चीन की चालाकियों से कैसे निबटा जाए…

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श्रीराम तिवारी

मुझे मालूम है कि मेरे इन विचारों को शेख चिल्ली के सपनों की तरह ख़ारिज कर दिया जायेगा. वाम बुद्धिजीवी तो संज्ञान ही नहीं लेंगे और देश के दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी तो यह सोचकर रात को जल्दी सोते हैं कि सुबह पौ फटने से पहले, हरिनाम स्मरण से पहले धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं और खास तौर से मार्क्सवादियों को एक भद्दी सी गली देना है, भले ही कोई उन्हीं के शब्दों को, उन्हीं के विचारों को सही साबित करता हो, किन्तु यदि वह सर्वहारा वर्ग के हित कि बात भी करता है तो उन दकियानूसों को तो वह शत्रुवत ही दिखने लगता है, उस वापरे तथाकथित प्रगतिशील को प्रतिसाद में सिर्फ पूंजीपति वर्ग का ही नहीं अपितु निम्न मध्यम वर्गीय लम्पट शिक्षितों और अशिक्षित सर्वहारा के अंध विश्वासों का कोपभाजन बनना पड़ता है.

देश के मध्यम मार्गी प्रेस -मीडिया -राजनीतिक -कूटनीतिकों कि चतुश्त्यी को सिर्फ आशाओं के मरहम से ही तसल्ली करनी पड़ रही है ,वे वेन च्या पाओ के नाकाबिले बर्दाश्त व्यवहार से आक्रान्त हैं, मैं उन्हें और दुखी नहीं करना चाहता. दरअसल चीन के वर्तमान रवैये से तो कोई भी भारतीय संतुष्ट नहीं है. मैं तो रंचमात्र भी आश्वस्त नहीं हूँ. बेशक दुनिया में तमाम तरह की राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था में साम्यवादी शासन सबसे बेहतर व्यवस्था है किन्तु चीन के लिए यह कतई मुनासिब नहीं था कि भारत कि परेशानियों -आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, पूंजीवादी चरम भ्रष्टाचार और प्रजातान्त्रिक विविधता का नाजायज फायदा उठाये ,भारत कि उपेक्षा करे और पाकिस्तान से प्यार कि पेगें बढ़ाये. भले ही वह पाकिस्तान, बंगला देश, नेपाल से दोस्ती रखे किन्तु भारत की कीमत पर यदि ऐसा होता है तो हमें इसका करारा जवाब देने के लिए सदैव तैयार रहना होगा.

मार्क्सवाद-लेनिनवाद, सर्वहारा अंतर राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांतों को भारत के सन्दर्भ में चीन अमल में नहीं ला रहा है, क्या भारत के ७० करोड़ गरीब मजदूर चीन को दिखाई नहीं दे रहे? क्या भारत ने अतीत में चीन को सभ्यता-संस्कृति और दर्शन से उपकृत नहीं किया? क्या पंडित नेहरु ने पंचशील और संयुक राष्ट्र में तब के पद्चुत चीन को विश्व बिरादरी में प्रतिष्ठित नहीं किया? इसके विपरीत चीन ने भारत को क्या दिया? कभी भी दिल से भारत का समर्थन, किसी भी मंच पर नहीं किया. आखिर किस बात पर भारत से ज्यादा पाकिस्तान को तवज्जो दी जा रही है?

चीन के प्रधान मंत्री वेन जिआबाओ ने भारत से पाकिस्तान कि ओर प्रस्थान से पूर्व भारतीय मीडिया पर आरोप जड़ दिया कि भारतीय मीडिया द्वी-पक्षीय सम्बन्धों को ख़राब कर रहा है. उन्होंने नसीहत भी दे डाली कि मीडिया को दोस्ती बढाने में भूमिका का निर्वहन करना चाहिए. त्रि-दिवसीय भारत यात्रा के उनके निहितार्थ तो ठीक हैं क्योंकि वैश्वीकरण कि दुनिया में भारत या चीन या दोनों के बीच वाणिज्यिक संबंधों का होना लाजिमी है किन्तु उन्होंने भारत के लोगों को जो अच्छे पडोसी होने कि सलाह दी वो न काबिले बर्दाश्त है. भारत ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न कभी किसी के खिलाफ वैसी घेरेबंदी की जैसे कि चीन ने पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश और म्यामार से मिलकर भारत के खिलाफ की है.

