अपने ही घर में बेगानी है छत्तीसगढ़ी भाषा

सूर्याकांत देवांगन

भोजपुरी भाषा को संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने की कवायद तेज होने के साथ ही एक बार फिर देश में भाषाई कशमकश उजागर हो गई है। पूर्वी भारत के एक बड़े हिस्से के साथ साथ विश्वो के उन देशों में भी भोजपुरी बोली जाती है, जहां अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के लोगों को गुलाम बनाकर बसाया है। इस आधार पर इसका समर्थन करने वालों की दलील मजबूत नजर आती है। वास्तव में भाषा किसी भी क्षेत्र की पहचान के लिए एक आवष्यक तत्व है। आजादी के बाद इस देश में अधिकतर राज्यों का गठन भाषा के आधार पर ही हुआ है। लेकिन सिर्फ भाषा के नाम पर राज्य बना लेने से ही उसकी पहचान उस वक्त तक अमिट नहीं रह सकती है, जबतक कि उसका प्रचार प्रसार स्थानीय स्तह पर न किया जाए, अन्यथा भाषा केवल पहचान तक ही सीमित रह जाएगी। भारत के नक्शेअ में छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रांत है जिसकी स्थापना एक निश्चित क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा के आधार पर की गई है।एक राज्य के अस्तिव में आने के आठ साल बाद 11 जुलाई 2008 को छत्तीसगढ़ की स्थानीय बोली को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया। लेकिन राज्य के तमाम उपलब्धियों व विकास के एक दशक बाद भी छत्तीसगढ़ की राजभाषा छत्तीसगढ़ी आज अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्ष करती नजर आ रही है। यहां के लोग अपने आप को छत्तीसगढ़ का निवासी तो कहते है, लेकिन यहां की स्थानीय भाषा छत्तीसगढ़ी को अपने दिनचर्या में प्रयोग करने से कहीं दूर नजर आ रहे है।

छत्तीसगढ़ी राजभाषा का मुकाबला यहां के लोगों से ही नहीं है, बल्कि राज्य के अलग-अलग क्षेत्र में बोली जाने वाली दर्जनों स्थानीय बोलियों से भी है। जो छत्तीसगढ़ की राजभाषा को हर पल चुनौती दे रही हैं। राज्य के ऐसे कई दूर-दराज क्षेत्र हैं, जहां विभिन्न जनजातियां निवास करती है। जिनके बीच गोंड़ी, हल्बी, भतरी, कुडूंम जैसे अनेक स्थानीय बोलियों में संवाद होता है और वे भी अपनी प्राचीन परम्पंरागत बोली को कायम रखने के लिए उनका प्रयोग करते है। एक समय छत्तीसगढ़ी बोली का सामराज्य काफी विस्तृत था। लेकिन बदलता वक्त इस बोली को पीछे छोड़ते जा रहा है। आज राज्य का हर व्यक्ति अपने व्यापारिक कार्य व परिवारिक संबधों के बीच छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग करने में अचरज महसूस करता है। अगर हम पूरे छत्तीसगढ़ पर नजर डाले तो हमें पता चलेगा कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ी प्राचीन व सुदूर गांवों तक ही सीमित रह गया है। जिनमें भी अधिकांश क्षेत्र ऐसे है जहां अलग-अलग प्रकार की जनजातीय बोली का प्रयोग किया जाता है। राज्य के अधिकांश छोटे व उभरते शहर के साथ बड़े शहर रायपुर, दुर्ग-भिलाई, बिलासपुर, राजनांदगांव, जगदलपुर जैसी जगहों पर छत्तीसगढ़ी में चार लोगों को बाते करते देखना अब आम बात नहीं रह गया है। साधारण तौर पर भी लोग हमें किसी चाय ठेले या पान की दुकान में कभी छत्तीसगढ़ी में गप्पे-सप्पे लड़ाते दिखा करते थे। परन्तु अब ऐसे लोगों को देखना वर्तमान पीढ़ी के लिए थोड़ी मुश्किल हो गया है।

अगर हम शहरों की बात करे, तो यहां के अधिकांश लोगों को तो छत्तीसगढ़ी भाषा का ज्ञान ही नहीं है। उन्हें इस भाषा में बात करने में परेषानी महसूस होती है। ऐसा ही वाक्या मेरे साथ पिछले दिनों रायपुर शहर में हुआ जब मै एक होटल में गया हुआ था। जहां बैठे कुछ युवा छत्तीसगढ़ी राजभाषा पर चर्चा कर रहे थे। मै उनकी चर्चाओं में शामिल होना चाह रहा था, फिर उनसे दूर बैठना ही उचित समझा। लेकिन बाद में जब मैने उनकी वार्तालाप को समझने लगा तो अचम्भे में पड़ गया। उनकी चर्चाओं में धारणा यह थी कि छत्तीसगढ़ी बोलने वाला व्यक्ति गंवारों की श्रेणी में आता है। उनकी बातों से इस बात का दुख हुआ कि वर्तमान की युवा पीढ़ी किस तरह से राज्य की भाषा से दूर होती जा रही है। यह दौर युवाओं का है और छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश में युवाओं की संख्या ज्यादा है। युवाओं को सृजनात्मक श्रेणी में रखा जाता है। लेकिन आज यही युवा पीढ़ी अपने राज्य की स्थानीय भाषा में संचार करना मतलब अपने मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने जैसी बातें कर रही है। स्थानीय स्तर पर भी राजभाषा को संचार में प्रयोग करना इन्हें पंसद नहीं। हम मानते हैं कि बदलते युग में अन्य भाषाओं को ज्यादा तरजीह दी जा रही है और वह लाजिमी है। क्योंकि हिन्दी, अग्रेंजीं जैसी भाषाएं तो वर्तमान समय की मांग बन गई है। पर क्या इसके लिए अपनी राजभाषा को इस तरह प्रचलन से हटाना सही होगा? यह जवाब तो शायद ही कोई देना पसंद करेगा?

