बाल पत्रकारिता : संभावना एवं चुनौतियां

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14 नवम्बर बाल दिवस पर विशेष लेख
bal magazinesमनोज कुमार
बीते 5 सितम्बर 2014, शिक्षक दिवस के दिन जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बच्चों से रूबरू हो रहे थे तब उनके समक्ष देशभर से हजारों की संख्या में जिज्ञासु बच्चे सामने थे। अपनी समझ और कुछ झिझक के साथ सवाल कर रहे थे। इन्हीं हजारों बच्चों में छत्तीसगढ़ दंतेवाड़ा से एक बच्ची ने आदिवासी बहुल इलाके में उच्चशिक्षा उपलब्ध कराने संबंधी सवाल पूछा। यह सवाल उसके अपने और अपने आसपास के बच्चों के हित के लिये हो सकता है लेकिन यह सवाल बताता है कि ऐसे ही बच्चे पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर हैं। एक पत्रकार का दायित्व होता है कि वह समाज के बारे में सोचे और सरकार को अपनी सोच के केन्द्र में खड़ा करे। इस स्कूली छात्रा ने यह कर दिखाया जब उसके सवाल सेे प्रधानमंत्रीजी न केवल संजीदा हुये बल्कि इसे देश का सवाल माना। यह सवाल एक विद्यार्थी का था लेकिन उसके सवाल पूछने का अंदाज और भीतर का आत्मविश्वास बताता है कि यह आग पत्रकारिता के लिये जरूरी है।
वर्तमान समय में हम पत्रकारिता की कितनी ही आलोचना कर लें। कितना ही उसे भला-बुरा कह लें और उसे अपने ध्येय से हटता हुआ साबित करें लेकिन दंतेवाड़ा की छात्रा ने अपने एक सवाल से कई सवालों का जवाब दे दिया है। उच्चशिक्षा की चिंता करते हुये सवाल करने का अर्थ ही है अपने ध्येय पर डटे रहना। इससे भी बड़ी बात है कि सरकार को अपने ध्येय से अवगत कराना और इस दिशा में कार्यवाही करने के लिये बाध्य करना। हम नहीं जानते कि प्रधानमंत्री से सवाल करने वाली यह आदिवासी छात्रा भविष्य में अपने कॅरियर को किस दिशा में ले जायेगी लेकिन इतना तय है कि उसने यह बता दिया कि अभी नहीं सही, लेकिन गर्भ में ऐसे पत्रकार पल रहे हैं जो समाज के हित में कुछ कर गुजरने की ताकत रखते हैं।
पत्रकारिता पर लगते आक्षेप कई बार मन को दुखी कर जाते हैं लेकिन पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर इस बात की आश्वस्ति होते हैं कि आज भले ही कुछ पीड़ादायक हो लेकिन आने वाला कल सुंदर और बेहतर है। मध्यप्रदेश सहित देश के अनेक हिस्सों में पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर अपनी प्रतिभा से समाज को परिचित करा रहे हैं। अभी वे उडऩा सीख रहे हैं। जब वे उड़ान भरने लायक हो जायेंगे तो दुनिया उनके हुनर की कायल हो जायेगी। अलग अलग हिस्सों में, अलग अलग लोगों से चर्चा करने पर यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि पत्रकारिता के ये नये हस्ताक्षर नगरों और महानगरों में तैयार नहीं हो रहे हैं बल्कि ये माटी की सोंधी खुश्बू के साथ गांव में तैयार हो रहे हैं। इन्हें पत्रकारिता की तालीम नहीं दी जाती है बल्कि ये लोग अपने भीतर समाज को बदलने की जो आग जलाये बैठे हैं, वही इनकी पत्रकारिता की तालीम है।
पत्रकारिता के बारे में साफ है कि यह किसी स्कूली महाविद्यालयीन शिक्षा से नहीं आती है बल्कि इसके लिये अनुभव की जरूरत होती है। पत्रकारिता के इन नये हस्ताक्षर के पास अनुभव की थाती नहीं है लेकिन जो जीवन इन्होंने जिया है अथवा जी रहे हैं, वह इनके अनुभव का पहला पाठ है। स्कूल भवन की कमी हो, पानी या सडक़ का अभाव हो, अस्पताल की कमी और गरीबी की मार से इनकी कलम आग उगलने को बेताब रहती है। पत्रकारिता के ये नये हस्ताक्षर जज्बाती हैं। बेहद सच्चे और साफ दिल से इनकी कलम आग उगल रही है।
