गरीबी के बदलते पैमाने और मायने

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राजेश कश्यप

गत दिनों सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई अपनी एक रिपोर्ट में योजना आयोग ने कहा कि शहर में 32 रूपये और गाँव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा (बीपीएल) की परिधि में नहीं आता है। कमाल की बात तो यह रही कि देश की शीर्ष अदालत में दाखिल बतौर शपथ पत्र दाखिल की गई इस रिपोर्ट पर प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर भी थे। सरकार की इस कुटनीति और कुटिलता पर बवाल मचना स्वभाविक था। सरकार की सर्वत्र थू-थू (आलोचना) हुई। मंहगाई, भूखमरी और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर बुरी तरह घिरी यूपीए सरकार के लिए गरीबी का ये नया पैमाना बनाना, गरीबों के जख्मों पर नमक छिड़कने के समान रहा। नि:सन्देह सरकार की यह कुटिलता किसी ‘आत्मघाती’ कदम से कम नहीं कही जा सकती। आंकड़ों की बाजीगरी से देश की गरीबी को मिटाने का दिवास्वप्न देखने वाली कांग्रेस को जब इस मसले पर न उगलते बना और न निगलते बना तो उसने आनन-फानन में अपना दूसरा पैंतरा चला दिया। पहले तो सरकार ने इसे सरकारी नजरिए की बजाय सुरेश तेन्दुलकर की सिफारिश कहकर पल्ला झाड़ने की भरसक कोशिश की। लेकिन, जब बात बनते दिखाई नहीं दी तो सरकार ने फिर से अपना सियासी पैंतरा खेला है।

 

अब सरकार ने गरीबी का पैमाना तय करने के नजरिये को जायज बताते हुए कहा है कि जाति आधारित जनगणना से आने वाले सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को आधार बनाकर गरीबी की रेखा नए सिरे से तय होगी। इसके तहत हर योजना के लिए पात्र गरीबों का चयन अभाव के हिसाब से होगा और इसके लिए वरीयता (ग्रेडिंग) बनाई जाएगी। इसके साथ ही सरकार ने कहा है कि अदालत में दाखिल किए गए हल्फनामे को वापिस नहीं लिया जाएगा। योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने तो यहां तक कहा है कि मैं तो चाहता हूँ कि अब कोई बीपीएल लिस्ट या कार्ड न बने। जरूरतों के लिहाज से ही योजनाओं का लाभ दिया जाए।

 

सरकार की नीतियों और वक्तव्यों और नीतियों से साफ झलकता है कि हकीकत में गरीबी दूर करने की उसकी मंशा दूर-दूर तक नहीं है। सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी और छलावा नीतियों के जरिए ही वह आम आदमी को बरगलाए रखना चाहती है। कुछ समय पहले बेलगाम महंगाई के मुद्दे पर सरकार की तरफ से बड़ी बेहूदा तार्किकता पेश की गई थी कि जब इतनी मंहगाई में भी आम आदमी गुजारा कर रहा है और उसकी क्रय शक्ति बनी हुई है तो इसका मतलब उसके जीवन-स्तर में इजाफा हुआ है। इसके तर्क के मायने यह थे कि सरकार के सद्प्रयासों के चलते आज आम आदमी आर्थिक रूप से इतना सम्पन्न हो गया है कि उस पर महंगाई का कोई असर नहीं पड़ रहा है। सरकारी की इस मानसिकता पर भी आम आदमी को रोना आया था। सरकार गरीबी के मनमाने पैमाने बदलकर, गरीबी का जड़ से उन्मूलन करने का दिवास्वप्न देखने से बाज नहीं आ रही है।

 

दरअसल गरीबी भ्रष्ट और बेईमान सत्ताधारियों के कारण देश के लिए एक नासूर बन चुकी है। आजादी के समय भी आम आदमी गरीबी के चंगुल में फंसा हुआ था और आज भी फंसा हुआ। आजादी प्राप्ति से लेकर आज तक आम आदमी सिर्फ गरीबी मिटाने के सरकारी आश्वासनों और दावों के चक्रव्युह को झेलता आ रहा है। सरकारें बदल रही हैं, नीतियां बदल रही हैं, लेकिन, स्थिति वही ढ़ाक के तीन पात वाली है। गरीबों के हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और बेकारी के चलते गरीबी का ग्राफ दिनोंदिन तेजी से चढ़ता चला जा रहा है और सरकार इस ग्राफ को उलटा पकड़कर दिखाने की जादुगिरी कर रही है।

 

आंकड़ों के तराजू में गरीबी को कई बार तोला गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि आंकड़ों के परिणाम एकदम विरोधाभासी रहे। यदि आंकड़ों की नजर में गरीबी की स्थिति को देखा जाए तो वर्ष 1973-74 में कुल 54.4 प्रतिशत गरीबी थी, जोकि वर्ष 1977-78 में यह आंकड़ा घटकर 51.3 प्रतिशत पर आ गया। आगे चलकर गरीबी का प्रतिशत वर्ष 1983 में घटकर 44.5 प्रतिशत पर आ पहुंचा और वर्ष 1987-88 में 38.9 प्रतिशत हो गया। जादूई तरीके से यही प्रतिशत वर्ष 1993-94 में घटता हुआ 36.0 प्रतिशत पर आ गया और वर्ष 1999-2000 में एक झटके से यह 26.1 प्रतिशत के आंकड़े पर आ पहुंचा। वर्ष 2004-05 के मिश्रित स्मरण अवधि के अनुसार गरीबी का प्रतिशत घटता-घटता 21.8 प्रतिशत हो गया और अब हाल यह है कि सरकार परोक्ष रूप से इस आंकड़े को शून्य प्रतिशत दिखाने का प्रयत्न कर रही है। जबकि हकीकत इन आंकड़ों के ठीक विपरीत है।

