झूठ और सच की तराजू पर चीन और मार्क्सवाद

मार्क्सवाद का लक्ष्य है सत्य का उद्धाटन करना। सत्य को छिपाना अथवा यथार्थ के बारे में झूठ बोलना अथवा यथार्थ को मेनीपुलेट करना अथवा मीठी चासनी में लपेटकर पेश करना मार्क्सवाद नहीं है। छद्म के आवरण से यथार्थ को बाहर लाना प्रत्येक मार्क्सवादी का लक्ष्य है। यथार्थ और सत्य को छिपाना मार्क्सवाद नहीं है। चीन को लेकर हमारे देश में यही चल रहा है। कुछ नेता हैं और कुछ पत्र-पत्रिकाएं हैं जो चीन के सत्य पर पर्दा डालने में लगे हैं। ये ही लोग हैं जो कल तक सोवियत संघ के सत्य पर पर्दादारी कर रहे थे। बाद में जब सोवियत संघ बिखर गया तो बहुत सुंदर व्याख्याएं लेकर चले आए। वे कभी नहीं मानते थे कि सोवियत संघ में कुछ गलत हो रहा था। किंतु जब सोवियत संघ बिखर गया तो कहने लगे फलां-फलां चीज गलत हो रही थी। चीन के सत्य की खोज और नए परिवर्तनों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के की जरुरत है। मैं कभी चीन नहीं गया। चीन को मैंने किताबों से ही जाना और समझा है। इतना जरूर हुआ है कि जो बातें लिखी हैं उनमें से अधिकांश बातों की पुष्टि मैंने उन लोगों से की है जो चीन घूमकर आए हैं।

किसी व्यवस्था और विचार पर भावुक प्रतिक्रिया मदद नहीं करती। चीन को लेकर वामपंथी दोस्त सच बोलने से क्यों कतराते हैं। चीन जाते हैं तो चीन के विवरण और ब्यौरे क्यों नहीं देते। ऐसे ब्यौरे पेश क्यों नहीं करते जिनके जरिए चीन को आलोचनात्मक नजरिए से देख सकें।

चीन को अनालोचनात्मक नजरिए से देखने की आदत असल में पुरानी साम्यवादी प्रतिबद्धता की अंधभक्ति से गर्भ से पैदा हुई है। साम्यवादी प्रतिबद्धता अच्छी बात है। किंतु साम्यवादी भक्ति अच्छी चीज नहीं है। मार्क्सवादी होना अच्छी बात है किंतु कठमुल्ला मार्क्सवादी और अंध मार्क्सवादी होना बुरी बात है। असल में भक्ति और अंधी प्रतिबद्धता का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं है।

दूसरी बात यह है कि मार्क्सवाद का विकास सर्वसत्तावादी शासन व्यवस्था के दौरान नहीं हुआ था। मार्क्स-एंगेल्स आदि का लेखन लोकतंत्र के वातावरण और अभिव्यक्ति की आजादी के माहौल की देन है। समाजवादी व्यवस्था के लोकतंत्रविहीन वातावरण की देन नहीं है। अत: मार्क्सवाद पर कोई भी सार्थक चर्चा लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी को अस्वीकार करके संभव नहीं है।

