दाल के कटोरे से निकला एक सम्मान

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dalअजीब संयोग रहा कि कल जब सारा देश भारत-पाक क्रिकेट मैच में क्रिकेटरों के चौके-छक्कों पर पागल था तब नई दिल्ली में छत्तीसगढ़ के किसान एक नया इतिहास रच रहे थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशभर में दाल के बम्पर उत्पादन के लिए छत्तीसगढ़ को दो करोड़ रूपये के राष्ट्रीय कृषि कर्मण पुरस्कार से नवाजा है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तथा कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने लगातार चौथी बार यह पुरस्कार अपने नाम करते हुए खुशी और भरोसा जताया कि छत्तीसगढ़ अब दाल का कटोरा के रूप में स्थापित हो चुका है।

जाहिर है बधाई के पहले हकदार हमारे अन्नदाता हैं जिन्होंने वैकल्पिक खेती के भरोसे दलहन का बम्पर उत्पादन किया तथा हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों को पछाड़ते हुए छत्तीसगढ़ को दाल के कटोरे के तौर पर स्थापित कर दिया। राज्य के संवेदनशील मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की दूरदृष्टि और कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की कर्मठता भी इस पुरस्कार के गर्भ में छिपी हुई है। दोनों का तहेदिल से शुक्रिया। गुजरे कुछ महीने छत्तीसगढ़ के अन्नदाता के लिए त्रासदीभरे रहे हैं। बेमौसम बारिश ने उम्मीदों की फसल पर जिस कदर पानी फेरा, उसके चलते किसान अवसाद में थे। कईयों ने आत्महत्या तक कर ली इसलिए बेमौसम बारिश की मार और सूखे से सूख गए किसानों के चेहरों को इन महानुभावों ने गहराई से महसूस किया। संभवत: इसीलिए छत्तीसगढ़ अलग से कृषि बजट पेश करने वाला पहला राज्य बना। हालांकि इसका फायदा किसानों को कितना पहुंचा, इसकी शल्यक्रिया बाद में कभी हो सकती है फिलहाल मौका पीठ थपथपाने का है।

बेईमान मौसम और समय से मिली सीख का असर कह लीजिए कि छत्तीसगढिय़ा किसान ने खुद को उसी अनुरूप ढालते हुए बहुफसलीय खेती की ओर कदम बढ़ाया है। यहां के किसान रबी मौसम में दलहनी फसलों की खेती करते हैं तथा मुख्य रूप से चना, तिवरा (लाखड़ी), मटर, मसूर, मूंग, उड़द, कुल्थी सहित अन्य फसलें ली जाती है। कृषि विभाग के आंकड़ों को सच मानें तो वर्ष 2014-15 में 7 लाख 85 हजार हैक्टेयर रकबे में दलहनी फसलों की खेती की गई जिसमे 6 लाख 55 हजार मैट्रिक टन पैदावार मिली जो वर्ष 2013-14 की तुलना में 39 प्रतिशत अधिक है।

आश्चर्य कि यह बम्पर उत्पादन तब सामने आया है जब राज्य के 10 से ज्यादा जिले अकाल और बेमौसम की मार से जूझ रहे हैं। विभागीय मंत्री होने के नाते कृषि मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल किसानों के सुख-दुख और त्रासदियों को समदृष्टि से महसूस कर रहे थे। गुजरे महीने जब देश का सबसे बड़ा राष्ट्रीय कृषि मेला राजधानी में आयोजित हुआ तो उन्होंने इसकी सार्थकता स्पष्ट करते हुए कहा कि कृषि तकनीक में अभूतपूर्व बदलाव और विकास हुआ है, क्या इसके दर्शन और प्रयोगों से किसानोंं को महरूम रहने दिया जाए? दरअसल कृषि मंत्री ने उसी रास्ते पर निकले जिसकी राह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी डेढ़ सौ साल पहले दिखाई थी जब चंपारण्य में नील की खेती करने वाले किसानों की दुर्दशा को समझते हुए उन्होंने आंदोलन छेड़ा था।

अन्नदाता के भागय को बदलने में बैंक, समाज और सरकार ही बदल सकते हैं इसलिए रमन सरकार ने किसान-हित में भरोसा जगाने वाले अच्छे कदम उठाए जिनमें किसानों को 300 रुपए प्रति क्विंटल की दर से बोनस, लगभग दो हजार चार सौ करोड़़ रूपए बोनस भुगतान, जीरो प्रतिशत ब्याज दर पर कृषि ऋण, मौसम आधारित फसल बीमा योजना, लघु एवं सीमांत कृषकों की ऋण माफी का फैसला, पांच हॉर्स पावर तक के कृषि पंपों के लिए सालाना 7500 यूनिट तक नि:शुल्क बिजली, जैविक खेती मिशन, कामधेनु विश्वविद्यालय की स्थापना इत्यादि भगीरथी फैसले सामने हैं।

धान के कटोरे की अर्थव्यवस्था को आज भी अन्नदाता ही संभाले हुए हैं। वे हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं इसलिए आज के दौर में जब खेती व्यावसायिक रूप ले चुकी है और जो बाजार के लिए कम बल्कि अपनी घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज्यादा की जाती है तब किसानों को भगवान भरोसे तो नहीं छोड़ा जा सकता। वस्तुत: प्रजनन और खेती यही दो तरीके हैं जिनसे एक वस्तु से दूसरी वस्तु वास्तव में पैदा होती है। इसे गति देने के लिए ऐसे रेडिकल परिवर्तन ही किसानों की तकदीर संवारेंगे। किसानों के चेहरे पर खुशहाली देखना है तो उनके सामने विकल्प खड़े करने होंगे। सरकार तो उनकी पालक है ही, इसके अलावा उन्हें बेहतर बाजार और कंपनियां देनी होंगी जो उनकी फसल का वाजिब दाम दे सकें। मौजूदा घटाटोप से बाहर निकलने का यही तो अंतिम रास्ता है। और हां, भगवान का दर्जा क्रिकेटर को नहीं किसान को दीजिए।

अनिल द्विवेदी

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