल समाज की ओबीसी कोटे में आरक्षण की मांग

 

प्रमोद भार्गव

जातिगत आरक्षण के लिए एक बार फिर पाटीदार पटेल -समुदाय गुजरात में अशांति और हिंसा की राह पर है। इस जाति के संगठन ‘सरदार पटेल ग्रुप‘ ;एसपीजी ने पूरे गुजरात में जेल भरो आंदोलन का आयोजन किया था। इसके जरिए उन्होंने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में ओबीसी कोटे के अंतर्गत आरक्षण की मांग तो की ही,पाटीदार अनामत आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल की रिहाई की मांग भी जोड़ दी। हार्दिक पर राजद्रोह का मुकदमा विचाराधीन है और वे बीते साल के अक्टूबर से जेल में बंद है। यह आंदोलन इतना उग्र हो गया कि भीड़ मेहसाणा, सूरत और राजकोट में हिंसा पर उतर आई। मेहसाणा में 2 सरकारी इमारतों में आग लगा दी,सार्वजनिक परिवहन की बसें व पुलिस के वाहन आग के हवाले कर दिए। नतीजतन मेहसाणा के साथ-साथ सूरत और राजकोट में धारा-144 लगानी पड़ी। मोबाइल, इंटरनेट और सोशल वेबसाइटों को बंद करना पड़ा। मेहसाणा में तो कफ्र्यू तक लगाना पड़ा। एक आंदोलनकारी आरक्षण की मांग को लेकर इतना भावूक हो उठा,कि उसने आत्महत्या कर ली। इन घटनाक्रमों को देखते हुए लगता है कि यह आंदोलन नेतृत्वविहीन तो है ही,उसकी बागडोर भी गैर जिम्मेदार लोगों के हाथ में है।

पटेल-पाटीदारों का यह जेल भरो आंदोलन सीधे-सीधे हरियाणा में जाटों को दिए आरक्षण से प्रेरित लगता है। इस समुदाय ने आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में जिस तरह के तेवर दिखाए और राज्य की सरजमीं को आग के हवाले किया,उससे विवष होकर जाट समुदाय को आरक्षण देने के लिए आनन-फानन में विधेयक पारित कर दिया गया। इसी की परिणति गुजरात में देखने को मिली है। यहां के पटेलों ने एहसास कर लिया कि दबाव डालकर सरकार को घुटनों के बल झुकाया जा सकता है। चाहे फिर आरक्षण की मांग संविधान सम्मत हो अथवा न हो। पूरा देश जानता है कि हरियाणा में जाट जितने षक्तिशाली हैं,उतने ही गुजरात में पटेल ताकतवर,समृद्ध और प्रभावशाली हैं। ये दोनों ही समुदाय अपने-अपने राज्यों में न केवल संख्याबल की दृष्टि से,बल्कि सामाजिक,षैक्षिक,आर्थिक और मजबूत राजनैतिक हैसियत भी रखते हैं। लिहाजा आरक्षण के संवैधानिक मानकों को खारिज करते हुए जब हरियाणा की भाजपा सरकार दबंग जाति को पिछड़ा मानकर जाटों को आरक्षण दे सकती है तो यही तौर-तरीके गुजरात की भाजपा सरकार क्यों नहीं अपना सकती ? हकीकत तो यह है कि जाटों की मांग पूरी करके गुजरात में पटेल,राजस्थान के गुर्जर और आंघ्र प्रदेश के कापू समुदाय के लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। यह अलग बात है कि हरियाणा में पारित विधेयक उच्च और सर्वोच्च न्यायालय की कसौटी पर कितना खरा उतरता है ?

गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने संविधान और सर्वोच्च न्यायलय के फैसलों का हवाला देते हुए पटेलों को किसी भी प्रकार का आरक्षण देने की मांग पहले ही ठुकरा दी थी। बावजूद आरक्षण को लेकर हार्दिक पटेल का हठ,छीनने की अलोकतांत्रिक हद तक जा पहुंचा था। इसी के परिणामस्वरूप उन पर राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। आर्थिक रूप से सक्षम व दबंग जातीय समूहों में आरक्षण की बढ़ती महत्वकांक्षा अब आरक्षण की राजनीति को महज पारंपरिक ढर्रे पर ले जाने का काम कर रही है। गोया,नैतिक रूप से एक समय आरक्षण का विरोध करने वाली,समाज में प्रतिश्ठित व संपन्न जातियां भी एक-एक करके आरक्षण के पक्ष में आती दिखाई दे रही हैं। जाट जाति को जब राजस्थान और उत्तरप्रदेश में पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल कर लिया गया था,तब उसका अनुसरण 2008 में गुर्जरों ने राजस्थान में किया था। तब वसुंधरा सरकार ने हिंसक हो उठे आंदोलन को शांत करने की दृष्टि से पिछड़ा वर्ग के कोटे में गुर्जरों को 5 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण देने का प्रावधान किया था। किंतु आरक्षण का यह लाभ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की निर्धारित की गई सीमा से अधिक था, इसलिए इस फैसले पर अमल नहीं हो सका था। बावजूद पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले वोट की राजनीति के चलते,जाटों की आरक्षण संबंधी मांग को लेकर अधिसूचना जारी कर दी थी। लेकिन अदालत ने इस अधिसूचना को खारिज करते हुए साफ कर दिया था कि ‘जाटों को आरक्षण की जरूरत नहीं है। क्योंकि किसी भी जाति समूह को पिछड़ा वर्ग का दर्जा देने में सामाजिक पिछड़ेपन की अहम् भूमिका होती है। इस संबंध में केवल जाति को अधार नहीं बनाया जा सकता है।‘ कमोबेश यही स्थिति पटेल जाति की है।

