सभ्य समाज के निर्माण की चुनौती- अरविंद जयतिलक

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औरत को भोग और वासना का उपनिवेश समझ रखे हैवानों की दरिंदगी और अघोरतम् कृत्यों से देश एक बार फिर शर्मसार हुआ है। घटना देष की राजधानी दिल्ली की है जहां चलती बस में ड्राइवर और उसके साथियों द्वारा एक छात्रा से गैंगरेप किया गया और फिर मारपीट कर सड़क पर फेंक दिया गया। दिल दहला देने वाली इस घटना से देश मर्माहत और आक्रोशित है। लोगबाग हैरान हैं कि जब देश की राजधानी दिल्ली में महिलाओं की आबरु सुरक्षित नहीं है तो बाकी हिस्सों का आलम क्या होगा। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा महिलाओं की सुरक्षा और उत्थान के लिए ढेर सारे कार्यक्रम और योजनाओं का ढोल पीटा जा रहा है लेकिन सच यही है कि देश में महिलाएं असुरक्षित होती जा रही हैं।

आंकड़े बताते हैं कि विगत पांच वर्षों के दौरान देश में बलात्कार के मामले में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है। हर एक घंटे में बलात्कार के 22 मुकदमें दर्ज हो रहे हैं। देश की अदालतों में तकरीबन 95000 से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज हैं। इनका निपटारा कब होगा और गुनागारों को सजा कब मिलेगी यह कहना कठिन है। संसद में माननीयों द्वारा बलात्कार की घटनाओं को लेकर छाती पीटा जा रहा है। कड़े कानून की मांग की जा रही है। यहां तक कि बलात्कारियों को फांसी पर झुलाने की भी चर्चा की जा रही है। लेकिन वे यह बताने को तैयार नहीं हैं कि आजादी के पैंसठ साल गुजर गए और उन्होंने अभी तक कानून क्यों नहीं बनाया? महिलाओं पर अत्याचार क्यों नहीं रुक रहा है? क्या वजह है कि बलात्कार के मामले के अधिकांश आरोपी बच जा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2006 में यौन उत्पीड़न के 9906 मामले दर्ज हुए लेकिन सजा की दर 51.8 फीसदी रही। इसी तरह 2007 में 10950, 2008 में 12214 और 2009 में 11009 मामले दर्ज हुए। जबकि सजा दर 49.9, 50.5 और 49.2 फीसदी रही। आंकडों पर गौर करे तो बलात्कार के अधिकतर मामले में अपराधी सजा से बच जा रहे हैं। आंकडे के मुताबिक महिलाओं पर होने वाले समग्र अत्याचारों में सजा केवल 30 फीसदी गुनाहगारों को ही मिल पाती है। बाकी तीन चौथाई बच जाते हैं। इसका कारण वे सबूतों को मिटाने में सफल रहते हैं या पैसे के बल पर पीडि़त पक्ष से समझौता कर अपनी जान बचा लेते हैं। ऐसे में अगर गुनाहगारों का हौसला बुलंद होता है या वे दूसरों के लिए जुल्म की नजीर बनते हैं तो अस्वाभाविक नहीं है।

