सीबीआई : साख पर सवाल ?

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प्रमोद भार्गव

दिल्ली सरकार के प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार के कार्यालय एवं घर समेत 14 ठिकानों पर ताबड़तोड़ छापों के बाद एक बार फिर देश की सबसे बड़ी अनुसंधान संस्था ‘केंद्रीय जांच ब्यूरो‘ नेताओं के निशाने पर है। किसी आला षख्सियत पर छापामार कार्रवाही के समय,हमेशा ऐसा होता है,भले ही सीबीआई हो,प्रवर्तन निदेशालय हो या फिर अन्य कोई अन्य सरकारी जांच एजेंसी सत्यता सामने आने से पहले ही सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों को मोहरा बनाने के आरोप लगाने का सिलसिला तेज हो जाता है। सीबीआई बनाम गरीब की जोरू का हर कोई चीरहरण करने लग जाता है। वाकई यदि राजनेता,राजनीतिकों पर नाजायज दबाव के लिए सीबीआई का इस्तेमाल करते हैं तो फिर इन प्रभावशाली संस्थाओं की निष्पक्षता,निर्लिप्ता और प्रतिष्ठा  बहाली के कानूनी उपाय क्यों नहीं होते ? जबकि देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष समेत जितने भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल हैं,आम आदमी पार्टी को छोड़,सभी केंद्रीय सत्ता में भागीदार रह चुके हैं। विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी सीबीआई की अधिकतम स्वायत्तता की बात करती थी,लेकिन अब खामोश है। स्वाभाविक है,ऐसी चुप्पियां सीबीआई से खिलवाड़ का संदेह पैदा करती हैं।

भ्रष्टाचार की लड़ाई के प्रमुख योद्धा माने जाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रमुख सचिव राजेंद्र कुमार पर सीबीआई ने छापेमारी की तो केजरीवाल बौखला गए। इसे उन्होंने बदले की भावना से की गई कार्रवाही निरूपित किया। उन्हें सीबीआई से यह अपेक्षा थी कि यदि उनके दफ्तर के किसी आधिकारी के यहां छापा डालना था तो उन्हें पूर्व सूचित करने की जरूरत थी। जबकि यही केजरीवाल जब सीबीआई की स्वायत्तता की मांग को लेकर आंदोलनरत थे,तब राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के खिलाफ भी किसी भी प्रकार की अनुमति के विरूद्ध थे। इस नाते भ्रष्टाचार के आरोप में की गई कार्रवाही पर केजरीवाल को स्वागत करने की जरूरत थी। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय सीबीआई की ताकत में विस्तार पहले ही कर चुकी है। संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के नौकरशाहों के मामलों में जांच शुरू करने से पहले सीबीआई को केंद्र या राज्य सरकारों से इजाजत लेने की अब जरूरत नहीं है। अदालत ने इस ऐतिहासिक फैसले में महज इतना किया था कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम की धारा-6 ए को असंवैधानिक करार देकर रदद् कर दिया था। इसी कानून के तहत ‘केंद्रीय अन्वेशण ब्यूरो‘ का गठन हुआ  है। अदालत ने यह फैसला 17 साल पहले सुब्राण्यम स्वामी द्वारा दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुनाया था।

