चीन की चाटुकारिता राजनैतिक भूल: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

भारत ने अभी हाल ही में 1962 में हुये भारत चीन युद्ध की 50 वीं वर्षगांठ पर विशेष स्मृति दिवस मनाया । वास्तव में ये सरकार का एक प्रशंसनीय और स्वागत योग्य कदम है जिसके प्रति किसी को भी कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये । इस अवसर पर विदेश मंत्री सहित सेनाध्यक्षों ने कई बार आज के सैन्य परिप्रेक्ष्यों पर चर्चा की । जिसकी सार यही था कि भारतीय सेनाएं आज किसी भी देश के हमले का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है । क्या उस समय देश की सेनाएं अक्षम थीं जो भारत को करारी पराजय का सामना करना पड़ा ? आज हमारे पास ऐसे कौन से संसाधन आ गये जो हम चीन को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हो गये हैं ?ं वास्तव में इतिहास का कोई भी युद्ध उठा कर देख लें युद्ध में संसाधनों से ज्यादा इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है । भारत की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए तो कहीं से भी नहीं लगता कि इस सरकार के किसी भी नेता में ऐसी इच्छाशक्ति है । अगर होती तो शायद हम ये वर्षगांठ तटस्थ स्थानों की बजाय ठीक उसी स्थान पर मनाते जहां ये युद्ध हुआ था । ऐसी परिस्थितियों में ये कदम भारत चीन युद्ध के शहीद जवानों के लिये सच्ची श्रद्धांजली होती । अगर हम ये नहीं कर सके तो फिर शब्दों की लफ्फाजी से क्या फायदा । अफसोस कि बात है कि हमारे राजनेताओं ने इस युद्ध के बाद अपने छिने हुए भूभाग को वापस पाने की कोई कार्रवाई नहीं की । संबंध चाहे किसी प्रकार के हों इनके निर्वाह में दोनों तरफ से सहयोग की आवश्यकता होती है । अगर कोई एक पक्ष नुकसान सहते हुये संबंध बहाली की इच्छा रखता है तो ये निरी मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः भारतीय राजनीति प्रारंभ से ही इसी व्यामोह का शिकार रही है । इसी के फलस्वरूप अक्साई चीन समेत भारत के 72 हजार वर्ग किमी भूभाग पर कब्जे के बाद चीन अरूणाचल पर भी अपना अपना अधिकार जताकर भारत की समस्याओं में इजाफा करता ही रहा है । चीन का ये रवैया क्या दर्शाता है? स्पष्ट है कि विस्तारवाद की नीतियों में भरोसा रखने वाला चीन कम से भारत से किसी भी प्रकार के मैत्री संबंध का इच्छुक नहीं है । ऐसे में चीन के सम्मुख भारत का बिना शर्त समर्पण क्या दर्शाता है?

