ललक ‘बहरूपिया’ वोटर को रिझाने की

2
345

बहुमत पाने के लिए आजकल बिसातें बिछाने का पूर्वाभ्यास चल रहा है। उत्तर प्रदेश का राजनीतिक प्रांगण किसी विश्वकप से कम नहीं आंका जाना चाहिए । यह वह जमीं है जहां से कई नेताओं को तो प्रधानमंत्री तक का तमगा मिल चुका है। चाहे वह वैकल्पिक हो या सच्चा कद्दावर नेता। जनता सबकी नब्ज टटोलती है। जिस पर मन पसीजा उसे बेखौफ अपना मत दे डालती है। यहां की जनता का दिल कब किस पर मेहरबान हो जाए कोई नहीं जानता। बात 2007 के विधान सभा चुनाव की ही देखी जाए। उस समय मुलायम सरकार के जंगल राज से सभी त्रस्त थे। धुरंधर नेताओं से लेकर राजनैतिक पंडित तक नहीं समझ पा रहे थे कि राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा,लेकिन जनता शायद भ्रमित नहीं थी। उसने मन बना तो लिया था,लेकिन इसके साथ ही शायद यह भी कसम खा ली थी कि पेट की बात बाहर नहीं आने देगा।

 

भाजपा,कांगे्रस,सपा और बसपा सभी अपनी जीत के दावे कर रहे थे।तरहतरह के नारे हवाओं में गूंज रहे थे।मुलायम को अपनी सत्ता बचाने की चिंता थी तो विपक्ष उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने को उतावला था।नेताओं के दौरे शुरू हो गए थे,लेकिन बसपा सुप्रीमों मायावती यूपी आने से कतराती रहीं। यही वजह थी मुलायम राज में यूपी से दूरी बना कर चल रहीं बसपा सुप्रीमों मायावती की पार्टी के सत्ता में आने का कोई दावा नहीं कर रहा था। हॉ,इतना जरूर कहा जा रहा था कि बसपा पहले से अधिक मजबूती हासिल कर सकती है। लेकिन जनता ने जब अपने मन की बात वोटिंग मशीन का बटन दबा कर जगजाहिर की तो नतीजे चौंकाने वाले निकले। हाथी पर मतवाले मतदाताओं ने अपनी ताकत के बल पर सत्ता परिवर्तन करके माया की ताजपोशी का रास्ता साफ कर दिया।॔ च़ गुंडों की छाती पर, मोहर लगाओ हाथी पर’ बसपा के इस एक नारे ने जादू सा कर दिया।माया,मुलायम के जंगल राज के खातमें की बात जगहजगह कह रहीं थीें। शायद मुलायम राज से जनता अकुलाई थी और उसने मन बना लिया था कि कुर्सी किसी एक के हवाले करो, वो चाहे कोई भी हो, आधा अधूरा बहुमत किसी काम का नहीं। ऐसा ही हुआ ।सपा की नैया डूब गई और बसपा को खेवनहार मिलते ही गये। खासकर ब्राह्मणों ने अपनी जादुई छड़ी से दलित नेत्री को एक बार फिर मुख्यमंत्री का दर्जा दिला दिया था। भाजपा से रूष्ट या यूं कहिए कि सवर्णों की दशा और दिशा की ओर ध्यान न दे पाने वाली इस पार्टी से ठाकुर ,ब्राहमण,या अन्य अगड़ी जातियों का मोहभंग सा हो गया था जो 2007 के विधान सभा चुनाव में भी जारी रहा। उसे भाजपा फूटी आंख भी नहीं सुहा रही थी। आरएसएस वाले बैकफुट पर आ गये। भाजपा के प्रति उनकी रूचि खत्म सी हो गयी थी। यही कारण रहा कि पेशे से वकील रहे एक अराजनैतिक ब्राहमण शख्स जिसकी थोड़ीबहुत पकड़ अपने समाज पर थी ने बहुजन के झंडे तले अपना तम्बू गाड़ बहुरूपिया वोटर को बसपा के साथ आने का न्योता दे दिया।बसपा के साथ ब्राहमणों का आना किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था,लेकिन माया के करिश्में ने ऐसा कर दिखाया।वह दलितों और ब्राहमणों को एक ही तराजू पर तौलती और ब्राहमणों के बीच जाती तो बस एक ही बात कहती ब्राहमणों का किसी भी राजनैतिक दल ने भला नहीं किया।यही वजह है आज वह भी दलितों की तरह दरिद्र हो गए हैं। यह बात ब्राहमणों के घर कर गई।उन्हें एक तरह से माया ने आईना दिखा दिया था। बस,ब्राहमण नीलामय हो गया।