इस मामले में केजरीवाल को धीरज रखने की इसलिए भी जरूरत थी,क्योंकि राजेंद्र कुमार पर जो कार्रवाही की गई है,वह 2007 से 2014 के बीच दिल्ली सरकार के ठेके एक खास कंपनी को देना है। राजेंद्र के साथ ही दिनेश गुप्ता,एके दुग्गल,जीके नंदा,आरएस कौशिक और एस कुमार के ठिकानों पर भी छापे डाले गए हैं। सह आरोपी नंदा के घर से तो 10 लाख रुपए नगद भी बरामद हुए हैं। ये सभी ठेके बिजली और संचार सुविधाओं से संबंधित हैं। नेता,अधिकारी और ठेकेदार के गठजोड़ ने सबसे ज्यादा गड़बड़ियां इन्हीं दो क्षेत्रों में की हैं। दिल्ली की तात्कालीन मुख्यमंत्री शिला दीक्षित तक भी जांच की यह आंच पहुंच सकती है। हालांकि इस छापे की पृष्ठभूमि में केजरीवाल ने केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता वाले दिल्ली जिला क्रिकेट संघ से जोड़कर और पेचीदा बना दिया है। इस संघ में 400 करोड़ घोटाले की जांच चल रही है। केजरीवाल का आरोप है कि सीबीआई इस  जांच से जुड़ी फाइल भी अपने साथ ले गई।

सीबीआई की साख पर सवाल पहली बार नहीं उठे हैं,यह सिलसिला निरंतर जारी है। शीर्ष अदालत ने नबंवर 2014 में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच कर रहे सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा को संदेह के चलते सेवानिवृत्ति के महज 12 दिन पहले हटा दिया था। सीबीआई प्रमुख को इस तरह से हटाना देश में पहली घटना थी। इससे सिन्हा की किरकिरी तो निजी स्तर पर हुई,लेकिन विश्वसनीयता शीर्ष जांच संस्था की भंग हुई। सिन्हा के कार्यकाल में सीबीआई की सबसे ज्यादा फजीहत हुई है। कोयला व 2जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच में गड़बड़ियों की आशंकाओं व तात्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह के प्रति उदारता के चलते सीबीआई को अदालत ने मालिक की भाषा बोलने वाले पिंजरे का ‘तोता‘ और केंद्र सरकार की ‘कठपुतली‘ जैसे लाचार तमगों से नवाजा था। संदेह के ऐसे ही आचरण के चलते नौवें दशक में पटना उच्च न्यायालय ने बहुचर्चित चारा घोटाले की जांच से रंजित सिन्हा को बाहर का रास्ता दिखा दिया था। दरअसल उन पर चारा घोटाले के प्रमुख आरोपी और बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव को बचाने के आरोप लगे थे। इस आरोप की पुष्टि का आधार सिन्हा की पत्नी रीना सिन्हा की गलत ढंग से की गई नियुक्ति को बनाया गया था। तब बिहार की मुख्यमंत्री रावड़ी देवी थीं। उन्होंने कायदे-कानून ताक पर रखकर रीना को सरकारी विद्यालय की प्राचार्य बना दिया था।

सीबीआई के पूर्व निदेशक उमाशंकर मिश्रा ने भी बयान दिया था कि 2003 से 2005 के बीच जब वे सीबीआई के प्रमुख थे,तब उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से जुड़े ताज काॅरिडोर मामले की वे जांच कर रहे थे। इस बाबत मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति की जांच चल रही थी। जांच में पाया था कि उनके माता-पिता के बैंक खातों में इतनी अधिक रकम जमा है,जिनके वैध स्रोत बताना मुश्किल है। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकारों ने अपने हितों के लिए सीबीआई का दुरूपयोग किया। 2003 से 2005 के बीच ये दोनों ही प्रधानमंत्री थे। फिलहाल मायावती से एनआरएचएम घोटाले के बाबत भी सीबीआई पूछताछ कर सकती है। इसी तरह मुलायम सिंह यादव भी आय से अधिक संपत्ति के मामले में भी अदालत ने इन शकांओं की पुष्टि की थी कि सीबीआई राजनीतिक दबाव में काम करती है। डीएमके नेता स्टालिन के घर ठीक उस वक्त छापा पड़ा था,जब उसे संप्रग गठबंधन से अलग हुए महज दो दिन हुए थे। इसी तरह हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के घर ठीक उस वक्त छापा डाला गया,जब उनकी बेटी मीनाक्षी की शादी का समारोह चल रहा था। ये ऐसे इशारे हैं,जो सीबीआई की कार्रवाही को कठघरे में खड़ा करते हैं।