वर्तमान की हर समस्या का सूत्र हमारे अतीत में छुपा रहता है । इसी प्रकार भारत चीन की वर्तमान समस्या को समझने के लिये हमें अतीत को जानना होगा। चीन 1949में कम्यूनिस्ट शासित देश के रूप में अस्तित्व में आया उस दौर में चीन को मान्यता देने वाला पहला देश था भारत । ऐसे में चीन का ये कदम भारत के प्रति ये कृतघ्नता के अलावा क्या कुछ और है ? उस समय पं नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे । पं नेहरू की विदेश नीति रूस से प्रभावित थी और चीन रूस के शिष्य के तौर पर वैश्विक पटल पर उभरा । ऐसे में चीन के प्रति नेहरू जी के अंधे प्रेम को आसानी से समझा जा सकता है । इसी प्रेम का परिणाम था हिंदी चीनी भाई भाई का नारा । एक ओर नेहरू भारत चीन मैत्री का दम भर रहे थे तो दूसरी ओर चीन भारत पर हमले की कुत्सित योजना बनाने में व्यस्त था । चीन के प्रति नेहरू के प्रेम को एक दूसरे नजरीये से देखें । चीन 1949 में जब कम्यूनिस्ट देश बना तो अमेरिका ने उसे यूनाइटेड नेशंस की सदस्यता से निष्काषित कर दिया । इसके तुरंत बाद अमेरिका ने भारत को वीटो पावर के साथ यूएन में शामिल होने का न्यौता दिया । इस न्यौते को पं नेहरू ने ये कहकर ठुकरा दिया कि ये स्थान हमारे मित्र देश चीन का है । उनके इस भयावह फैसले का दुष्परिणाम आज आजादी के 65 वर्षों बाद भी भुगतना पड़ रहा है । जिस चीन निष्काशन के विरोध में नेहरू जी ने यूएन में शामिल होने से इनकार कर दिया था वो ही चीन आज भी बेशर्मी से इस वीटो पावर का उपयोग भारत के विरोध में करता है । ये तो सिर्फ एक ही भूल है उनकी दूसरी भूल थी वी के कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाना । मेनन साहब कोई बड़े जनाधार वाले नेता नहीं थे उन्हे ये पद नेहरू जी के प्रति वफादरी के लिये दिया गया था ।अतः उन्होने कभी भी पद के साथ न्याय नहीं किया । वे हमेशा विदेश भ्रमण में व्यस्त रहे । अर्थात मंत्री रहते हुये उन्होने राजकीय संसाधनों पर अपने सारे शौक पूरे किये । अब जिस व्यक्ति का समय विदेशों के दौरे पर ज्यादा गुजरे तो उसे देश की समस्याएं कब समझ आती ।आंखों पर साम्यवाद का चश्मा चढ़ाये कृष्णा ने 1960 के लोकसभा सत्र में सीमा से सेना हटाने,सैन्य कारखाने बंद करने और सैन्य बजट में कटौती का तुगलकी फरमान जारी कर दिया । अपने इस फैसले की जो वजह उन्होने बतायी वो भी हास्यास्पद थी । उन्होने कहा कि अब चीन और पाकिस्तान हमारे मित्र हैं तो ऐसे में हमें सेना कि क्या आवश्यकता है ? उनके इस तुगलकी फैसले से चीन की बांछे छिल गई और उसने 19़62 में भारत पर हमला कर दिया । ध्यान देने वाली बात है कि रक्षा मंत्री के दिवास्वप्न के कारण भारतीय सेनाएं इस हमले के लिये तैयार नहीं थी । अंजाम युद्ध में भारत की करारी पराजय के रूप में हमारे सामने है ।

वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों के आधार पर देखें तो हमारी रक्षा नीति चीन के सम्मुख नतमस्तक है । इसी का फायदा उठाकर चीन रोजाना सीमाआंे का अतिक्रमण करता है और अरूणाचल पर दावा ठोकता है । इस युद्ध के बाद भारत ने सामरिक मोर्चे पर भले की कोई उल्लेखनीय उन्नति नहीं लेकिन चीन ने भारत के चारों ओर किलेबंदी कर ली है । पूर्व में अरूणाचल प्रदेश तो पश्चिम में जम्मू काश्मीर तक 4000 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर रोजाना चीन की सैन्य गतिविधियां बढ़ती ही जा रही हैं ।चीन का ये कुत्सित अतिक्रमण सिर्फ थल सीमाओं तक नहीं वरन जल सीमाओं में भी जारी है । फिर बात चाहे हिंद महासागर के तटवर्ती देशों में चीन द्वारा नौसैनिक अड्डों के निर्माण की हो अथवा दक्षिणी चीन सागर में भारत के विरोध की । चीन के इस क्रियाकलाप से एक बात साफ हो जाती है वो भारत को स्थल और दोनों सीमाओं में चारों ओर से घेरने की कोशिश में लगा है । इस बात को पुराने संदर्भों से जोड़कर अगर देखें तो यही लगता है कि शायद भारत एक और युद्ध के मुहाने पर खड़ा है । अगर वास्तव में हम चीन से बेहतर संबंधों के इच्छुक तो हमें स्वयं अपना सम्मान करना भी सीखना होगा । हमारा वो सम्मान कैलाश मानसरोवर के रूप में आज भी चीन के पास गिरवी पड़ा है । स्मरण है कि 1962 की हार भी भारतीय सेना की हार नहीं वरन भारतीय राजनीति की हार थी । अतः चीन में होने वाले बड़े राजीनीतिक परिवर्तनों को देखते हुये ये वक्त वास्तव में चीन की चाटूकारिता करने के बजाय बड़े फैसले लेने का है ।

