सोनिया कांग्रेस ने देश की सत्ता संभालने के लिये यू पी ए के नाम से जो ताना बाना बुना था वह धीरे धीरे बिखरने लगा है । साम्यवादी दल पहले ही उससे किनारा कर चुके हैं । शरद पवार और उनकी नैशनल कांग्रेस पार्टी सोनिया का साथ छोड़ने में एक क्षण की भी देरी नहीं लगायेंगे , जैसे ही उन्हें विश्वास हो जायेगा की यू पी ए का जहाज़ अब दलदल में फँस रहा है । ज़मीनी राजनैतिक हालात को समय पर सूंघ लेने की शरद पवार की घ्राण शक्ति के क़ायल तो उसके विरोधी भी रहते हैं । नज़दीक़ी सूत्रों का कहना है कि पवार के नथुने आजकल फडफडाते रहते हैं । पी ए संगमा ने अभी हाल में नैशनल पीपुल्स पार्टी बनाकर उसे एन डी ए से जोड़ने की पहल की है । यह ठीक है कि संगमा पूर्वोत्तर भारत में ही कहीं कहीं अपना झंडा गाड पायेंगे , लेकिन सोनिया गान्धी की कैथोलिक चर्च की प्रतिनिधि होने की छवि को वे अवश्य धूमिल कर सकते हैं । करुणानिधि के घर में जो फूट पड़ी है और उत्तराधिकारी को लेकर जिस जंग की शुरुआत हुई है , उससे निश्चय ही डी एम के की शक्ति क्षीण होगी । करुणानिधि ने अपने छोटे बेटे स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो बड़े बेटे एम के एलाझरी ने व्यंग्य किया कि बाप ने क्या पार्टी को शंकर मठ समझ रखा है ?
दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस की हालत पतली है ।तेलंगाना उसके गली की हड्डी बन गया है । जगन्नाथ रेड्डी की कांग्रेस सोनिया की कांग्रेस को बार बार झटके दे रही है । बिहार और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस मृतप्राय हो चुकी है । ममता बनर्जी केवल कांग्रेस के मोर्चे से ही अलग नहीं हुई बल्कि उसकी धुर विरोधी भी बन चुकी है । ओडीशा में भाजपा और बीजू जनता दल में झगड़ा प्यारी मोहन ने करवाया था और अब उसी प्यारी मोहन को नवीन पटनायक ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है । असम में पिछली बार बंगला देशीयों को बाहर का रास्ता दिखा देने का वायदा करके तरुण गोगोई ने असम को सोनिया की झोली में डाल दिया था , लेकिन अब बोडो और अवैध बंगलादेशियों की लड़ाई में बंगला देशीयों का साथ देकर उसने सिद्ध कर दिया है कि वोटों के लालच में सोनिया कांग्रेस अन्ततः बंगलादेशियों का ही साथ देगी । इससे असम के लोगों का कांग्रेस से मोह भंग हुआ है ।
सबसे बड़ी बात यह कि मनमोहन सिंह महँगाई को रोकने में कामयाब नहीं हुये , लेकिन उल्टा उन्होंने महँगाई को प्रगति और विकास की निशानी बताना शुरुआत कर दिया है । अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और आम आदमी के लिये अब घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है । नव उदारवादी मध्यम वर्ग पर भारी पड़ता जा रहा है । कभी सुना था कि अन्न उपजाने वाला किसान भी आत्महत्या कर सकता है ? लेकिन आज सबसे ज़्यादा आत्महत्या किसान ही कर रहे हैं क्योंकि मनमोहन सरकार के नव उदारवाद में फँस कर उसके पास छुटकारे का और कोई रास्ता नहीं बचा है । शासन में भ्रष्टाचार की सि्थति ऐसी हो गई है मानों भ्रष्टाचारी ही अपने व्यवसायिक हितों के लिये सरकार चला रहे हों । केन्द्रीय मंत्रिमंडल के अधिकांश लोग भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुये हैं । इस स्थिति में आम लोग विकल्प की तलाश में हैं । वर्तमान स्थिति में विकल्प भारतीय जनता पार्टी ही हो सकती है । लेकिन क्या सचमुच भाजपा इस उत्तरदायित्व के लिये तैयार है ?