भविष्य के ये अनचीन्हें नायक भारतीय पत्रकारिता का चेहरा बदल देंगे, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। अभी ये पत्रकारिता की टेक्रालॉजी से बाबस्ता नहीं हुये हैं और न ही इन्हें मीडिया का अर्थ मालूम है। देहात की पत्रकारिता की आत्मा अमर है तो इन्हीं हस्ताक्षरों से। इनकी पत्रकारिता गांव की सरहद तक होती है लेकिन इनके शब्द की गूंज प्रदेश और देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंचती है। अभी पत्रकारिता में जिन नये हस्ताक्षर उदित हो रहे हैं, उन्हें किसी किस्म का प्रशिक्षण नहीं दिया जा रहा है बल्कि उन्हें स्वतंत्रता है कि वे अपने मन की लिखें। जो दिखे, जो महसूस करें और जिस तर्क और तथ्य से वे सहमत हों, वह लिखें। लिखने की यह आजादी उनके भीतर उत्साह पैदा करती है।
समूचे देश में पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर की संख्या वर्तमान में सौ-पचास नहीं बल्कि हजारों की संख्या में है। मध्यप्रदेश में तो आदिवासी विद्यार्थियों ने पत्रकारिता की राह चुनी है और उनमें भी बड़ी संख्या लड़कियों की है। यह सूचना, यह आंकड़ें विश्वास जगाते हैं कि जितनी आलोचना पत्रकारिता की इन दिनों हो रही है, उतने ही गर्व करने वाले दिन आने वाले हैं।
पत्रकारिता की पहली शर्त होती है जिज्ञासा। जो व्यक्ति जितना ज्यादा जिज्ञासु होगा, वह उतने ही सवाल करेगा और जो जितना सवाल करेगा, वह समस्या का समाधान तलाश कर पायेगा। इस पैमाने पर प्रधानमंत्री से सवाल करती दंतेवाड़ा की आदिवासी छात्रा में खरी उतरती है। हालांकि यह छात्रा अकेली नहीं थी। साथ में अनेक विद्यार्थी थे जो प्रधानमंत्री से सवाल कर रहे थे किन्तु इस आदिवासी छात्रा के सवाल पर स्वयं प्रधानमंत्री ने गौर किया, इसलिये यह छात्रा दूसरों से अलग दिखती है।
किसी खबर को तलाश करने, उससे गढऩे और विस्तार देने के लिये पांच तत्व बताये गये हैं। पत्रकारिता के इन नये हस्ताक्षरों को शायद इस बात का ज्ञान न हो लेकिन वे पत्रकारिता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते दिखते हैं। पत्रकारिता में अलग दिखने और करने की एक और शर्त होती है कि आपका होमवर्क कम्पलीट हो अर्थात जिस विषय के बारे में आप जानना चाहते हैं, उसकी आवश्यकता और उसके प्रतिफल से भी आपका अवगत रहना चाहिये। आदिवासी क्षेत्रों में उच्च शिक्षा का सवाल उठाती छात्रा इस बात से वाकिफ थी और किसी भी पूरक सवाल का जवाब उसके पास था। छात्रा का यह सवाल अचानक नहीं था बल्कि उसने होमवर्क किया था। उसे स्वयं को आगे चलकर उच्चशिक्षा की आवश्यकता है और यह आवश्यकता उसकी अकेले की नहीं बल्कि पूरे आदिवासी क्षेत्र की है। इस प्रकार प्राथमिक रूप से वह एक प्रतिनिधि के रूप में खड़ी दिखती है। पत्रकार समाज का प्रतिनिधि होता है। पैरोकार होता है जो समाज में व्याप्त समस्याओं, कुरीतियों और नवाचार के लिये प्रतिबद्ध होता है। सबसे खास बात यह होती है कि उसका यह कार्य निरपेक्ष और स्वार्थविहिन होता है।
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद संभाग में सोहागपुर नाम की तहसील है। सोहागपुर पान के बरेज के लिये ख्यात है। यहां पर वरिष्ठ साहित्यकार डाक्टर गोपालनारायण आवटे रहते हैं। डॉ. आवटे विगत लम्बे समय से बच्चों के साथ काम कर रहे हैं। उनसे बात होती है तो वे अपने साथ काम कर रहे बच्चों को लेकर बेहद उत्साहित होते हैं। वे बताते हैं कि उनके साथ काम कर रहे तीन सौ से भी अधिक संख्या में बाल पत्रकार काम कर रहे हैं जिसमें बच्चियों की संख्या अधिक है। इन बाल पत्रकारों में तो कई ऐसे हैं जो कानूनन वयस्क होने की कगार पर हैं। पत्रकारिता में नये हस्ताक्षर आयें और पूरे उत्साह के साथ वे काम करते रहें, यह कोशिश डा. आप्टे कर रहे हैं। इन बाल पत्रकारों को मंच देेने के लिये वे एक मासिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी करते हैं जिसकी जवाबदारी पत्रकारिता के नये हस्ताक्षरों के कंधे पर है।
डॉ. आप्टे पत्रकारिता के इन नये हस्ताक्षरों के स्कील डेवलप करने के लिये समय समय पर कार्यशाला का आयोजन करते हैं। इस कार्यशाला में पूरे प्रदेश के चिंहित पत्रकार एवं अध्यापक पढ़ाने आते हैं। वे कुछ नामचीन संस्थाओं के साथ भी बाल पत्रकारिता के लिये काम करते रहे हैं लेकिन उनका अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा। डॉ. आप्टे कहते हैं कि मैं बच्चों को पत्रकार बना रहा हूं, मजदूर नहीं। इसलिये किसी के आदेश पर, उनकी मर्जी से वे जहां चाहे, शॉर्ट नोटिस पर पहुंच जाऊं, यह संभव नहीं। उन्होंने इन नामचीन संस्थाओं से स्वयं को अलग कर लिया है।