दिल्ली की गैंगरेप की घटना केवल एक व्यक्ति या कुछ लोगों की घिनौनी कारस्तानी व नीचता की पराकाष्‍ठा नहीं है बल्कि यह हमारे समूचे सामाजिक तंत्र की विद्रूप सोच, असंवेदनषील आचरण और अस्थिर चरित्र की घटिया बानगी भी है। यह घटना इस बात की तस्दीक करती है कि हम सभ्य, और लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए भी अभी तक आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और लंपट चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। यह कम खौफनाक नहीं है कि जिस समाज में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का पाठ पढ़ाया जाता है वहां नरपिषाचों द्वारा महिलाओं की आबरु को लूटा जा रहा है। आज जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जहां दिल दहलाने वाली इस तरह की अघोरतम् घटनाएं देखने-सुनने को न मिल रही हो। समानता के दावे तथा सरकार के कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी अगर महिलाओं-बच्चियों पर होने वाले अत्याचारों में कमी नहीं आ रही है तो मतलब साफ है कि कानून का अनुपालन ठीक से नहीं हो रहा है। किंतु कानून को ही दोशी ठहराकर हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से बच नहीं सकते हैं। महिलाएं, बच्चियों की आबरु की रक्षा की जिम्मेदारी समाज की भी है। किंतु दर्भाग्य है कि सरकार और समाज दोनों अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन नहीं कर रहा है। समाज की सबसे छोटी ईकाई परिवार है। पर विडंबना देखिए कि महिलाओं और बच्चियों के साथ सर्वाधिक भेदभाव और अत्याचार की घटनाओं का सबसे बड़ा केंद्र परिवार ही बना हुआ है। 21 वीं सदी में वैज्ञानिक सोच का लबादा ओढ़ रखे पुरुषवादी समाज का यह दोगलापन ही कहा जाएगा कि वह एक ओर जहां लिंगभेद के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करता है वहीं परिवार में लड़कियों की तुलना में लड़कों को तवज्जो देने का मोह नहीं छोड़ पाता है। पिछले दिनों आयी मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जन्म लेने से पहले ही देष भर में हर साल सात लाख से अधिक बच्चियों की हत्या कर दी जाती है। पुरुष समाज की यह अघोरतम प्रवृति और मानसिक क्रुरता कहीं से रेखांकित नहीं करती है कि वह सभ्य, लोकतांत्रिक, लिंगभेद विरोधी और स्त्री समानता का पक्षधर है। सच तो यह है कि गैंगरेप की घटना दिल्ली की हो या हरियाणा या इलाहाबाद के राजकीय बालगृह की सभी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पाखंडी सिद्धांतों और खोखले आदर्शों के को ही उजागर करती है। भारतीय पुरुष समाज की बर्बरता का ही आलम है कि बच्चियों की तस्करी की जा रही है और धड़ल्ले से उन्हें वेश्‍यावृत्ति जैसे अमानवीय कार्यों में झोंका जा रहा है। सिर्फ कहने को है कि महिलाएं सड़कों व सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षित नहीं है। सच तो यह है कि वह अपने घर-परिवार और रिश्‍ते-नातों की जद में भी सुरक्षित नहीं है। महिलाएं और बच्चियां अपने ही सगे संबधियों द्वारा दुश्कर्म की शिकार हो रही हैं और सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से अपना मुंह बंद रखने को मजबूर हैं। नतीजा यह निकलता है कि पाशविक और बर्बर आचरण वाले समाजद्रोही पाप के दण्ड से बच निकलते हैं। दो वर्ष पहले सरकार की ओर से जारी राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2009 में रिश्‍तेदारों द्वारा बलात्कार किए जाने की घटनाओं में आश्‍चर्यजनक रुप से वृद्धि हुई है। हैरत की बात यह है कि दुश्कर्म की घटनाओं में तकरीबन 95 फीसदी मामलों में पीडि़त लड़की दुष्‍कर्मी को अच्छी तरह जानती-पहचानती है फिर भी उसके खिलाफ अपना मुंह नहीं खोलती है। शायद उसे भरोसा ही नहीं होता है कि कानून व समाज उसे दण्डित कर पाएगा। निःसंदेह यह स्थिति हमारी कानून व्यवस्था और समाज को मुंह चिढ़ाने के साथ एक बड़ी चुनौती है। देष में कानून का शासन होने के बाद भी महिलाओं और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अब तो षिक्षा के केंद्र भी इस तरह के अघोरतम् घटनाओं से अछूते नहीं रह गए हैं। गुरु-शिष्‍य के रिश्‍ते कलंकित होने लगे हैं। अभी पिछले साल ही जबलपुर में रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय में महिला डाक्टरों के साथ यौन दुराचार का मामला प्रकाष में आया था। देश के अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं घट रही हैं। लेकिन तमाशा कहा जाएगा कि पुलिस-प्रशासन की निष्क्रियता की वजह से अपराधी बच जा रहे हैं। इसके लिए पूर्णतः सरकार दोषी है। वजह साफ है। सरकार न तो पुलिस रिफार्म के लिए तैयार है और न ही फास्ट ट्रैक अदालतों की संख्या बढ़ा रही है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस दिशा में सरकार को आदेश दिया जा चुका है। देश में जनसंख्या के मुताबिक पुलिस की उपलब्धता बहुत ही कम है। राजधानी दिल्ली में अधिकांश पुलिस वीआइपी सुरक्षा में लगे होते हैं। ऐसे में आमजन की सुरक्षा फिर भगवान भरोसे ही रहेगी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार का ही कर्तव्य नहीं है बल्कि समाज को भी अपना दायरा बढ़ाना होगा। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज की भूमिका सर्वोपरि होती है।

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