करिश्माई नेतृत्व की अवधारण अपनाता जनमानस

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दिनेश परमार

भारतीय राजनीति में करिश्माई व्यक्तित्व की भूमिका हमेशा से रही है। दल किसी भी स्तर का हो, लेकिन उसकी विजय का आधार उसके नेतृत्वकत्र्ता वे नेता होगे जिनका समाज में रूतबा है, नाम है। देश की आजादी से लेकर सन् 77 तक जितने भी चुनाव हूए उनमें यदि कोई दल सबसे शक्तिशाy

ली दल के रूप में उभरा है तो वह है कांग्रेस। उसका कारण मात्र एक ही था नेहरूजी की लोकप्रियता। देश की जनता में नेहरूजी के प्रति अपार श्रद्धा थी जिसके कारण उनका दल उनकी मृत्यु तक लगातार बहुमत प्राप्त करता रहा। उनकी मृत्यु के उपरांत कांग्रेस दल की बागडोर उनकी पुत्री,श्रीमती ईंदिरा गांधी ने सम्भाली। उनको करिश्मा करने वाला व्यक्तित्व तो एक प्रकार से विरासत में ही मिला था। राज कार्य किस प्रकार से सम्भाला जाता है यह उन्हे सीखने की या सिखाने की आवश्यकता नही थी। उन्होने अपने पिता से यह गुण भलींभांति सीख लिया था। 1964 में नेहरू जी की मृत्यु हो गई वे अपने पीछे कांग्रेस को एक ऐसे रूप में छोड कर गये थे, जो उनके परिवार की निजी सम्पत्ति की तरह कार्य करने के लिए तैयार थी। और सौभाग्य से इस संस्था को उन्ही के परिवार से वारीस मिल गया। 64 में इन्दिराजी के कांग्रेस की बागडोर सम्भालने के समय, देश में परिवर्तन की हलकी-हलकी बयार चलनी प्रारम्भ हो चुकी थी। कांग्रेस के भीतर ही ऐसे कद्दावर नेता बैठे थे जो नेहरू जी के बाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे, राजनीति के मंजे हुए खिलाडी मोरारी जी, कामराज,जगजीवनराम जैसे कई लोग थे। लेकिन उनके स्थान पर इंदिरा जी ही प्रधानमत्री बनी स्पष्ट है कि उनके पास करिश्माई नेतृत्व की क्षमता थी। सन 1984 तक याने इंदिरा जी की मृत्यु तक कांग्रेस के भीतर कोई ऐसा नेता तैयार नही हुआ जो अपनी अखिल भारतीय छवी के द्वारा प्रधानमत्री पद की दावेदारी प्रस्तुत कर सके। सही अर्थो में इंदिरा गांधी ने ऐसे नेता को पनपने ही नही दिया। क्योंकि इंदिरा जी एक ऐसी नेता थी जिन्हे केवल अपने से ही मतलब था कांग्रेस से भी नहीं। अतः जिस किसी ने दावेदार बनने की कोशिश की उसको या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या उसके पर कुतर दिये गये। सन 69 में जिस प्रकार पहली बार जनता दल की सरकार केंद्र में बनी वह और कुछ नहीं, इंदिरा जी के इसी अडियल व तानाशाही वाले रवैये का नतीजा थी।

इस दौरान देश की स्थिति भी संवेदनशील थी। कांग्रेस से जनता का विश्वास लगातार उठ रहा था। कांग्रेस के कार्यक्रमों से जनता उब रही थी। और कांग्रेस के भीतर बढ रहे असंतोष ने नये नये दलों को पनपाना शुरू कर दिया था। चुंकि भारत लोकतंत्रात्मक गणराज्य की पद्धति पर आधारित है जिसमें दलो की भूमिका सर्वमान्य है। जितनी अधिक मात्रा में दलों की संख्या बढती है उतनी ही मात्रा में लोकतंत्र मजबूत होता है।और फिर संविधान ने राजनीतिक दल बनाने का अधिकार देश की जनता को दिया ही है। अतः जैसे ही कोई क्षेत्रिय नेता थोडा सा भी सुर्खियों में आता है तुरंत दल बना देता है। भले ही वह असफल हो जाये। इन दलों के बनने बिखरने की घटनाओं में जिस चीज का प्रभावी अभिनय रहा है वह करिश्माई व्यक्तित्व ही है आप उदाहरण देख सकते है। जैसे हाल ही में बंगाल की राजनीति में 30 सालो बाद परीवर्तन लाने वाली तृणमूल कांग्रेस की बात करें या महाराष्ट्र की राजनीति में 30 वर्षो तक प्रभूत्व रखने का बाद आज बिखराव की स्थिति में पहुंच चुकी शिव सेना की। या तमिलनाडु में जयललिता की। सभी में एक विषेशता सामान्य रूप से रही है करिश्मा कर देने वाला व्यक्तित्व। क्योंकि इन दलों का आधार ही यह है। यदि इनका नेता उपस्थित नही हो तो ये पानी के बुलबुलों की भाती समाप्त होने शुरू हो जायेगें। जैसा कि श्री बाल ठाकरे के जाने के बाद शिव सेना का हुआ।