3 COMMENTS

  1. कूट नीति सिद्धांत:
    किसी भी देश की अंतर राष्ट्रीय कूट नीति केवल “स्वदेश हित” को ही लक्ष्य में रखकर रची जाती है.
    कोई एक कूटनीति की पाठ्य पुस्तक खोजकर बताइए, जिसमें इससे विपरीत बात लिखी गयी हो.
    क्यों हमने अपने देश का एक बड़ा भाग गंवाया ?
    हम क्या मूर्ख थे?
    “तू हमसे प्यार करो न करो पर हम तो तुम पर मरते हैं” — की नीति के कारण –हम, पाकिस्तान, बंगलादेश, ४०,००० वर्ग मिल भूमि -चीन को दे बैठे?
    अब कश्मीर जाने की बारी है.

    • सही कहा आपने …. इस हालात में अब भाजपा से भी उम्मीदे नहीं हैं. देश एक नए नेतृत्व की बात जोह रहा है .आशा है राष्ट्रवाद का नवविहान होगा .

  2. अमेरिका ने भारत को वीटो पावर के साथ यूएन में शामिल होने का न्यौता दिया । इस न्यौते को पं नेहरू ने ये कहकर ठुकरा दिया कि ये स्थान हमारे मित्र देश चीन का है । उनके इस भयावह फैसले का दुष्परिणाम आज आजादी के 65 वर्षों बाद भी भुगतना पड़ रहा है । जिस चीन निष्काशन के विरोध में नेहरू जी ने यूएन में शामिल होने से इनकार कर दिया था वो ही चीन आज भी बेशर्मी से इस वीटो पावर का उपयोग भारत के विरोध में करता है । ये तो सिर्फ एक ही भूल है उनकी दूसरी भूल थी वी के कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाना । मेनन साहब कोई बड़े जनाधार वाले नेता नहीं थे उन्हे ये पद नेहरू जी के प्रति वफादरी के लिये दिया गया था ।अतः उन्होने कभी भी पद के साथ न्याय नहीं किया । वे हमेशा विदेश भ्रमण में व्यस्त रहे । अर्थात मंत्री रहते हुये उन्होने राजकीय संसाधनों पर अपने सारे शौक पूरे किये । अब जिस व्यक्ति का समय विदेशों के दौरे पर ज्यादा गुजरे तो उसे देश की समस्याएं कब समझ आती ।आंखों पर साम्यवाद का चश्मा चढ़ाये कृष्णा ने 1960 के लोकसभा सत्र में सीमा से सेना हटाने,सैन्य कारखाने बंद करने और सैन्य बजट में कटौती कातुगलकी फरमान जारी कर दिया । अपने इस फैसले की जो वजह उन्होने बतायी वो भी हास्यास्पद थी । उन्होने कहा कि अब चीन और पाकिस्तान हमारे मित्र हैं तो ऐसे में हमें सेना कि क्या आवश्यकता है ? उनके इस तुगलकी फैसले से चीन की बांछे छिल गई और उसने 19़62 में भारत पर हमला कर दिया । ध्यान देने वाली बात है कि रक्षा मंत्री के दिवास्वप्न के कारण भारतीय सेनाएं इस हमले के लिये तैयार नहीं थी । अंजाम युद्ध में भारत की करारी पराजय के रूप में हमारे सामने है ।

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