किसी भी चीज, घटना, फिनोमिना आदि को मार्क्सवादी नजरिए से देखने के लिए लोकतंत्र के बुनियादी आधार पर खड़े होकर ही परख की जा सकती है। मार्क्स-एंगेल्स के आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में लोकतांत्रिक वातावरण की निर्णायक भूमिका थी। यदि मार्क्स-एंगेल्स कहीं किसी समाजवादी मुल्क में पैदा हुए होते तो संभवत: मार्क्स कभी मार्क्स नहीं बन पाते। मार्क्स का मार्क्स बनना और फिर मार्क्सवाद का विज्ञान के रूप में जन्म लोकतांत्रिक वातावरण की देन है। जितने भी नए प्रयोग अथवा धारणाएं मार्क्सवाद के नाम पर प्रचलन में हैं उनके श्रेष्ठतम विचारक लोकतांत्रिक परिवेश में ही पैदा हुए थे। अथवा यों कहें कि गैर-समाजवादी वातावरण में ही पैदा हुए थे। ग्राम्शी, बाल्टर बेंजामिन, एडोर्नो, अल्थूजर, ब्रेख्त आदि सभी गैर समाजवादी वातावरण की देन हैं। इनके बिना आज कोई भी विमर्श आगे नहीं जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि मार्क्सवाद के विकास के लिए सबसे उर्वर माहौल लोकतंत्र में मिलता है। समाजवादी वातावरण मार्क्सवाद के लिए बंजर वातावरण देता है। मार्क्‍सवादी के लिए खुली हवा और खुला माहौल बेहद जरूरी है। इसके बिना मार्क्‍सवाद गैर रचनात्मक हो जाता है। खुलेपन का आलोचनात्मक विवेक पैदा करने में केन्द्रीय योगदान होता है। मार्क्सवाद सही रास्ते पर है या गलत रास्ते पर है, इसका पैमाना है लोकतंत्र और लोकतांत्रिक वातावरण के प्रति उसका रवैय्या।

दूसरी बात यह कि हमें भारत में लोकतंत्र अच्छा लगता है, अभिव्यक्ति की आजादी अच्छी लगती है। मानवाधिकार अच्छे लगते हैं। किंतु समाजवादी देश का प्रसंग आते ही हमें ये चीजें अच्छी क्यों नहीं लगतीं? अथवा यह भी कह सकते हैं कि भारत में जहां कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में रहती है वहां लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मान्यताओं और मानवाधिकार रक्षा के सवालों पर उसका वही रूख क्यों नहीं होता जो गैर कम्युनिस्ट शासित राज्यों में होता है। क्या कम्युनिस्ट पार्टी का शासन आ जाने के बाद लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकारों की हिमायत आदि अप्रासंगिक हो जाते हैं अथवा कम्युनिस्ट इन्हें अप्रासंगिक बना देते है? चीन का अनुभव इस मामले में हमें अनेक नयी शिक्षा देता है।

चीन के अनुभव की पहली शिक्षा है पूंजीवाद अभी भी प्रासंगिक है। ग्लोबलाईजेशन सकारात्मक और नकारात्मक दोनों एक ही साथ है। चीन का अनुभव उत्पादन के मामले में सकारात्मक है संपत्ति के केन्द्रीकरण के केन्द्रीकरण को रोकने के मामले में नकारात्मक है। एक पार्टी तंत्र के मामले में चीन का अनुभव नकारात्मक है। विकास के मामले में चीन का अनुभव सकारात्मक है। इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के मामले में चीन की सकारात्मक भूमिका है। समानता बनाए रखने के मामले में नकारात्मक भूमिका रही है।

सामाजिक सुरक्षा के मामले में नकारात्मक योगदान रहा है और विकास के नए अवसरों के मामले में सकारात्मक भूमिका है। कम्युनिस्ट नेताओं की जनता के प्रति सक्रियता और वफादारी प्रशंसनीय है, लोकतंत्र के संदर्भ में नकारात्मक भूमिका रही है।

चीन के कम्युनिस्टों की देशभक्ति प्रशंसनीय है किंतु मानवाधिकारों के प्रति नकारात्मक रवैयये को सही नहीं ठहराया जा सकता। चीन के कम्युनिस्टों का धर्मनिरपेक्षता और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति आग्रह प्रशंसनपीय है किंतु परंपरा और विरासत के प्रति विध्वंसक नजरिया स्वीकार नहीं किया जा सकता। चीन के कम्युनिस्टों की मुश्किल है कि वे एक ही साथ एक चीज गलत और एक चीज सही कर रहे होते हैं।

चीन में समाजवादी व्यवस्था नहीं है। चीन ने समाजवादी व्यवस्था और मार्क्सवाद का मार्ग उसी दिन त्याग दिया जिस दिन देंग जियाओ पिंग ने 1978 में घोषणा की थी कि चीन के विकास के लिए पूंजीवाद प्रासंगिक है।सामयिक दौर में पूंजीवाद के लिए इतना बड़ा प्रमाणपत्र किसी ने नहीं दिया। इसके बाद चीन का विकास पूंजीवाद के अनुसार हो रहा है। चीन की सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी खुलेआम पूंजीवादी मार्ग का अनुसरण कर रही है इसके बावजूद चीन के भक्त उसे समाजवादी देश कह रहे हैं।

