पत्रकारों की बदलती दिशा और दशा

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डॉ. शशि तिवारी

शब्दों में वो ताकत होती है जो बन्दूक की गोली, तोप के गोले एवं तलवार में नहीं होती है। अस्त्र-शस्त्र से घायल व्यक्ति की सीमा शरीर होता है जो देर-सबेर ठीक हो ही जाता है लेकिन, शब्द से मानव की आत्मा घायल होती है, इस पीड़ा को जीवन-पर्यन्त तक नहीं भुलाया जा सकता। शब्दों का सच्चा मालिक पत्रकार ही होता है, जिसकी लेखनी से निकला प्रत्येक शब्द किसी देश, समाज, विकास की न केवल दिशा और दशा को तय करता है बल्कि उन्हें एक निश्चित् गति भी प्रदान करने में सहायक होता है।

इतिहास गवाह है देश के अन्दर बड़ी-बड़ी क्राँन्तियां पत्रकारों की लेखनी से ही घटित हुई हैं फिर चाहे वह घटना भारत के स्वतंत्र होने की ही क्यों न हो। हम इस तथ्य को कभी नहीं भूल सकते कि किस तरह गणेश शंकर विद्यार्थी बाल गंगाधर तिलक, माधव सप्रे, गाँधी ने समाचार पत्रों के माध्यम से सभी जनों को एक सूत्र में पिरो एक जनक्रांति खड़ी की थी। इनके योगदान को भी किसी वीर सैनिक से कम नहीं आँका जा सकता, पत्रकार एवं विचारकों की लेखनी ही समाज में व्याप्त कुरूतियों जैसे सती प्रथा, बाल-विवाह, छुआछूत, नारी अशिक्षा, पर्दा प्रथा आदि-आदि से सफलतापूर्वक निपटने में अविस्मरणीय योगदान दिया है।

 

भारत की स्वतंत्रता के बाद नेहरू, शास्त्री, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे उदयीमान राजनीतिज्ञों ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस को विकास की दिशा में न केवल सहायक माना बल्कि इनके माध्यम से सीख ले। अपनी कमियों को भी दूर कर राजनीति का समय-समय पर शुद्धिकरण भी करते रहे। पहले के राजनीतिज्ञ ‘निंदक नियरे रखिये’’ की तर्ज पर कार्य कर, बिना पूर्वाग्रहों के अपनी कमियों को सहर्ष स्वीकार कर देश के विकास के अनुकूल योजनाओं का भी निर्माण करते थे। इसीलिए मेरे मतानुसार 60 के दशक तक पत्रकारिता का स्वर्णिम युग भी रहा। 70 के दशक से विचारकों, लेखकों, पत्रकारों का ग्रहणकाल आपातकाल से ही शुरू हुआ जिसमें बड़े-बड़े समाचार पत्र समूहों को रौंदने में कोई भी कोर-कसर नहीं छोड़ी गई थी जिसके भयंकर दुष्परिणाम न केवल प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ ने भोगे, बल्कि देश भी कई समस्याओ से घिरा। 80 से 90 दशक में बड़े-बड़े आंदोलनों को एक नई दिशा पत्रकारिता ने दी, फिर बात चाहे पर्यावरणीय मुद्दों की हो या आरक्षण की हो। 1990से 2000 का समय राजनीतिक, सामाजिक दृष्टि से बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा। इसी समय कई राजनीतिक पार्टियों ने जन्म लिया बल्कि चौथे स्तंभ की मदद से देश एवं राज्यों मंे न केवल सत्ता पर काबिज हो न केवल शासन किया बल्कि देश के विकास में प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मंदद से जन-जन तक पहुंच एक नई क्रांति भी पैदा की। जैसे अन्ना हजारे ने पूरे देश में वैचारिक क्राँति के माध्यम से सरकार को अवगत कराया कि लोकतंत्र में जनता का शासन जनता के लिए होता है। जब, जन शासन जनता का है और उसी के लिए है तो जनता की भागीदारी केवल वोट तक ही सीमित क्यों? मीडिया ने जनता को सीधे जोड़ उनकी बात को जन-जन तक पहुंचाया। भ्रष्टाचार हर देश को खोखला करता है। स्टिंग आपरेशन के जरिये रोज नये-नये घपले उजागर हो रहे है। पत्रकार अपनी जान जोखिम में डाल भ्रष्टाचार विहीन राष्ट्र बनाने में सहायता कर रहा है। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं हर पहलू के दो सिक्के होते हैं।

 

