छलनीगढ़ में बदलता छत्तीसगढ़

अभिषेक तिवारी

साल के आखिरी महीने के पहले दिन की शुरूआत छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने अपने सुनियोजित परंतु कायरतापूर्ण तरीके से सीआरपीएफ के 14 जवानों को मौंत की नींद सुलाकर की। शायद उनका ये 14 जवानों को मारना 2014 को अलविदा कहने का तरीका हो। लेकिन 14 साल के हो चुके इस छत्तीसगढ़ राज्य के प्रतिनिधियों के लिए ये एक चुनौती है, लापरवाही है। जिस तरह से हर साल नक्सली अपनी चाल में सफल होकर इस राज्य को छलनी कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि सरकार को इस राज्य का नाम बदलकर छलनीगढ़ रख देना चाहिए। जिससे कम से कम बाद में वो ये कह सके कि जब नाम ही छलनीगढ़ है तो ऐसी घटनाएं तो होंगी ही। इसमें हम कुछ नहीं कर सकते…।

इस घटना के अगले दिन राज्य के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा का बयान आता है कि नक्सलियों की जड़ कांग्रेसियों द्वारा बोई हुई है जिसे हमारी सरकार काटने में जुटी हुई है। मतलब साफ है कि सैनिकों के शहीद होने पर भी राजनेताओं को राजनीति के अलावा किसी और चीज से मतलब नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले करीब डेढ़ दशक से जिस पार्टी की सत्ता राज्य में कायम है उसके नुमाइंदों को अभी और कितना समय चाहिए स्थितियों को काबू करने के लिए। पिछले 6 सालों की बात करें तो ये साफ पता चलता है कि नक्सलियों ने सैंकड़ों बार सरकार की छाती में गोलियां दागीं हैं। और सरकार है कि तर्क करने में लगी हुई है।

छवि बनाने में समय लगता है लेकिन सिर्फ एक नाकामी आपकी पूरी मेहनत खराब कर सकती है। देश भर में अगर आज आप कहीं जाते हैं तो एक सवाल जो जरूर सामने से आता है वो होता नक्सली गतिविधियों का। लोगों में एक तरह का डर बैठ चुका है हमारे राज्य को लेकर। कितने शर्म की बात है आज तक राज्य सरकार प्रदेश की इस छवि को नहीं बदल पाई है।

किंतु देश के लिए मरने वालों की बात करें तो ये सच है कि संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजय लाभ होता है, जो अवसर को पहचानता है। वह अवसर पर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे भी हट जाता है। यह वीर पुरूष राष्ट्र का निर्माता होता है और पीछे भी हट जाता है। यह वीर पुरूष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।

पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं, जो अवसर पर कदम बढ़ाना जानते हैं, लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते। ये रणवीर पुरूष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं। वे अपनी सेना का नाम मिटा देंगे, परंतु जहां एक बार पहुंच गए हैं, वहां से कदम पीछे न हटाएंगे। उनमें कोई विरला ही संसार क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, किंतु प्राय: उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवात्मक होती है। अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है, तो आन पर जान देने वाला , मुंह न मोड़ने वाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है, और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है। 1 दिसंबर को शहीद वे वीर सपूत भी ऐसे ही योद्धा थे जो समय देखकर पीछे नहीं हटे। अपनी नीतियों से समझौता नहीं किया और नक्सलियों को दिखा दिया कि वीरता और छलपूर्ण कायरता में क्या अंतर है।

लेकिन इन सबके बीच राजनीति की पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। अब शुरू होंगे राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोपों का दौर, सरकार द्वारा घोषणाएं की जाएंगी, विश्वास दिलाया जाएगा, सहानुभूति प्रकट की जाएगी और अंत में भुला दिया जाएगा। आखिर इसी के ही तो योग्य होते हैं हमारे शहीद। और यही तो राजनेताओं का धर्म होता है। अगर वो ये सब नहीं करेंगे तो वोट कैसे मिलेंगे। लेकिन जिस तरह हर काले बादल के किनारे पर चमकीली लकीर होती है उसी तरह देश में मौजूद कुछ उन चुनिंदा लोगों से जनता को ये उम्मीद है कि एक दिन छत्तीसगढ़ की छवि सुंदर जरूर होगी जिसमें नक्सलियों द्वारा उड़ाए गए खून के छींटे नहीं होंगे।

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