 

भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेन गुप्त आयोग के अनुसार भारत के 77 प्रतिशत लोग (लगभग 83 करोड़ 70 लाख लोग) 20 रूपये से भी कम रोजाना की आय पर किसी तरह गुजारा करते हैं। विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की बात यदि सरकार स्वीकार करे तो देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाएगी। उल्लेखनीय है कि सरकार ने एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह बनाया था। इस समूह को बीपीएल तय करने के लिए पैमाना तय करना था। समूह ने इसके लिए कैलोरी खपत को आधार बनाने का सुझाव दिया था। तर्क दिया गया था कि 1987-88 से लगातार गरीबों की कैलोरी खपत में कमी हो रही है।

 

समूह ने यह भी ध्यान दिलाया कि संयुक्त राष्ट्र के सहस्त्राब्दी लक्ष्य में 2015 तक भूख-गरीबी को आधा करने को कहा गया है। विशेषज्ञ समूह ने पाया कि 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड को आधार बनाया गया तो देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। लेकिन, बदली जीवन शैली में कम कैलोरी खपत (2100 कैलोरी) के आधार पर भी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली बीपीएल जनता की संख्या 50 प्रतिशत होगी। समूह का आंकलन प्रति व्यक्ति 12.25 किलो अनाज की खपत पर आधारित है। यहां आंकड़ा इसलिए भी तर्कसंगत है, क्योंकि देश में 50 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। केवल इतना ही नहीं, कम से कम 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं में खून की कमी पाई जाती है। विश्व बैंक ने भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बीपीएल के लिए 1.25 डॉलर प्रतिदिन आय का मापदण्ड तय किया था।

 

सरकार ने गरीबी उन्मूलन के लिए ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’, ‘भारत निर्माण योजना’, ‘प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना’, ‘कुटीर उद्योग योजना’, ‘नेहरू विकास योजना’, ‘इन्दिरा आवास योजना’, ‘अन्त्योदय योजना’ जैसी दर्जनों कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन किया है। लेकिन, इसके बावजूद देश में गरीबी घटने की बजाय, बढ़ी है। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं हुआ और सभी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। आम व गरीब आदमी तक उन योजनाओं का पूरा लाभ नहीं पहुंच पाया। इस कटू सत्य को तो सरकार भी स्वीकार कर रही है कि इन योजनाओं के सौ में से मात्र 14 पैसे जरूरतमन्दों तक पहुंच पाते हैं, बाकि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। गत स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री द्वारा पन्द्रह मिनट तक भ्रष्टाचार पर केन्द्रित चिन्ता प्रकट करना, हकीकत को स्वयं बयां करता है।

 

निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और बेकारी ने आम आदमी को आक्रोश से भर दिया है। आम आदमी के प्रति सरकार की लापरवाही आग में घी का काम कर रही है। इसका साक्षात् नमूना गत जून माह में बाबा रामदेव के सत्याग्रह और वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे की ‘अगस्त क्रान्ति’ में कालेधन व भ्रष्टाचार के खिलाफ और सख्त जन लोकपाल बिल लाने के समर्थन में देशभर से उमड़ा जन-सैलाब पूरी दुनिया देख चुकी है। देश ‘गृहयुद्ध’ जैसी भयानक स्थिति में पहुंचने की कगार पर खड़ा है और सत्तारूढ़ सरकार गरीबी के पैमाने बदलकर गरीबों के साथ एकदम बेहूदा व अभद्र मजाक करके, बारूद के ढ़ेर को चिंगारी दिखाने की विनाशकारी व अक्षम्य भूल करने से बाज नहीं आ रही है।

 

विडंबना का विषय तो यह है कि गरीबी के पैमाने व मायने बदलने को लेकर भारी आलोचनाओं के बावजूद सरकार सचेत नहीं हो रही है। गत तीन अक्तूबर को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने सरकार की तरफ से गरीबी के पैमाने को लेकर जिन नए मानकों का खुलासा किया है, वह तात्कालिक आलोचनाओं पर अंकुश लगाने, आम आदमी को बेवकूफ बनाने और मुद्दे को लंबे समय के लिए ठण्डे बस्ते में डालकर सियासी लाभ उठाने के सिवाय, कुछ भी नजर नहीं आता है। क्योंकि सरकार सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हल्फनामें को न तो वापिस लेगी और न ही गरीबों की वास्तविक हकीकत को समझने और सामने लाने का वादा करेगी देगी। कहना न होगा कि यह स्थिति यूपीए सरकार के लिए न केवल ‘आत्मघाती’ साबित होगी, अपितु, देश को ‘गृहयुद्ध’ जैसी भयंकर स्थिति में भी पहुंचा देंगी, क्योंकि अब आम आदमी के लिए सामान्य जीवन जीना बेहद मुश्किल हो चला है और अब वह भ्रष्टाचार, महंगाई, भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, बेकारी आदि को सहने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है।

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