सीबीआई को कठघरे में खड़ा करने का एक और बहुचर्चित मामला अमित शाह की कथित रूप से सोहराबुद्धीन शेख और तुलसीराम प्रजापति फर्जी मुठभेड़ में मार गिरने की संलिप्पता से भी है। हालांकि दिसंबर 2014 में शाह को मुंबई की सीबीआई विशेष अदालत ने दोष मुक्त कर दिया है। लेकिन सीबीआई पर अदालत ने फैसले में जो टिप्पणी की है,वह सीबीआई की संदिग्धता प्रगट करने वाली है। न्यायाधीष एमबी गोसावी ने वेबाकी से कहा है ‘मेरी राय है कि सीबीआई ने जांच के बाद जो निश्कर्श निकाला है,वह स्वीकार योग्य नहीं है। क्योंकि जब संपूर्णता से समूचे दस्तावेजों का परीक्षण किया गया तो पाया कि अमित शाह के विरूद्ध तो कोई मामला ही नहीं बनता है। उन्हें सीबीआई ने राजनीतिक कारणों में फंसाया है।‘ यही नहीं जज ने आगे और तल्ख टिप्पणी की, ‘सीबीआई अपने राजनीतिक आकाओं की मर्जी के मुताबिक काम करती है। इस सिलसिले में वह जरूरत पड़ने पर साक्ष्य गढ़ती भी है और साक्ष्यों में हेराफेरी भी करती है।‘ इन टिप्पणीयों से साफ होता है कि सीबीआई राजनीतिक दबाव का अचूक औजार है।

इसी तर्ज पर प्रवर्तन निदेशालय को लेकर भी संदेह के सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। नेशनल हेराल्ड मामले में कहा जा रहा है कि ईडी का इस्तेमाल मोदी सरकार राजनीतिक बदले की भावना से कर रही है। दरअसल हेराल्ड मामले में ईडी की जिस टीम ने जांच की थी,उसने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया था कि कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है। तब केंद्र में संप्रग सरकार थी। किंतु केंद्र में राजग सरकार के काबिज होने के बाद नई टीम का गठन करके हेराल्ड मामले को फिर से उठाया गया। तय है,ऐसे मामले शंकाएं पैदा करते हैं।

लेकिन इस सब के बावजूद यही वह सीबीआई है,जिसने जयललिता,लालूप्रसाद यादव और ओमप्रकाश चौटाला जैसे राजनीतिक दिग्गजों के घोटालों को अंजाम तक पहुंचाया। नतीजतन इन्हें जेल की भी हवा खानी पड़ी है। सीबीआई को कितना भी कठघरे में खड़ा क्यों न किया जाता रहा हो,मामला चाहे राजनीतिक भ्रष्टाचार का हो अथवा हाई-प्रोफाइल हत्या से जुड़ा हो,निष्पक्ष जांच के संदर्भ में मांग सीबीआई जांच की ही की जाती है ? क्योंकि अभी भी सीबीआई की प्रतिष्ठता है। सीबीआई की यह निष्पक्षता,निर्ववाद रहे,इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सशक्त लोकपाल वजूद में लाए और सीबीआई को उसके मातहत करे। तभी केंद्र सरकार इसके राजनीतिक दुरूपयोग से अलग हो पाएगी।

 