आरक्षण के कमोबेश ऐसे ही संकट से महाराष्ट्र सरकार दो चार हो रही है। यहां की सत्ताच्युत हुई कांग्रेस और राकांपा गठबंधन सरकार ने विधानसभा चुनाव के ऐन पहले वोट-बटोरने की दृष्टि से मराठों को 16 फीसदी और मुसलमानों को 5 फीसदी आरक्षण दिया था। इसे तत्काल प्रभाव से शिक्षा के साथ सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में भी लागू कर दिया गया। इस प्रावधान के लागू होते ही महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 52 प्रतिशत से बढ़कर 73 फीसदी हो गई थी। यह व्यवस्था भी संविधान के उस बुनियादी सिद्धांत के विरूद्ध थी,जिसके अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। यह सही है कि आरक्षण की व्यवस्था एक समय हमारी सामाजिक जरूरत थी,लेकिन हमें इस परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा कि आरक्षण बैसाखी है,पैर नहीं। याद रहे यदि विकलांगता ठीक होने लगती है तो चिकित्सक बैसाखी का उपयोग बंद करने की सलाह देते हैं और बैसाखी का उपयोगकर्ता भी यही चाहता है। किंतु राजनैतिक महत्वाकांक्षा है कि आरक्षण की बैसाखी से मुक्ति नहीं चाहती ?

वैसे भी आरक्षण की लक्ष्मण रेखा का जो संवैधानिक स्वरूप है,उसमें आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से ऊपर नहीं ले जाया सकता। बावजूद यदि किसी समुदाय को आरक्षण मिल भी जाता है तो यह वंचितों और जरूरतमंदों की हकमारी होती है। आरक्षण के दायरे में नई जातियों को शामिल करने की भी सीमाएं सुनिश्चित हैं। कई संवैधानिक अड़चनें हैं। किस जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाए,किसे अनुसूचित जाति में और किसे अनुसूचित जनजाति में,संविधान में इसकी परिभाषित कसौटियां हैं। इन कसौटियों पर किसी जाति विशेष की जब आर्थिक व सामाजिक रूप से दरिद्रता पेष आती है,तब कहीं उस जाति के लिए आरक्षण की खिड़की खुलने की संभावना बनती है।

आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है। नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर पैदा करने की बजाय,हमारे नेता नई जातियां व उप-जातियां खोज कर उन्हें आरक्षण के लिए उकसाने का काम कर रहे हैं। यही वजह थी कि मायावती ने तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों तक को आरक्षण देने का शगूफा छोड़ दिया था। आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय अच्छा है,सत्तारूढ़ दल रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाशने की शुरूआत करें,तो शायद बेरोजगारी दूर करने के कारगर परिणाम निकलें ? इस नजरिए से तत्काल नौकरी पेशाओं की उम्र घटाई जाए,सेवानिवृतों के सेवा विस्तार और प्रतिनियुक्तियों पर प्रतिबंध लगे ? वैसे भी सरकारी दफ्तरों में कंप्युटर व इंटरनेट तकनीक का प्रयोग जरूरी हो जाने से ज्यादातर उम्रदराज कर्मचारी अपनी योग्यता व कार्यक्षमता खो बैठे हैं।

साथ ही यह प्रावधान सख्ती से लागू करने की जरूरत है,कि जिस किसी भी व्यक्ति को एक मर्तबा आरक्षण का लाभ मिल चुका है,उसकी संतान को इस सुविधा से वंचित किया जाए ? क्योंकि एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाने के बाद,जब परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुका होता है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती मंजूर करनी चाहिए। जिससे उसी की जाति के अन्य युवाओं को आरक्षण का लाभ मिल सके। इससे नागरिक समाज में सामाजिक समरसता का निर्माण होगा,नतीजतन आर्थिक बद्हाली के चलते जो शिक्षित बेरोजगार कुंठित हो रहे हैं,वे कुंठा मुक्त होंगे। जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न तो जातीय चक्र टूटने वाला है और न ही किसी एक जातीय समुदाय का समग्र उत्थान होने वाला है। बल्कि इससे जातीय कुच्रक और मजबूत ही होगा। इस परिप्रेक्ष्य में हरियाणा सरकार की ओर से नियुक्त प्रकाष सिंह जांच समिति की ताजा रिपोर्ट दहला देने वाली है। रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा में जाट आंदोलन के दौरान जातिवादी उन्माद इतने चरम पर था कि हर जिले में औसतन 60-70 जाट पुलिसकर्मी ड्यूटी छोड़ आंदोलनकारियों के पक्ष में आ खड़े हुए थे। तोड़-फोड़ और अगजनी में भी वे शामिल हुए थे। जातीयता का यह उभार राष्ट्रीयता को आहत करने वाला है। दरअसल आरक्षण को सामाजिक असमानता खत्म करने का अस्त्र बनाने की जरूरत थी,लेकेन हमने इसे भ्रामक प्रगति का साध्य मान लिया है। नौकरी पाने के वही साधन सर्वग्राही व सर्वमंगलकारी होंगे,जो खुली प्रतियोगिता के भागीदार बनेंगे। अन्यथा आरक्षण के कोटे में आरक्षण को थोपने के उपाय तो जातिगत प्रतिद्वंद्विता को ही बढ़ाने का काम करेंगे।

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