स्टिंग की सनसनी में सीबीआई की भूमिका

अवधेश कुमार

शीर्ष स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के चलते इस समय नेताओं के प्रति आम वितृष्णा के माहौल में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण को सजा के फैसले से आम लोगों में यह संदेश गया है कि कम से कम एक शीर्ष नेता को तो सजा मिली। न्यायालय के सामने जांच एजेंसी ने जो तथ्य पेश किए, उसी आधार पर अदालत ने फैसला सुनाया। लेकिन जो लोग जानते हैं कि भाजपा अध्यक्ष के रूप में भी बंगारु लक्ष्मण की नीति-निर्माण में कितनी भूमिका थी और आज उनकी राजनीतिक हैसियत क्या है, वे इस मामले को दूसरे नजरिये से भी देखेंगे। इस मामले में पत्रकारीय अभियान और जांच एजेंसी सीबीआई की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठते हैं।

बोफोर्स, जर्मन पनडुब्बी आदि कई ऐसे रक्षा से जुड़े घोटाले हमारे सामने हैं, जिनमें किसी को कोई सजा नहीं मिली। अभी रक्षा खरीद में टाट्रा ट्रक मामले की जांच चल रही है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि अब शीर्ष स्तर पर फैले भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की खैर नहीं और उन्हें भी सजा हो सकती है। दरअसल सब कुछ प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई की कार्य प्रणाली पर निर्भर है, जिसके दुरुपयोग की बातें पहले भी होती रही हैं। अकसर विभिन्न केंद्र सरकारों के इशारे पर सीबीआई के काम करने को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

बोफोर्स मामले को लीजिए, सीबीआई बोफोर्स पर कांग्रेस या उसकी समर्थित सरकार के रहते तो फाइल बंद किए रही और जब विश्वनाथ प्रताप सिंह या राजग सरकार में जांच शुरू हुई, तो उसमें हुई प्रगति को कांग्रेस की सरकार में मटियामेट कर न्यायालय में इस तरह प्रस्तुत किया गया कि मामला बंद करने का आदेश मिल गया। संसद में नोटों की गड्डियां लहराने का दृश्य हम सबने देखा, लेकिन हमारी जांच एजेंसी ने उन्हीं लोगों को जेल में बंद किया, जो इसकी स्टिंग करवा रहे थे। वही सीबीआई तहलका स्टिंग मामले में एक काल्पनिक रक्षा सौदे के मामले को इस तरह लड़ती है, जिसमें बंगारु लक्ष्मण दोषी साबित होते हैं और उन्हें सजा मिलती है। आखिर इसे आप क्या कहेंगे?

अब जरा इस मामले को पत्रकारिता की नजर से देखिए। पत्रकारिता ने यहां किसी रक्षा सौदे में हो रही दलाली पर यदि स्टिंग किया होता, तो उसे सही ठहराया जा सकता था। तहलका स्टिंग ऑपरेशन वास्तविक भ्रष्टाचार को सामने लाने के बजाय कुछ लोगों को स्टिंग द्वारा फंसाने का मामला था, जिससे यही साबित हुआ कि कोई चाहे तो घूस देकर कुछ अधिकारियों और राजनेताओं को अपने पक्ष में कर सकता है। कल्पनाओं से सनसनी पैदा करने के लिए स्टिंग की मान्यता दुनिया के किसी देश में नहीं दी जा सकती।

पत्रकारिता का अर्थ घटित होते को सामने लाना है, न कि काल्पनिक सनसनी पैदा करके किसी का शिकार करना। ऐसा स्टिंग तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध सच्ची लड़ाई में बाधा ही है, क्योंकि इसमें मौका मिलने पर भ्रष्ट हो सकने वाले लोगों को आप सामने लाते है, न कि उन लोगों को जो वास्तव में भ्रष्ट हैं। तहलका ने इस स्टिंग के लिए रक्षा विभाग के अधिकारियों को कॉलगर्ल एवं शराब के साथ उनकी मांग पर कमरे तक कंडोम भी पहुंचाया, जिसकी सूचना पुलिस तक को नहीं दी गई। यह कौन-सी सदाचारी पत्रकारिता हुई? स्टिंग पत्रकारिका को भी पारदर्शी, ईमानदार और वैधानिक तो होना ही चाहिए।

तहलका डॉट कॉम में पूरा पैसा शंकर शर्मा जैसे शेयर दलाल का लगा है। शेयर बाजार का कोई भी खिलाड़ी अपनी पूंजी को यों ही किसी कंपनी में नहीं लगाता। नहीं भूलना चाहिए कि तहलका विस्फोट के साथ ही जिस प्रकार शेयर बाजार औंधे मुंह गिरा, उससे शर्मा जैसे लोगों की ओर शक की सूई स्वाभाविक ही मुड़ती है। खैर, शेयर में रीगिंग की जांच चल रही है एवं शर्मा की इसमें संलिप्तता अगर प्रमाणित हो गई, तो फिर तहलका के लोगों के लिए अपना पक्ष रख पाना कठिन होगा।

सही है कि खोजी पत्रकारिता में सच को सामने लाने के लिए कई बार छद्म वेश धारण करने या झूठ बोलने की आवश्यकता पड़ती है, किंतु उसकी अपनी सीमाएं हैं। पत्रकारिता की आचार संहिता ही नहीं, कानून भी गैरकानूनी हरकतों की इजाजत नहीं देता।(अमर उजाला से साभार)

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