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  1. पहले तो मैं आपको इस आलेख के लिए मुबारकबाद देता हूँ.बहुत विस्तार से आपने सबकुछ कहने का प्रयत्न किया है,पर क्या आपकों ऐसा नहीं लगता किआज भी सी.बी.आई की स्थिति वही है या सच पूछिए तो उससे ज्यादा खराब हो गयी है,जैसा कांग्रेस के जमाने में था,केवल रोल बदल गए हैं.जो पहले कांग्रेस करती थी,वही आज नमो की सरकार कर रही है. चाहिए तो यह था कि भाजपा और खास कर नमो सी.बी.आई. की उन सब कमियों को दूर करते,जिनकी वे लोग शिकायत किया करते थे और जनता को भी उनसे यही उम्मीद थी,पर हाथ में शासन आते ही इन लोगों ने ऐसा गिरगिट की तरह रंग बदला कि जनता भी हैरान रह गयी.जनता को धोखा हो चूका है और अब वह समझ रही है,साथ साथ समझा भी रही,पर पांच साल के लिए तो सब फंस ही गए.कांग्रेस भी पीछे नहीं है.वह भी विपक्ष में रह कर वही कर रही जो विपक्षी दल के रूप में भाजपा कर रही थी.राष्ट्र भक्ति की बात तो बहुत होती है,पर इस तरह के व्यवहार क्या राष्ट्र भक्तिके अंदर आते हैं? आपने अपने आलेख के अंत में लिखा है”,सीबीआई को कितना भी कठघरे में खड़ा क्यों न किया जाता रहा हो,मामला चाहे राजनीतिक भ्रष्टाचार का हो अथवा हाई-प्रोफाइल हत्या से जुड़ा हो,निष्पक्ष जांच के संदर्भ में मांग सीबीआई जांच की ही की जाती है ? क्योंकि अभी भी सीबीआई की प्रतिष्ठता है। सीबीआई की यह निष्पक्षता,निर्ववाद रहे,इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सशक्त लोकपाल वजूद में लाए और सीबीआई को उसके मातहत करे। तभी केंद्र सरकार इसके राजनीतिक दुरूपयोग से अलग हो पाएगी।”
    इसके पहले भाग में तो आपका कहना ठीक ही है,पर क्या आपको नहीं लगता कि यह अंधों के बीच काना वाली स्थिति है?रह गयी बात सी.बी.आई को स्वंत्र करने की,तो आप लोग यह दिवा स्वप्न देखना छोड़ दीजिये.आपलोग शायद भूल गए होंगे कि वर्तमान लोकपाल बिल को अन्ना ने जोकपाल कहा था और वी.के.सिंह ने कहा था कि पूरा पोशाक,न सही एक चड्डी तो मिला.दोनों को मिला कर मैंने इसे चड्डी जोकपाल कहा था.पता नहीं बाद में अन्ना जी भी क्यों इससे सहमत हो गए?
    पर आज उस लच्चर लोकपाल की भी क्या स्थिति है?नमो को शासन संभाले अठारह महीनो से ज्यादा हो चुके हैं.क्या आप में से कोई बता सकता है कि केंद्र में अभी तक लोकपाल क्यों नहीं बहाल हुआ?अंत में एक प्रश्न,क्या अब भी आपको लगता है कि अरविन्द केजरीवाल की बौखलाहट गलत थी? एक पुराने केस के सन्दर्भ में मुख्य मंत्री के कार्यालय पर धावा बोलने का क्या औचित्य था?क्या अब भी आपलोगों को शक है कि सी बी आई देल्ही डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन की फ़ाइल ढूढने वहां नहीं गयी थी?अगर यह बहाना भी सही मान लिया जाये कि सी.बी.आई. राजेन्द्र कुमार के दफ्तर में गयी थी,तो भी यह पूछा जा सकता है कि सी.बी.आई. को राजेन्द्र कुमार के इस नए ऑफिस में क्या मिलता?इससे अच्छा कदम तो यह होता कि सी.बी आई.पूर्ण प्रमाण के साथ अरविन्द केजरीवाल के पहुँचती. जबउन्हें एक मंत्री को रास्ता दिखाने में देर नहीं लगी,तो क्या राजेन्द्र कुमार को बाहर का रास्ता दिखाने में देर करते?मंत्री तो केवल छः लाख रूपये लेते हुए पकड़ा गया था.यहाँ तो सी.बी.आई. बीस पच्चीस लाख की बात कर रही है.

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