“सड़ता हुआ अनाज और सुप्त-सुशासन”

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– आलोक कुमार-   food-grains

बिहार एक तरफ़ तो कुपोषण से ग्रस्त है, सूबे की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अनाज के लिए लालायित है। इस साल अकाल की मार भी झेली जनता ने, दूसरे राज्यों से अनाज मंगाया जा रहा है तो दूसरी तरफ प्रशासन के परिसर में ही अनाज की बर्बादी बदस्तूर जारी है। शायद सुशासनी-व्यवस्था में “अनाज” सड़ने के लिए ही है ! इससे दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है कि एक तरफ गरीबों के खाने के लिए अनाज नहीं है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सरकार की लापरवाही और भंडारण में हो रही बदइंतजामी की वजह से खराब हो रहे हैं। इतना अनाज बर्बाद हो रहा है जितना अगर गरीबों में बांट दिया जा, तो वो सालों खा सकते हैं। बिहार में अनाज भण्डारण का बुरा हाल है। बिहार में वर्तमान हालत यह है पिछले साल राज्य की चार एजेंसियों के माध्यम से खरीदा गया 83 हजार टन गेहूं 31 मार्च 2012 तक गोदामों में पहुंचा ही नहीं, न ही उसका कोई हिसाब-किताब है। बिहार सरकार अभी तक गुम हुए गेहूं की तलाश ही करवा रही है, सरकारी अफसर पड़ताल में लग हुए हैं, जबकि यह सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है।

बिहार के कई ब्लॉकों में गेहूं और चावल सालों से पड़े-पड़े सड़ चुके हैं। उन जगहों में अब बीमारियों का खतरा मंडराने लगा है। इतना ही नहीं इन सड़े हुए अनाज को न हटाने के कारण से गोदामों में भी भण्डारण की समस्या उत्पन्न हो गई है। भविष्य में आने वाले अनाजों के रखने के लिए जगह नहीं बची है। कुछ दिनों पहले ( 23.12.2013 को ) मैंने राजधानी पटना से सटे धनरुआ ब्लॉक में अनाज भंडारण का जायजा लिया और अपने कैमरे से चंद तस्वीरें भी लीं। इस सरकारी परिसर में गेंहू और चावल की बोरियों के कई-कई फीट ऊंचे ढेर जिस प्रकार से रखे गए हैं उन्हें देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान का ह्रदय पसीज जाएगा। ज्यादातर अनाज की बोरियां बिना खिड़की -दरवाजे वाली जगहों पर रखी हुई हैं, छतें चूती हैं। अधिकतर अनाज सड़ चूका है जो अब किसी काम में नहीं आ सकता। जानवर इन अनाज के ढेरों के बीच विचरण करते दिखे, ज्यादातर बोरियां फटी हुई थीं। बोरियों की कमी से भण्डारण खुले में भी किया गया दिखा।

एक जागरूक ग्रामीण ने साक्षात्कार के क्रम में बताया “भण्डारण प्रणाली की खामियों के बारे में जब भी अधिकारियों के समक्ष आपत्तियां दर्ज की जाती हैं तो वो गोदामों की कमी का रोना रोते हुए अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन इसके पीछे का सच यही है कि लूट का खेल जारी है, भ्रष्टाचार का आलम छाया हुआ है।” उन्होंने ने मुझ से ही सवाल कर डाला कि “क्या पारंपरिक तौर-तरीके से जिस तरह अनाजों का भण्डारण घर के भीतर ही किया जाता है क्या उस उपाय को यहां लागू नहीं किया जा सकता है ? अनाज को सड़ाने की जगह भूख मिटाने के लिए नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है ? ” ये सच है कि सरकार हर साल 12-13 रुपये प्रति किलो के भाव गेहूं ख़रीदती है जिसका भारी हिस्सा गोदामों पड़े-पड़े ख़राब हो जाता है। फिर उसे 5-6 रुपये या उससे भी कम पर शराब कारोबारियों को बेच दिया जाता है। मगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावज़ूद गोदामों में पड़ा अनाज भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार तैयार नहीं है।

ग्रामीणों ने ही आगे बताया “अपनी भंडारण-संरचनाओं को दुरुस्त करने की बजाए बिचैलियों के माध्यम से प्राइवेट गोदाम और वेयर-हाउस किराये पर लिए जा रहे हैं । जिसके लिए अफसरों को जबरजस्त कमीशन भी मिलता है। सड़ा हुआ अनाज कौड़ियों के मोल शराब उत्पादकों को बेच दिया जाता है, वहां से भी अच्छी आमदनी हो जाती है। गोदामों का दूसरे कामों में उपयोग और उचित प्रबंधन न होने से भी अनाज सड़ रहा है। इस बदरबांट में सत्ता के शीर्ष से लेकर स्थानीय अधिकारी, जनप्रतिनिधि एवं बिचौलियों की संलिप्तता है।” इस सिलसिले में बिहार के संदर्भ में केंद्रीय ऐजेंसियों ने कई बार चेताया था कि अनाज -भंडारण में लापरवाही बरती जा रही है लेकिन बिहार की सरकार सोई रही। यह कैसा प्रदेश है जो अपनी गरीब जनता के लिए भोजन का इंतजाम तो नहीं ही कर पा रहा है उल्टे अनाजों को भी सड़ने दे रहा है! इससे स्पष्ट होता है कि बिहार सरकार की दिलचस्पी केवल घोषणाओं में है। जनहित के अहम मुद्दों पर सरकार असंवेदनशील है। प्रदेश के वार्षिक बजट के बहुत छोटे से हिस्से से पूरे प्रदेश में अनाज के सुरक्षित भण्डारण का इन्तज़ाम किया जा सकता है। ‘ग्रामीण बुनियादी ढांचा विकास कोष’ के तहत गोदामों के निर्माण की योजनाओं का अगर ईमानदारी से क्रियान्वयन किया जाए तो हालत काफी हद तक सुधर सकती है।

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