अपनी राजभाषा के प्रति सभी लोगों की धारणाएं दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। सबकी मानसिकता यह है कि स्थानीय भाषा उन्हें कहीं न कहीं समाज में पिछड़ेपन का दर्जा दिलाती है। ऐसा भी नहीं है कि शहरों में रहने वाले लोगों को छत्तीसगढ़ी का ज्ञान नहीं, वे इस भाषा का बखूबी प्रयोग करना जानते है। लेकिन वर्तमान में उनके विचार किस ओर तब्दील हो रहे हैं, यह तो समझ से परे है। इधर परिवार में आजकल सभी लोग अपने बच्चों को शुरू से हिन्दी या अंग्रेजी में बात करने की सलाह देते नजर आ रहे है। शिक्षा जगत की ओर हम देखें तो पूरे छत्तीसगढ़ में अब तक ऐसा कोई विद्यालय नहीं है। जहां छत्तीसगढ़ी भाषा की तालीम दी जाती हो। हालांकि स्कूलों में अध्ययनरत छात्रों को छत्तीसगढ़ी भाषा से जोड़ने के लिए कुछ कोर्स का छत्तीसगढ़ी में संचालन भी किया जा रहा है। अनेक कोशिशों व प्रयत्नों के बावजूद छत्तीसगढ़ी भाषा को अन्य राज्यों के भाषाओं की अपेक्षा अपने राज्य में सम्मान नहीं मिल पाया है। छत्तीसगढ़ की तुलना में अन्य राज्यों को देखें तो वहां के लोग अपनी स्थानीय भाषा को ज्यादा तरजीह देना पंसद करते है। जैसे महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, तमिलनाडु में तमिल और असम में असमिया इत्यादि। इस तुलना में छत्तीसगढ़ी राजभाषा आज भी अपनी पहचान को पाने के लिए भटक रही है।

ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ में राजभाषा के गिरते स्तर को बचाने के लिए राज्य सरकार ने कोई कवायद नहीं की हो। बल्कि समय-समय पर लोकगीत, नाचा, गोष्ठी आदि प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। इसके साथ ही प्रशासनिक क्षेत्र में 14 अगस्त 2008 को छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का गठन व 03 सितंबर 2010 को राजभाषा विधेयक को छत्तीसगढ़ विधानसभा में मंजूरी प्रदान कर राजभाषा को मजबूती प्रदान करने की कोशिश की गई। विगत दिनों छत्तीसगढ़ का प्रशासनिक शब्दकोष भी तैयार किया जा चुका है। जिसमें लगभग 7500 शब्दों का संकलन किया गया है। ताकि राज्य के प्रशासनिक काम-काज छत्तीसगढ़ी भाषा में हो सके। इससे पहले राज्य निर्माण से लेकर आज तक राज्य में किसी भी प्रशासनिक कार्य में छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया गया। बदलते शिक्षा पद्धति ने नई-नई तकनीकों का ज्ञान तो कराया है साथ ही लोगों में उच्च शिक्षा व नई सोच उत्पन्न की है। इससे राज्य के साथ देश के शिक्षा ग्राफ में भी वृद्धि हुई है, लेकिन क्या उच्च शिक्षा व नई तकनीक लोगों को अपनी प्राचीन व परम्परागत विचारधाराओं से जुदा होने का माध्यम बनता जा रहा है? देश व राज्य के लिए यह एक बड़ा सवाल है। अपनी बोली और अपनी जमीन की खूशबू से दूरी का दर्द, उसकी चाह का एहसास उनसे पूछो जो सात समुंदर पार रहते हैं। वो सब कुछ पा लेते हैं, पर बहुत कुछ खो देते हैं। उनकी तो मजबूरी है, लेकिन हैरत की बात तो ये है कि जो अपनी मिट्टी व बोली से जुड़े रहते हैं, वही उसकी कीमत नहीं समझते। अंग्रेजियत के चक्कर में हर कोई अपनी बोली को भूलता जा रहा है। नतीजा रिश्तों में मिठास कम और खटास ज्यादा है। (चरखा फीचर्स)

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