वेन जिआबाओ ने आतंकवाद, स्टेपल वीसा, संयुक राष्ट्र संघ में भारत के लिए स्थाई सदस्यता पर कोई सकारात्मक सहमती नहीं दी, केवल ६ अग्रीमेंट, ९ सहमती पत्र और दो नसीहतों के साथ चीन ने भारत के पूंजीवादी निजाम को भले ही उचित सम्मान से न नवाजा हो ,किन्तु भारतीय जन गन कि चिर अभिलाषा -वसुधैव कुटुम्बकम के आगे उसे नतमस्तक होना ही होगा …इसके लिए यदि चीन को उसी के हथियार से उसी कि विचारधारा से -चाहे उसे साम्यवाद कहें या माओवाद या देंगवाद से निपटना होगा. .कहावत है ”If you can ’t defeat you join them ; चीन को जिस ताकत का अभिमान है, जिस सामरिक बढ़त का अभिमान है वो विगत ६० वर्षों के कट्टर साम्यवादी शासन का ही परिणाम है …भारत को भी इसी व्यवस्था को कम से कम बतौर प्रयोग १० साल के लिए अपनाने में नहीं हिचकिचाना चाहिए. जिस तरह चीन कि तरक्की से सारा संसार चकित है वो भारत सिर्फ १० साल में कर दिखा सकता है. आज भारत को आजाद हुए ६४ साल हो गए हैं किन्तु इस अर्ध पूंजीवादी -अर्ध सामंती राजनैतिक -सामजिक व्यवस्था से उसकी हालत ये है कि जब सुप्रीम कोर्ट संज्ञान ले तो चोर कि जांच पड़ताल होगी. भारत और चीन कि आर्थिक स्थिति का अनुपात है १:८ अर्थात चीन हमसे हर चीज में आठ गुना ताकतवर है. दुनिया के गरीब देशों में भारत ऊपर से नीचे ६८ वें नंबर पर है जबकि चीन दुनिया के पांच वीटो धारकों और ८ समृद्ध -जी -८ में शुमार है. .भारत को जिस विपरीत प्रवाह में तैरना पड़ रहा है वो चीन को दरपेश नहीं. भारत चारों ओर से बाह्य शत्रुओं से घिरा है. अन्दर तो हालत ये हैं कि आतंकी, अलगाववादी. नक्सलवादी, माओवादी. जातिवादी, संकीर्णतावादी, न जाने कितने घाव हैं इस भारत रुपी पुरातन राष्ट्र को कि अब तो बरबस कहना पड़ रहा है कि इस मुल्क को एक महान क्रांति कि दरकार है.

चीनी नेता शायद भारत को ताकतवर नहीं देखना चाहते. पाकिस्तान भी ऐसा ही सोचता है. इसी सोच ने चीन और पाकिस्तान में अटूट दोस्ती का माद्दा पैदा किया है वर्तमान व्यवस्था में भारत इन पड़ोसियों को कोई चुनोती नहीं दे पा रहा है. केवल शांति-शांति का मन्त्र बुदबुदाने से कुछ नहीं होगा. .इनको कितना भी सम्मान दो ये बाहर भीतर दोनों ओर से भयानक विष-दन्तों से इस महान अहिंसा वादी भारत को निगल रहे हैं.

इन्हें कोई चुनौती दे सकता है तो वो है -सुव्यवस्थित, भ्रष्टाचार विहीन, सर्वहारा अधिनायकवादी. जनवादी-साम्यवादी {बिलकुल चीन जैसा ही}भारत …लोहा ही लोहे को काट सकता है -अखंडता, स्वाधीनता, सम्रद्धि और संयुक राष्ट्र में वीटो पावर सब बिन मांगे मिल जायेंगे जैसे कि ६० साल पहले चीन को सिर्फ इसीलिये मिल गए कि बीजिंग में लाल झंडा फहराया गया था. जबकि पूरा चीन बेहद गरीब ,दलदल. बीमारियों और कुरीतियों का कुआँ था. भारत में जिस दिन लाल किले पर लाल झंडा फहराया जायेगा चीन कि बोलती बंद हो जाएगी. पाकिस्तान दुम दबाकर शांत हो जायेगा. अमरीका और दुनिया के सम्रद्ध देश भारत को वही आदर देंगे जो आज चीन को मिल रहा है तथा अंदरूनी बीमारियों, भुखमरी, असमानता और अकीर्ति से निजात मिलेगी.