यह बहुरूपिया वोटर अगड़ी जाति का था। जिसने जाति देखी न पांति । सिर्फ जुनून भर था। मुलायम सरकार को उखाड़ फेंकने का जिम्मा अपने कंधे पर ले लिया। जो वोटर कभी कांग्रेस का, कभी भाजपा फैन होता था। अपने आसपास अनुकूल पार्टी न पाकर दलित भावना में बह उठा। राजनीति और प्यार में सूरत या सीरत कोई मायने नहीं रखती। बसपा से सवर्ण का गठजोड़ काफी सुहाना रहा। यही समीचीन था। वक्त ने इतना साथ दिया कि अगड़ी जातियों का वोटर भी उसी लाइन में खड़ा हो गया । अगड़ों ने जाति बंधन तोड़कर दलित उम्मीदवारों को गले लगाया । वहीं जहां दलित वोटर था उसने ठाकुर,ब्राहमण,वैश्य, व कायस्थ का वोट पाकर अपना रूतबा जमा लिया। माया सर्वहारा की बिसात पर ताज पहन कर यूपी के सिंहासन पर आऱु हो गयीं। इससे मुलायम का मनोबल लड़खड़ा उठा,लेकिन सत्ता जाने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। जनता पर अपनी पकड़ दर्शाने और माया को आईना दिखाने की चाहत में मुालयम नएनए प्रयोग करते ही रहे। उन्हें मुगालता था कि वह किसी हद तक इस राजनीतिक समर में किसी को सामने नहीं ठहरने देंगे, लेकिन बहुरूपिया वोटर ने मुलायम पर ज्यादा विश्वास नहीं किया । बहुरूपिया वोटर खीझा हुआ था। तो मुलायम उत्तर प्रदेश के वोटरों की फितरतको भूल से गए थे।उन्हें याद नहीं रहा कि यूपी का मतदाला मौके बेमौके वह बड़ेबड़े दिग्गजों को धराशायी कर बैठता है। यह खूबी उसमें हमेशा से रही है। वह चाहे रायबरेली में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ही क्यों न रही हों। जिनको राज नारायण जैसे अदने से नेता ने सरलता से पराजित कर दिया था। जिसकी खबर विदेशों में मुख पृष्ठों पर छापी गयी थी, (प्राइम मिनस्टर आफ इंडिया श्रीमती इंदिरागांधी इज डिफीटेड बाई राजनारायण ऐट रायबरेली इन उत्तर प्रदेश स्टेट।’ )

 

बात बदस्तूर जारी है, यूपी का नक्शा ही बेतरतीब राजनीतिक धरती से बना है। हर कोई यहां की कुशल राजनीति का कायल रहता है। मान्यता यह कि यदि किसी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति कर ली तो वह कहीं भी अपना झंडा गाड़ सकता है। आजादी के बाद अनेकों बार उत्तर प्रदेश के नेता ही दिल्ली का तख्त संभाले दिखे तो इसमें आश्चर्य किसी को नहीं हुआ। यहां का तो मुख्यमंत्री भी देश में मिनी प्राइम मिनिस्टर की हैसियत रखने वाला होता है।

उत्तर प्रदेश के बहरूपिया वोटर अपने प्रदेश के ही नहीं बाहरी प्रदेशों के नेताओं को भी काफी लुभाते हैं। यही वजह रही यूपी के बाहर के कई नेताओं ने यहां आकर अपनी किस्मत अजमाई। अटल बिहारी वाजपेई, कर्ण सिंह, राम विलास पासवान,नफीसा अली,संजय दत्त,जयाप्रदा आदि इसमें से चंद शख्सियतें हैं।भाजपा की दिग्गज नेता और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमा अपना तो उत्तर प्रदेश को अपना दूसरा घर ही बताने लगी है।

 

बहरहाल, एक बार फिर 2012 में बहरूपिया वोटरों से विभिन्न राजनैतिक दलों का सामना होना है।बहरूपिया वोटर हवा का रूख किस तरफ मोड़ दे कोई नहीं जानता। बहरूपिया वोटरों की वजह से ही मुलायम चार साल से अधिक सत्ता से दूर रहने के बाद भी वापसी का मोह नहीं छोड़ पाए हैं। कांगे्रस नेता और भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जा रहे राहुल गांधी भी गलतफहमी से निकल नहीं पा रहे हैं। पदयात्राओं, दलितों के घर जाकर उनके हाल चाल पूछने वाली गाथाओं पर पानी फिर रहा है। राहुल के लिए कांग्रेस सरकार की मंहगाई अभिशाप बन गई है। मंहगाई और घोटाले की आवाजें यूपी में सुनाई पड़ने लगी हैं। इन स्थितियों को देखते हुए एक बार यह कहा जा रहा है कि हाशिये पर पड़ी यूपी की कई राजनैतिक पार्टियां ठीक मायावती की किस्मत की तरह बहुरूपिया वोटर की मेहरबानी की ललक में है।

 

Previous articleफोर लेन मामले में मीड़िया की सार्थक पहल का असर
Next articleतीसरा विश्वयुद्ध शुरू – नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी पूर्णता की ओर
संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

2 COMMENTS

  1. ब्राहमणों ने जातिगत अहंकार को छोड़ कर मायावती का साथ दिया ये देश के लिए बहुत शुभ संकेत था,लेकिन क्या अब भी वैसा ही समर्थन है मायावती को??पिछले लोकसभा चुनाव से तो लगता है की ब्रह्मण समाज “निरपेक्ष” होगया है यूपी में.लेकिन कोई बहुत ज्यादा देश को फायदा हुवा एसा नहीं है भाजपा या कोंग्रेस को वोट न देकर दूसरी पार्टियों को दिया गया वोट व्यर्थ जाता है और बाद में इन राष्टीय कहे जाने वाली पार्टियो को ब्लेकमेल करने में कम अत है यधपि इन लोगो को मायावती से कोई बहुत ज्यादा उम्मीदे नहीं थी फिर भी कुछ हद तक इस चीज ने सामाजिक समरसता को बढावा दिया कम से कम मायावती के घ्रिनास्पद नारों व् ब्राहमणों के किसी भी दुसरे व्यक्ति को अपने से हिन् समझने की परवर्ती पर अंकुश तो लगा.

  2. आप काफी फुरसती इंसान हैं समय काटने के लिए ऐसे लेख लिखते रहे, इनसे समाज पर तो कोई फरक पड़ने वाला नहीं है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here