सत्ता केन्द्रित राजनीति और राष्ट्र हित

सुरेश हिंदुस्थानी
वर्तमान में देश में विधानसभा सीटों के हिसाब से सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रहीं हैं। इसमें चार प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस चुनाव मैदान में दम दिखाने के लिए उतावली दिखाई दे रहे हैं। सभी राजनीतिक दल कमोवेश सत्ता केन्द्रित राजनीति पर ज्यादा ध्यान देते दिखाई दे रहे हैं। वास्तव में यह सत्ता केन्द्रित राजनीति देश का भला कर पाएगी, इसमें कई प्रकार के संदेह जन्मित होते रहे हैं और वर्तमान में भी हो रहे हैं। हमारे देश में जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, उसमें हमेशा अवसरवादिता का ही बोलबाला रहा है। कहीं बेमेल गठबंधन तो कहीं सिद्धांतों से समझौता राजनीति का नियति बन गई है। राजनीति में इस प्रकार का सत्ता केन्द्रित स्वार्थी रवैया निश्चित रुप से देश के लिए घातक कदम माना जा सकता है।
उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियां करते समय कांग्रेस ने 27 साल उत्तरप्रदेश बेहाल का नारा दिया था। इस नारे के पीछे कांग्रेस यही कहना चाहती थी कि उत्तरप्रदेश में जब से सपा और बसपा का शासन रहा, तब से प्रदेश बेहाली के मार्ग पर कदम बढ़ा चुका है। प्रदेश की बदहाली के लिए समाजवादी पार्टी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराने वाली कांग्रेस पार्टी आज उन्हीं के साथ स्वर मिलाती दिख रही है। कांग्रेस का यह गठबंधन अवसरवादिता का सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है। जो दल कांग्रेस की निगाह में उत्तरप्रदेश की बदहाली के लिए सबसे बड़ा दोषी था, आज वही दल कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा बन गया है। इस प्रकार की राजनीति करना कांग्रेस की पुरानी आदत है। समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने के बाद कांग्रेस की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार होता नजर नहीं आता। क्योंकि लोकतंत्र में ज्यादा सीट जीतने वाले राजनीतिक दल को ही प्रमुखता दी जाती है। और कांग्रेस लगभग एक चौथाई विधानसभा चुनाव में उतरने के लिए राजी हो गई। यह वास्तव में कांग्रेस की बहुत बड़ी हार है। इससे एक बात तो साफ है कि कांग्रेस प्रदेश में सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही, बल्कि वह बेहाली के लिए जिम्मेदार समाजवादी पार्टी को सत्ता दिलाने की ही राजनीति कर रही है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो प्रदेश को फिर से बदहाली के रास्ते पर ले जाने का ही उपक्रम करते हुए दिखाई दे रही है। अब सवाल यह आता है कि क्या कांग्रेस का यह कदम राष्ट्रीय हितों की अनदेखी नहीं है ? अगर है तो कांग्रेस को ऐसी राजनीति से दूर हो जाना चाहिए। नहीं तो लोकसभा की तरह विधानसभा में भी कांग्रेस अपना जनाधार समाप्त करने की ओर ही जाते हुए दिखाई देगी।
उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में घोषित तौर पर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर दो ही प्रमुख राजनीतिक दल चुनाव में भाग ले रहे हैं। उसमें से एक भाजपा है तो दूसरी कांग्रेस है। वर्तमान में भाजपा राष्ट्रीय तौर पर प्रभावी भूमिका में है। दूसरी ओर कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ते हुए दिखाई दे रही है। सिमटती जा रही कांग्रेस को आज क्षेत्रीय दलों का मोहताज बनना पड़ रहा है।
पूरे देश की राजनीतिक शक्ति का अध्ययन किया जाए तो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी ही सबसे बड़ा दल है। चाहे वह लोकसभा में सीटों की संख्या का सवाल हो या फिर विधानसभाओं में। वर्तमान में देश में भाजपा की सरकार सबसे ज्यादा राज्यों में है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को ज्यादा उपलब्धि हासिल नहीं हो सकी। इसलिए कांग्रेस के बारे में आज यह सबसे सटीक बात है कि वह डूबता हुआ जहाज है। समाजवादी पार्टी ने डूबते हुए जहाज की सवारी करने का जो निर्णय लिया है, वह कहीं सपा को भी न ले डूबे। वैसे सपा ने डूबते हुए जहाज की सवारी करके यह भी दर्शाया है कि वह प्रदेश में कमजोर हो चुकी है। उसे सहारे की तलाश थी, कांग्रेस उसके लिए सहारा बनकर आई है। सवाल यह आता है कि जो दल स्वयं के लिए सहारा तलाश रहा हो, वह समाजवादी पार्टी को कितना सहारा दे पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेड के साथ समाजवादी पार्टी भी डूब जाए।
उत्तरप्रदेश में पिछले कुछ समय की राजनीति का अध्ययन किया जाए तो लम्बे समय से सपा, बसपा और फिर सपा, बसपा का ही शासन रहा है। इसमें यह बात भी सही है कि बसपा की मायावती को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाने में सहयोग दिया। जहां तक बहुजन समाज पार्टी की बात है तो लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। इस भयानक संत्राश को झेलकर बसपा ने सबक लिया है, और विधानसभा चुनाव में एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति अपनाई है। इसी कारण उन्होंने इस बार मुस्लिम और ब्राह्मण प्रत्याशियों को ज्यादा महत्व दिया है। बहुजन समाज पार्टी की यह रणनीति कहीं न कहीं सत्ता केन्द्रित राजनीति का ही संकेत देती हुई दिखाई देती है। सत्ता प्राप्ति की राजनीति के चलते बसपा आज दलित उत्थान के मार्ग से भटक के केवल मुस्लिम और ब्राम्हण के उत्थान की राह पर चलने लगी है। दलित उत्थान बसपा की राजनीति से बहुत दूर होता जा रहा है। मायावती केवल अपने स्वयं के उत्थान की राजनीति करती दिखाई दे रहीं हैं। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी ने आज ऐसे समाज के व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाया है जो कभी भी ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। ऐसे में दबे कुचले समाज का भाजपा की तरफ झुकाव भी होने लगा है। बसपा आज ब्राम्हण समाज को सत्ता देने की कवायद कर रही है।

आज की सत्ता केंद्रित राजनीति देश के भविष्य की राह में बहुत बड़ा अवरोधक बन रही है, लेकिन देश की वास्तविक सरकार यानी जनता को आज यह बात तय करनी होगी कि देश के उत्थान के लिए कैसी राजनीति की जानी चाहिए। जब हम देश के बारे में अच्छा सोचेंगे तो देश भी प्रगति के मार्ग पर कदम बढ़ाएगा।
सुरेश हिंदुस्थानी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here