डा. आप्टे का यह अनुभव इस बात का प्रमाण है कि संभावनाओं से लबरेज पत्रकारिता के इन नये हस्ताक्षरों की यह ताजगी कहीं मुरझा न जाये, इस बात की चिंता भी करनी होगी। भोपाल से दिल्ली तक पत्रकारिता का झंडा उठाये वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ पत्रकारों को पत्रकारिता के इन नये हस्ताक्षरों की चिंता करनी होगी। ये नये हस्ताक्षर अभी पत्रकारिता का ककहरा सीख रहे हैं इसलिये जरूरी है कि आगे भी ये पत्रकारिता करें न कि मीडिया के दलदल में फंस जायें।
एक पत्रकार की दुनिया पूरा समाज होता है जिसकी अपेक्षा और आवाज वह होता है। पत्रकार एक ऐसा मंच होता है जहां आम आदमी अपनी पीड़ा और तकलीफ लेकर बिना किसी औपचारिकता के वह पहुंच जाता है। पीडि़त व्यक्ति को न तो कोई फीस देनी होती है और न मिलने का समय पहले से तय करना होता है। पत्रकार पीडि़त की बात सुनता और समझता है तथा वह उन सबसे से सवाल करने पहुंच जाता है। तथ्य और तर्क के साथ वह खबर की शक्ल में समस्या को समाज के समक्ष रखता है।
पत्रकार के प्रयासों से पीडि़त को राहत मिल जाती है और उसका विश्वास पत्रकारिता पर बढ़ जाता है। पत्रकारिता की यही पूंजी है और पत्रकार का यही सुख कि वह एक व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कराहट देख सका। यह जज्बा आप बाल पत्रकारों में महसूस कर सकते हैं। वे समाज की आवाज उठा रहे हैं। वे पीडि़तों की आवाज बने हुये हैं।
बाल पत्रकारिता की बात करते हैं। पत्रकारिता में नये हस्ताक्षर पर चर्चा करते हैं तो कई किस्म के खतरे डराते हैं कि कहीं ये आवाज खो न जाये। कोई पत्रकार मीडियाकर्मी हो सकता है या हो रहा है, यह सुनकर हैरानी होती है। मीडियाकर्मी शब्द अपशकुन नहीं है लेकिन इससे यह बात भी स्थापित हो जाती है कि वह पत्रकार नहीं है और उसका समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व भी नहीं है। वह एक प्रोफेशनल है जो रोजगार की गरज से मीडिया से संबद्ध है और उसकी चिंता अपने इर्द-गिर्द सिमटी हुई होती है। बाल पत्रकारों के लिये प्रशिक्षण-कार्यशाला एक जरूरत है लेकिन कई बार लगता है कि यह प्रशिक्षण-कार्यशाला उन्हें मशीनी बना देगा। पत्रकारिता सही अर्थों में मन के भीतर बदलाव की एक आग है। इस आग को आप न तो जला सकते हैं और न बुझा सकते हैं इसलिये कहा गया है कि आप पत्रकार को तराश तो सकते हैं लेकिन पत्रकार स्वयं से बनता है, उसे बनाया नहीं जा सकता है। गांव और कस्बों की धूल से सने ये पत्रकार जब भोपाल और दिल्ली की सडक़ों पर चलेंगे तो कुछ गुमनाम हो जायेंगे तो कुछ मीडियाकर्मी भी बन जायेंगे। जिस जनसरोकार की पत्रकारिता वे करते रहे हैं, अब वे मीडिया की आवाज बन जायेंगे जिनके पास हर वक्त निर्देश होगा कि यह लिखो या नहीं लिखो, यह दिखाओ या यह नहीं दिखाओ। अर्थात समझौता महानगरीय पत्रकारिता जिसे हम मीडिया कहते हैं, पहला सबक होगा। पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर को पत्रकारिता की मुख्य धारा में लाना आवश्यक है लेकिन इससे भी बड़ी आवश्यकता इन प्रतिभाओं को बचाकर रखने की है। इन प्रतिभाओं को बचाने की जवाबदारी महानगरीय पत्रकारिता के महापुरूषों को ही पहल करनी होगी। यह बात सुखद है कि चुनौतियों और संघर्ष के बीच भी पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर आ रहे हंै जो इस बात का प्रमाण है कि पत्रकारिता की आत्मा गांव और कस्बों में आज भी जीवित है।
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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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