कहते है- ‘‘आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है।‘‘ चौथे स्तंभ की विस्फोटक प्रगति के साथ ही स्वयं चौथा स्तंभ भी पीत पत्रकारिता से अपने आप को बचा नहीं पाया, आज क्या राजनीतिज्ञ, क्या मीडिया, क्या समाज तेजी से बदले देश के घटनाक्रमों में अपने को सही न ढ़ालने के कारण कई अवांछित बुराईयों के साये में न केवल आ गये है। बल्कि एक दूसरे पर लांछन लगाने में भी नहीं चूक रहे है। कल तक देश, समाज के निर् माण में अहंम भूमिका अदा करने वाला मीडिया स्वयं एक कारपोरेट सेक्टर के रूप में विकसित हो विभिन्न अन्य व्यवसायों मंे संलग्न हो नेताओं के अनुकूल अपने को ढाल न केवल उनकी वाणी बन या यूं कहे केवल स्पोक्समेन बनकर रह गए हैं। बल्कि, अब तो सट्टा, जुआ, नमक-तेल, विभिन्न माफिया, ठेकेदार, राजनेताओं ने स्वयं ही अपना प्रिन्ट और मीडिया हाउस खोल लिया है। आज के समय पत्रकारिता जिस कठिन दौर से गुजर रही है, पहले कभी नहीं गुजरी। गाँधी ने कहा था पत्रकारों को स्वयं प्रेस का मालिक होना चाहिए। ताकि सच हर हाल, हर कीमत पर समाज एवं जनता के सामने आये लेकिन आज पत्रकारिता के पैशे में कुछ नकली भेड़ें भी घुस गई है जिन्हें पत्रकारिता की क, ख, ग, भी नहीं मालूम बस काले धन या धन उगाने के लिए कुछ पन्नों की पत्र-पत्रिकाए या इलेक्ट्रिॉनिक मीडिया डाल व्यवसाय शुरू कर अपने आपको जाने-माने पत्रकार बनाने मे जुट जाते हैं। इसे विडम्बना ही कहेंगे जिस देश में वाहन चलाने के लिए तो लाइसेंस की आवश्यकता होती है लेकिन देश को दिशा देने वाले समाचार पत्र के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता की शिक्षा क्यों नहीं? शासन को इस दिशा में सोच कड़े नियम एवं आयोग बनाने ही होंगे ताकि असली-नकली में भेद हो सकें और पत्रकारों का स्तर सुधर सकें।

 

आज सच्चे पत्रकार को अपने अस्तित्व को बचाना ही बड़ा दुष्कर कार्य है, वर्तमान में पत्रकार की पहली और सीधी लड़ाई अपने प्रेस मालिक से ही सच को उजागर करने के लिए लड़ना पड़ती है। चूंकि प्रेस मालिक बनिया है या व्यवसायी है। इसलिए वह सर्वप्रथम अपने व्यवसायिक हितों को देखता है जिससे नंगा सच कम छदम् सच ही सामने आता है। देश को दिशा देने वाला मीडिया ही आज अपनी रेटिंग बढ़ाने के चक्कर में ऊल-जुलूल � ��बरों में ही पूरा दिन निकाल देते हैं। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया एक भटके मानसून की तरह पत्रकारिता के मूल से भटक गया है, जिसके परिणामस्वरूप इनकी साख में भी तेजी से गिरावट आई हैं।

 

पहले बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ पत्रकारों को सम्मान की दृष्टि से देखते थे, बाहुबली सामना करने से डरते थे, लेकिन आज इन्होंने ने ही अपने-अपने प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया हाउस खोल लिये है। इसीलिए आज पेड न्यूज जैसा कलंक मीडिया को झेलना पड़ रहा हैं। आज पत्रकार पत्रकारिता देश-समाज के लिए नहीं, बल्कि अपने मालिक के लिए कर रहा है और इसका दुष्परिणाम देश को भोगना पड़ रहा है। एक जमाना था जब अखबा र में छपी चार लाईन देश-प्रदेश की दिशा और दशा न केवल तय करती थी बल्कि उन पर कार्यवाही भी होती थी, लेकिन आज पूरा पेज छापने पर भी किसी को कोई भी फर्क नहीं पड़ता। उल्टे इसे मुफ्त का प्रचार ही मानते हैं। आज कुछ लोगों को तो मीडिया की इतनी भूख है कि छपने के लिए मीडिया में सुर्खियों में रहने के लिए ‘‘कुछ भी करेगा’’ की तर्ज पर अपने को दौड़ा, गिरा रहे हैं, दुःख होता है आज के दौर में पत्रकारिता देश � �ो कम व्यक्ति को ज्यादा दिशा दे रहा है। यह ना तो पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत हैं और ना ही देश की प्रगति के लिए।

2 COMMENTS

  1. डॉ. शशि तिवारी द्वारा लिखित लेख में बहुत ही बेबाकी से सच को लिखा गया है. मगर इस समस्या के समाधान का कोई ठोस उपाय भी लिखना चाहिए था. पहले पत्रकारिता का उद्देश्य जन आंदोलन हुआ करता था. अब पत्रकारिता का उद्देश्य चाटुकारिता रह गया है.

  2. सही लिखा है आपने पर इस समस्या के समाधान का कोई ठोस उपाय भी तो बताइए

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