इस समय पूरा विश्व चीन के द्वारा भारत के प्रति बदलते नज़रिये कों देखकर आश्चर्य चकित हैं |अगस्त में ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन से लेकर हाल ही में संपन्न अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे तक ,हर मोड़ पर चीन भारत का विरोध करता आ रहा हैं |अब जब भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज चीन के विदेश दौरे पर गई थी तो पूरी दुनिया की निगाहें इस दौरे पर थी | इसके कारण भी साफ थे क्योंकि कुछ ही दिनों पहले जब ओबामा भारत के दौरे पर थे तो चीन में सरकार के साथ – साथ चीनी मीडिया भी इस यात्रा को भारत के लिये खतरनाक बता रहा था | हद तो तब हो गई जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख रहिल शरीफ की चीनी यात्रा के दौरान चीन पाकिस्तान को अपना सबसे अच्छा मित्र राष्ट्र बताया और पाकिस्तान के साथ सैन्य समझौता किया | इस घटना को घटित हुए अभी कुछ ही दिन बिता था कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज चीन की यात्रा पर बीजिंग जा पहुची | इस यात्रा पर भारत सहित पुरे विश्व की नजर थी लेकिन जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने प्रोटोकॉल को ताक पर रखकर भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात किया तो हर कोई अचम्भित रह गया | इससे भी बड़ा कदम चीन ने कैलाश मानसरोवर यात्रा का सिक्किम से नया रास्ता चालू करने पर सहमति के रूप में उठाया , निश्चित ही यह कदम भारत व चीन के बीच बेहतर सम्बन्ध बनाने में कारगर साबित होगा | चीन के इस रुख के पीछे का कारण आने वाला समय ही बयां करेगा लेकिन चीन के इस बदलते नज़रिये से हर कोई अचम्भित हैं |
चीन के इस बदलते बोल के पीछे कई कारण है | इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा तो ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में ही लिख दी गई थी | जब ब्रिक्स संगठन के सदस्य देशों के द्वारा न्यू डेवलपमेंट बैंक की रूप – रेखा तैयार की जा रही थी तो चीन इस बैंक में अपना शत प्रतिशत हिस्सेदारी चाहता था लेकिन भारत के साथ – साथ सदस्य देशों के विरोध के कारण चीन को अपनी मांग वापस लेनी पड़ी | इस घटना को बीते कुछ ही दिन हुआ था कि अगस्त में भारतीय विदेश मंत्री की वियतनाम यात्रा ने इसमे चार चाँद लगा दिया | इस यात्रा के दौरान वैसे तो कई समझौते हुए लेकिन दो ऐसे समझौते हुए ,जिससे चीन के कान खड़े हो गए |पहला समझौता भारत व वियतनाम के बीच सैन्य उपकरण को लेकर हुआ लेकिन असली अहम समझौता दूसरा था | इस समझौते के अनुसार वियतनाम भारत को अरब सागर में सैन्य बेड़ा रखने का इजाजत दे दिया | यह समझौता सामरिक दृष्टि से काफी अहम था क्योंकि इसके बाद भारतीय नव सेना की उपस्थिति अरब सागर में भी हों गई जो चीन के लिये एक चिंता का सबब हैं |