हम बात कर रहे थे भारतीय राजनीति में करिश्माई व्यक्तित्व की जैसा उपर बताया कि सन 84 तक इंदिरा जी भारतीय राजनीति में छाई रही। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद देश की राष्ट्रीय राजनीति में कोई ऐसा नेता नही उभरा जो ये दर्शा सके कि ‘‘मुझमें देश को सम्भालने की क्षमता है।‘‘( राजीव गांधी ने देश के प्रधानमंत्री का पद सम्भाला तब कईंयो को ऐसा लगा अवश्य था कि ये युवा है अतः कुछ अच्छा कर दिखायेंगें लेकिन ऐसा हुआ नहीं।) तब से एक विषेश स्थिति लगातार देखने को मिल रही है वह ये कि राष्ट्रीय दलों की शक्ति कम हो रही है राष्ट्रीय दल लगातार जनता से दूर जा रहे है, क्योंकि उनके पास ऐसे कोई कार्यक्रम ही नहीं जिस को मद्देनजर रखते हुए जनता आकर्षित हो।

दुसरी विषेशता जो कि इसकी पूरक ही है, चूँकि राष्ट्रीय कहलाने वाले दलों के पास कोई खास कार्यक्रम नही है अतः क्षेत्रीय दलों की साख बढ रही है। क्षेत्रीय नेता क्षेत्र की समस्याओं को मुद्दा बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे है, तो कुल मिलाकर आज करिश्माई व्यक्तित्व की अवधारणा अखिल भारतीय स्तर से समाप्त होकर क्षेत्रीय स्तर पर स्थानांतरीत हो रही है।जिसका सीधा असर देश की राजनीति पर पड रहा है। यही कारण है कि सन 84 के बाद देश निरंतर प्रत्येक लोक सभा चुनावों में गठबंधन द्वारा बनने वाली सरकारों के भरोसे चल रहा है। उदारीकरण करने वाली नरसिम्हा राव की सरकार हो चाहे इंण्डिया शाईनिंग का नारा देने वाली अटल जी की सरकार हो सभी पर गठबंधन धर्म तलवार रूप मे हमेशा ही लटकता नजर आया। जिस कारण कभी कोई अच्छा कार्य होते-होते रूक गया तो कभी कोई गलत कार्य विरोध करने के बाद भी नही रूका। हिंदी के सम्मान का प्रश्न आज भी प्रश्न ही है, दुसरी ओर संस्कृति के साथ हो रहा खिलवाड कितने ही प्रयत्नो के बाद रूकता नहीं है। 2000 व 2005 में बनी सरकारों के कार्यकाल किस प्रकार विवादास्पद रहे यह सभी को विदित है। इन सरकारों के कार्यकाल में कितने ही ऐसे मुद्दे उठे जिन पर देश को यह जिज्ञासा रही की सरकार द्वारा उचित रूप से संतुष्ट किया जायेगा किंतु जवाबदेही के स्थान पर हर बार यही सुनने को मिला कि क्या करे भाई गठबंधन धर्म की मजबूरी है हम अपने सहयोगी दलों को नाराज नही कर सकते।

ऐसे समय में में देश की जागरूक हो चुकी जनता ने 2014 के आम चुनावो में देश को 30 सालों के बाद पूर्ण बहुमत वाली सरकार देकर गठबंधन धर्म की मजबूरी से देश को मुक्त करने का रास्ता अपना लिया है। रही बात भाजपा की विजय में मोदी फेक्टर की तो उसका एक मात्र यही अर्थ मान लेना चाहिए कि देश पुनः करिश्माई नेतृत्व की अवधारणा को शायद अपना रहा है। इस कारण सभी राजनीतिक दल अपने -अपने भीतर यह मंथन करने में लगे है कि किस प्रकार अकेले चुनाव लडकर जीत दर्ज की जाये। यही कारण है की दलो के गठबंधन टूट रहे है। आगे कौन कितना करिश्मा करेगा,कौन किस प्रकार जनता को आकर्षित करेगा यह तो समय ही बतायेगा।

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