भक्ति में आलोचना का अभाव होता है। जो बात भक्ति में कही जाती है वह सच नहीं होती। उसमें आलोचनात्मक विवेक नहीं होता। देंग इस अर्थ में बड़े कम्युनिस्ट विचारक नेता हैं कि उन्होंने सामयिक विकास के मार्ग को खुले दिल से स्वीकार किया। परवर्ती पूंजीवाद के मर्म को पहचाना और उसकी सही नब्ज पकड़ी।

चीन का समाजवाद के रास्ते से पूंजीवाद के मार्ग पर आना बेहद मुश्किल और जोखिमभरा काम था। सोवियत संघ इस चक्कर में टूट गया। अन्य समाजवादी देश भी कमोबेश तबाह हो गए। चीन की उपलब्धि है कि चीन टूटा नहीं। चीन ने तेजी से पूंजीवाद का अपने यहां विकास किया और सामाजिक संरचनाओं का रूपान्तरण किया। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और कष्टकारी रही है।

चीन ने जब पूंजीवाद का रास्ता अख्तियार किया तो उस समय पूंजीवाद भूमंडलीकरण की दिशा में कदम उठा चुका था। चीन ने पूंजीवाद का अनुकरण नहीं किया बल्कि असामान्य परवर्ती पूंजीवाद के सबसे जटिल फिनोमिना भूमंडलीकृत पूंजीवाद का अनुकरण किया। भूमंडलीकृत पूंजीवाद तुलनात्मक तौर पर ज्यादा जोखिम भरा है। ज्यादा पारदर्शी है। स्वभाव से सर्वसत्तावादी और जनविरोधी है। अमरीकी इसके चक्कर में प्रथम कोटि के देश से खिसकर तीसरी दुनिया के देशों की केटेगरी में आ चुका है। अमरीका में आज वे सारे फिनोमिना नजर आते हैं जो अभी तक सिर्फ तीसरी दुनिया के देशों की विशेषता थे।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

7 COMMENTS

  1. यह लेख अन्तेर्द्वंद और विरोधाभासों को समझने में मदद करता है और भारत में इस सम्बन्ध इमं जो स्वांग है उन्हें भी इस्पस्त करता है. क दी

  2. मेरा मत है कि ” पुरी दुनिया में मार्क्सवाद का विशुद्ध रूप अंतिम साँसे ले रहा है ! अगर कहीं मार्क्सवाद कि बात हो रही है तो सिर्फ बातें ही हो रहीं है !

  3. एक साहसिक अभियान आपने शुरू किया है ।मैं पहली बार बौद्धिक वयस्कता प्राप्त करने के बाद किसी वाम विचारक पर रीझा हूं ।
    विजय

  4. “मार्क्सवाद का लक्ष्य है सत्य का उद्धाटन करना”
    यही लक्ष्य था हमारी परंपरा का सत्य का साक्षात्कार करना
    लेकिन तथाकथित मार्क्स/माओ वादी गोली बंदूक से दूसरों को मुक्ति दिला रहे हैं

  5. आप फरमाते हैं..”यथार्थ और सत्य को छिपाना मार्क्सवाद नहीं है। ” बहुत बढ़िया मजाक है!.
    क्या नंदीग्राम और सिंगुर मार्क्सवाद है? क्या केरल में kamyunist aatank मार्क्सवाद है. क्या aalochnaa ko daman se dabaanaa मार्क्सवाद है?

  6. हमारे वाम पंथी भाइयों को साम्यवादी प्रतिबधता के चश्मे को उतार कर अंधभक्ति को छोड़ कर ही वे सही मायने में समालोचनात्मक नजरिये द्वारा ही मार्क्सवाद का भला हो सकता है. सुन्दर आलेख के लिए बधाई.

  7. जब समाज में सांप सूघने की सी स्थिति हो,और हर कोई लाचार दिखता हो, ऐसी बेबाक टिप्पणी वही दे सकता जिसे समाज के उत्थान में गहरी रुचि हो. साधुवाद.

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