इन सबके बावजूद भारत – चीन सम्बन्ध की असली बानगी पिछले वर्ष सितम्बर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा पर देखने को मिला | जब इस यात्रा की शुरुआत हुई तो चीन से भारत के लोगो की उम्मीदें आर्थिक सम्बन्ध को और प्रगाढ़ करने के साथ – साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति व इसका संतोषजनक समाधान था |इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने दोनों देशों के रिश्तों में बौद्ध प्रतीकों का स्मरण कराया तों वही जिनपिंग व मोदी साथ – साथ साबरमती आश्रम में भी कुछ वक्त बिताये लेकिन एक सवाल भारतीयों के मन में यात्रा के बाद भी दौड़ता रहा | वह सवाल था कि क्या इस यात्रा के दौरान वास्तव में बुद्ध और गाँधी की कोई छाप कही दिखी ?इसका कारण भी साफ था क्योंकि एक तरफ दिल्ली में दोनों देशों के बीच जमीन से अंतरीक्ष तक 12 समझौते हो रहे थे तो वही भारत के चमूरा सेक्टर में चीनी सेना लगातार घुसपैठ करने की कोशिश कर रही रही थी |इस यात्रा के दौरान भारत व चीन के बीच कई मुद्दों पर सहमति नहीं बनी , जिसमे सबसे प्रमुख मुद्दा चीन के द्वारा प्रस्तावित “दक्षिण सिल्क रोड” था | इन सबके बावजूद भी चीन भारत में 1200 अरब रुपयें निवेश करने के लिये राजी हो गया | इस कदम कों निवेश की कुटनीति कहा गया |
इस घटना के बाद भारत ने भी अपनें विदेशनीति में बदलाव किया और इस बार भारत ने चीन के धुर विरोधी जापान को चुना |मोदी की जापान यात्रा के दौरान मोदी के द्वारा दिया गया वक्तव्य –“विस्तारवाद नहीं विकासवाद से बनेगी 21वीं सदी” ,भारत के नज़रिये से चीन को वाकिफ़ कराने के लिये काफी था |यह दौर यही नहीं थमा ,मोदी का फिजी दौरा इस क्षेत्र में मिल का पत्थर साबित हुआ | 1981 ई० के बाद पहला ऐसा मौका था जब कोई भारतीय प्रधानमंत्री नें फिजी का दौरा किया |यह दौरा कई मायनों में अहम था क्योंकि एक तरफ 1975 में फिजी व चीन के बीच समझौता हुआ था जिसके तहत फिजी चीन का उपनिवेशिक राष्ट्र बनकर रह गया तो दूसरी तरफ फिजी की कुल जनसंख्या का 40 फीसदी लोग भारतीय हैं |इन सबको ध्यान में रखकर भारतीय प्रधानमंत्री के द्वारा फिजी कों चीनी उद्धोग को बढ़ावा देने के लिये 7 करोड़ डालर ऋण के रूप में दिया जाना , भारत की कुटनीतिक सफलता को दर्शाता हैं | इसके बाद नेपाल में हुए सार्क सम्मेलन में भी चीन के खास मित्र पाकिस्तान को मुह की खानी पड़ी | पाकिस्तान इस सम्मेलन में दो मुद्दों को प्रमुखता से उठाया , पहला मुद्दा था चीन को सार्क समूह में शामिल करना तो दूसरा मुद्दा आतंकवाद के खिलाफ भारत कों अलग थलग करना था | इस सम्मेलन में भारत को ऐसी कुटनीतिक सफलता मिली कि पाक प्रधानमंत्री को सम्मेलन के बीच में ही छोड़ वतन वापस लौटना पड़ा | अगर चीन के बदलते रुख के लिये इन सभी कारणों को जिम्मेदार माना जाय तो कोई अतिस्योक्ति नहीं होंगी |
प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा दिये गए वक्तव्यों पर ध्यान दिया जाय तो यह साफ हैं कि चीन के बाबत उनके वक्तव्यों में निरंतरता नहीं रही हैं | फिर , सवाल है कि क्या चीन भी भारत कों वैसी ही प्राथमिकता देता हैं जैसा भारत ? चीन सीमा विवाद को इतिहास की देन कह कर टाल देता हैं | इसी तरह तिब्बत से निकलने वाली नदियों को लेकर उसका रवैया बेहद चिंताजनक रहा है | सिर्फ कैलाश मानसरोवर के लिए एक और रास्ता खुलने से यें चिंताएं कम नहीं हो सकती क्योंकि 1954 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व चीनी राष्ट्रपति चो एनलाई के बीच हुआ पंचशील समझौता आज भी भारतीय भूले नहीं हैं | भारतीयों को यह चिंता आज भी सता रही है कि यह दोस्ती “हिन्दी – चीनी ,भाई –भाई भाग -2” बन कर न रह जाय |खैर जो भी हो आने वाला कल ही बताएगा कि चीन के बदलते बोल के पीछे कारण क्या हैं ?
नीतेश राय