अभी हिमाचल प्रदेश में भाजपा की पराजय हुई है तो उस के विरोधी भी कह रहे हैं कि भाजपा को मतदाता तो जिताना चाहता था लेकिन भाजपा की आपसी लड़ाई ने मतदाता की यह इच्छा पूरी नहीं होने दी । कमोबेश यह स्थिति भाजपा की हर प्रान्त में है । ऐसा नहीं कि भाजपा के लोगों में ये मतभेद किन्हीं वैचारिक प्रश्नों को लेकर हैं । वैचारिक दृष्टि से सभी एकजुट हैं । उनके अापसी मतभेद और लड़ाई या तो सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों पर है या फिर आपस के व्यवहार को लेकर झगड़े हैं या फिर आपस के अहंकार टकराते हैं । कर्नाटक में येदुरप्पा से इसी प्रकार के झगड़े हैं । सबसे दुख की बात तो यह है कि सत्ता में भागीदारी के अन्य दावेदारों के ख़िलाफ़ अपने ही लोग मीडिया में अभियान चलाते रहते हैं ।
यदि भाजपा को २०१४ के चुनावों के लिये जीतने हेतु तैयारी करनी है तो उसे पहले घर के भीतर की इन दरारों को पाटना होगा । भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी यह काम बख़ूबी कर सकते हैं । बल्कि कहना तो यह चाहिये कि वही यह काम कर सकते हैं , क्योंकि वे पार्टी के भीतर किसी धड़े से बँधे हुये नहीं हैं । इसलिये इस एकता अभियान में उनका कोई व्यक्तिगत ऐजंडा नहीं हो सकता । उनको पार्टी में किसी एक धड़े को मज़बूत नहीं करना है । इस लिये इस अभियान में उनकी निष्कपटता पर कोई संदेह नहीं कर सकता । द्वितीय वे स्वयं सत्ता के शीर्ष पदों की दौड़ में नहीं हैं । इसलिये उनकी विश्वसनीयता असंदिग्ध है । वे थोड़ा प्रयास कर सभी धड़ों का विश्वास तो अर्जित कर ही सकते हैं साथ ही पार्टी से रुठकर चले गये लोगों को भी पुनः परिवार में वापिस ला सकते हैं । यदि भाजपा एकजुट होती है और उसे छोड़कर गये अधिकांश लोग वापिस आ जाते हैं तो यक़ीनन एन डी ए में अनेक घटक मिलने के लिये तैयार हो जायेंगे । भाजपा के लिये २०१४ के चुनाव से पहले की ये सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं , यदि गड़करी इससे पार पा लेते हैं तो यू पी ए के लिये अगले चुनाव तक अपना कुनबा संभाल कर रखना मुश्किल हो जायेगा ।
भाजपा के पास प्रतिबद्धित कार्यकर्ताओं की सेना है । अधिकांश कार्यकर्ता पार्टी से वैचारिक कारणों से बँधे हैं , किसी सत्ता के लालच में नहीं । भाजपा मूलत वैचारिक आन्दोलन ही है । लेकिन पिछले कुछ साल से उसकी विश्वसनीयता को लेकर प्रश्न उठने लगे हैं । बाहर तो उठ ही रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से परिवार के भीतर भी उठ रहे हैं । ऐसी स्थिति में गड़करी उसकी विश्वसनीयता भी बहाल कर सकते हैं और उसको पुनः पटरी पर भी ला सकते हैं । लेकिन यह तभी संभव है वे कबीर का लुकाठा धारण कर लें । यह लुकाठा वही धारण कर सकता है जो स्वयं सत्ता की आपाधापी से दूर हो । तभी वह निर्णायक की भूमिका में उतर सकता है । गड़करी की यही सबसे बड़ी पूँजी है और भाजपा में नई उर्जा लाने के लिये इसी पूँजी की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है ।
यदि भाजपा एकजुट होती है और उसे छोड़कर गये अधिकांश लोग वापिस आ जाते हैं तो यक़ीनन एन डी ए में अनेक घटक मिलने के लिये तैयार हो जायेंगे |माननीय गोविन्दाचार्य जी को लाना बहुत ही जरुरी है बीजेपी को अन्यथा बिखरने का दौर चलता रहेगा |