मीडिया का बदलता स्वरूप

-अंशु शरण-

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तह-दर-तह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मौजूद लोगों की नियति सामने आ रही है, मीडिया ने इस आम चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुये अपनी ताकत को आँका है और हाल के आचरण से लगता है की अभी से ही विधान सभा चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दी ।

लोकतान्त्रिक विचारों पर नियंत्रण रखने वाली मीडिया ने तो तील और ताड़ के बीच का अन्तर ही खत्म करते हुए अब अभिव्यक्ति का गला घोंटने की कोशिश शुरू कर दी हालांकि यह गुण उन्हें उनके फासीवादी साथियों से मिला है । लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में चुनाव की महत्ता समझते हुए बाजार ने मीडिया के जरिये सत्ता में पैठ बना ली है । इसके साथ ही मीडिया ने स्वस्थ जनमत की आवयशक परिस्थितियों को धराशायी कर दिया। कह सकते हैं की लोकतन्त्र के इस स्तंम्भ पर सरकार और बाजार दोनों की छत संयुक्त रूप से टिकी हुयी है। मीडिया सच दिखाती भी है और छुपाती भी, ऐसी अवस्था ही सच का दाम तय करने की परिस्थिति निर्माण करती है।

जुबां खुलने से पहले
कलम लिखने से पहले
अख़बार छपने से पहले ही
बिकी हुयी है |

और इनके बदौलत ही
सरकार और बाजार की छत
लोकतंत्र के इस स्तम्भ पर
संयुक्त रूप से
टिकी हुयी है |

हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश में हो रही घटनाओं का बार-बार दिखाया जाना और उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा का शोर मचाया जाना विधान सभा चुनाव की तैयारियों की संयुक्त शुरुआत है। एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल ने एनिमेशन के जरिये यूपी सरकार के बजट को स्त्री विरोधी बताया जबकि केंद्र सरकार के उस बजट पर चुप्पी साध ली जिसमें महिला सुरक्षा को 150 करोड़ और सरदार पटेल की मूर्ति को 200 करोड़ दिया गया।

हरियाणा के भगाना गांव में चार दलित बहनों के साथ रेप और गांव से बहिष्कार की घटना न्यूज़ चैनलों पर नहीं आ पाई जबकि भगाना के दलित परिवार ने लगातार जंतर मंतर पर धरना दिया और उन्हें यहाँ से भी उन्हें खदेड़ दिया गया । हरियाणा में दलित और स्त्री विरोधी घटनाओं के भरमार के बावजूद, खाप वहां सुप्रीम कोर्ट के रोक के बावजूद मजबूती से जिन्दा है । और न्यूज़ चैनल के अनिमेशन में उत्तर प्रदेश में खाप की मौजूदगी दिखाई गयी है। जबकि मोदी सरकार के मंत्री बलात्कार के आरोपी होने बाद भी स्त्री विरोधी नहीं हुए। भाजपा शाषित राज्यों में हुए घोटालों को जैसे व्यापम को कवरेज न मिलना भी मीडिया की नियति को दर्शाता है। इसके अलावा भी मोदी सरकार के कार्यप्रणाली पर मीडिया का सवाल ना उठाया जाना भी संग्दिग्ध है । निपेंद्र मिश्र को मुख्य सचिव बनाने के लिए ट्राई के नियमों में संशोधन के लिये संसद में बिल पारित कराने तक की हद तक जाना पड़ा, जबकि और भी काबिल अफ़सर मौजूद रहे हैं। और इन सब के बीच में चुपके से वाईएस राव का भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद का चैयरमेन बनाया जाना भी हैरान कर देने के साथ साथ इतिहासकारों के लिए निराश जनक भी है। वाईएस राव का इतिहास आरएसएस को खुश करने वाला रहा है और शायद यही वजह है की भारतीय समाज की सनातन सामंतवाद को सराहने वाले राव को यह मौका मिला। लेकिन ये सब घटनायें मीडिया को बिल्कुल सामान्य लगी।
जबकि केंद्र सरकार के जन विरोधी और अलोकतांत्रिक कदमों को कड़वी दवा नाम देकर अच्छे दिनों का दावा करने वाली मीडिया कन्नी काट रहा है।

मीडिया लोकतन्त्र की हिमायत कैसे कर सकता है, जब उनके संगठनों में खुद लोकतन्त्र का अभाव है, मजीठिया कमेटी का नाम लेने वालों का दमन करने वाली मीडिया भला क्यूँ अपने जैसे राजनैतिक दल के साथ न खड़ा हो ?

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