4 COMMENTS

  1. आदरणीय सिंह साहाब तथा तिवारी जी,
    दरअसल भारत की विदेश निति संचालन करने वाले लोगो मे अमेरिकी प्रभाव जरुरत से ज्यादा है. मैने अनुभव किया है की वह लोग चीन के प्रति अति संवेदनशील है तथा उसकी प्रत्येक हरकत को अविश्वास की नजर से देखते है. जबकि अमेरिका युरोप की एजेंसीया तथा उनके सरकारी धन से चलने वाले दातृ संस्थाओ के कुत्सित उद्देश्य एवम कार्यो के प्रति आंख मुंदे रहते है. इन कारणो से भारत-चीन के रिश्तो मे ठंडापन और अविश्वास छाया हुआ है. यह काम डिप्लोमैट्स का है की वह आपसी विश्वास का वातावरण तयार करे. हमारे अच्छे सम्बन्ध दोनो के राष्ट्रिय हितो के अनुकुल है तो कोई कारण नही की चीन भी हमारा साथ अवश्य देगा।

  2. हिमवंत जी आपने लिखा हैकि”बेहतर है की भारत चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। एक दुसरे की संप्रभुता पर आक्रमण न करने का विश्वास दिलाए। आतंकवाद से मिलकर लडने का संकल्प ले”.भारत तो वैसा करने के लिए हमेशा तैयार है,पर क्या चीन यह करेगा?

  3. सार्थक टिप्पणी के लिए शुक्रिया .भारत का यही दृष्टिकोण विश्वविख्यात रहा है .लेकिन लगता है की भारत -पाकिस्तान के आपसी स्थाई वैमनस्य को चीन इसके वावजूद भूना रहा है की भारत पाक दोनो में करोड़ों मेहनतकश आज भी वैश्विक मानक इंसानी जिंदगी से निम्नतर पर घिसट रहे हैं .सर्वहारा अंतर राष्ट्रीयता वाद क्या चीन को समझाना हमारा काम है?आपकी टिप्पणी से हू जिंताओ ओर वें च्या पाओ को शर्म आनी चाहिए की उनकी लगातार बदमाशियो के वावजूद भारत का एक सचेत नागरिक यही चाहता है की ना केवल भारत ना केवल चीन बल्कि सारी वसुधा खुशहाल रहे …

  4. चीन के साथ बेहतर रिश्ते हिमालय के दोनो तर्फ अवस्थित देशो के हित मे हैं। अमेरिका-युरोप (चर्च) की साम्राज्यवादी ताकते भारत तथा चीन मे मित्रता नही देखना चाहती है। अमेरिका को लगता है की चीन निकट भविष्य में महाशक्ति बनने जा रहा है तथा विश्व मे अमेरिकी दादागिरी को प्रतिस्पर्धा मिलने वाली है। अतः वह भारत को कुछ मदत दे कर चीन को उल्झाना चाहता है। लेकिन अमेरिका-युरोप विश्वास के काबिल नही है। बेहतर है की भारत चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। एक दुसरे की संप्रभुता पर आक्रमण न करने का विश्वास दिलाए। आतंकवाद से मिलकर लडने का संकल्प ले। दक्षिण एसिया मे अमेरिकी प्रभाव को न्युन करने के लिए दोनो देश की सरकारे मिल कर काम करे।

    चीन के पास एक गौरवाशाली ईतिहास है। भारत का ईतिहास भी गौरवशाली रहा है। दोनो देश की मित्रता विश्व रंगमंच पर बडे परिवर्तन ला सकती है। चीन के विभिन्न प्रदेशो मे कुछ हजार लोगो को हिन्दी भाषा कि शिक्षा दी जानी चाहिए। उसी प्रकार भारत मे भे स्कुलो मे चिनीया भाषा की शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे हमारे रिश्ते सुध्रेंगें। यह मार्ग ही उचित मार्ग है।

    संघ तथा भाजपाको अपनी चीन विरोधी निति मे 180 डिग्री का बदलाव लाना चाहिए।

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