‘चिराग का रोजगार’ एक सार्थक पहल

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ललित गर्ग-

आज युवाओं के लिए रोजगार सृजित करने के मामले में देश पिछड़ रहा है। रोजगार एवं उद्यम के मोर्चें पर युवा सपनों का बिखरना देश के लिये एक गंभीर चुनौती है। इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिये सरकार के साथ-साथ जनभागीदारी जरूरी है। बिहार के युवा सांसद चिराग पासपास सक्षम जनप्रतिनिधि के साथ-साथ मौलिक सोच एवं संवेदनाओं के प्रतीक हंै। उन्हें सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी होकर प्रासंगिक एवं अप्रासंगिक के बीच भेदरेखा बनाने एवं अपनी उपस्थिति का अहसास कराने का छोटी उम्र में बड़ा अनुभव है जो भारतीय राजनीति के लिये शुभता का सूचक है। लोकतंत्र का सच्चा जन-प्रतिनिधि वही है जो अपनी जाति, वर्ग और समाज को मजबूत न करके देश को मजबूत करें। ऐसी ही सार्थक सोच का परिणाम है ‘चिराग का रोजगार’। हाल ही में दिल्ली एक बडे़ समारोह में चिराग पासवान ने अपनी इस बहुआयामी एवं मूच्र्छित होती युवा चेतना में नये प्राण का संचार करने वाली योजना को लोकार्पित किया। रोजगार के लिये सरकार पर निर्भरता को कम करने के लिये उन्होंने बड़े आर्थिक-व्यापारिक घरानों एवं बेरोजगार युवकों के बीच सेतु का काम करने की ठानी है। वोट की राजनीति और सही रूप में सामाजिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव है। लेकिन चिराग ने इन विपरीत स्थितियों में सामंजस्य स्थापित करके भरोसा और विश्वास का वातावरण निर्मित किया है।
‘चिराग का रोजगार’ एक मौलिक सोच की निष्पत्ति है और मौलिकता अपने आप में एक शक्ति होती है जो व्यक्ति की अपनी रचना होती है एवं उसी का सम्मान होता है। संसार उसी को प्रणाम करता है जो भीड़ में से अपना सिर ऊंचा उठाने की हिम्मत करता है, जो अपने अस्तित्व का भान कराता है। मौलिकता की आज जितनी कीमत है, उतनी ही सदैव रही है। जिस व्यक्ति के पास अपना कोई मौलिक विचार या कार्यक्रम है तो संसार उसके लिए रास्ता छोड़कर एक तरफ हट जाता है और उसे आगे बढ़ने देता है। मौलिक विचार तथा काम के नये तरीके खोज निकालने वाला व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र की बड़ी रचनात्मक शक्ति होता है अन्यथा ऐसे लोगों से दुनिया भरी पड़ी है जो पीछे-पीछे चलना चाहते हैं और चाहते हैं कि सोचने का काम कोई और ही करे। चिराग ने युवा पीढ़ी के लिए कुछ नया सोचा है, कुछ मौलिक सोचा है तो सफलता निश्चित है।
युवापीढ़ी और उनके सपनों का मूच्र्छित होना और उनमें निराशा का वातावरण निर्मित होना- एक सबल एवं सशक्त राष्ट्र के लिये एक बड़ी चुनौती है। इसके लिये जिस तरह के राजनेताओं की अपेक्षा है, आज हमारे पास ऐसे राजनेता नहीं है, जो इस स्थिति से राष्ट्र को बाहर निकाल सके, राष्ट्रीय चरित्र को जीवित रखने का भरोसा दिला सके। युवापीढ़ी की यह निराशा बहुत घातक हो सकती है, होती रही है। इन जटिल से जटिलतर होती स्थितियों का अनुभव कोई युवा ही कर सकता है। चिराग ने यह अनुभव किया, यह उनकी सकारात्मक राजनीति एवं मानवतावादी सोच का ही परिणाम हो सकती है।
सरकार ने रोजगार सृजन के लिए मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसे कई कार्यक्रम चला रखे हैं। लेकिन ऐसी दस-बीस और योजनाओं के बन जाने पर भी बेरोजगारी की समस्या खड़ी ही रहेगी, क्योंकि देश में सालाना सिर्फ पैंतीस लाख लोगों के लिए कौशल प्रशिक्षण की व्यवस्था है, जबकि हर साल सवा करोड़ शिक्षित बेरोजगार युवा रोजगार की कतार में खड़े होते हैं। विदेशों में भी भारतीय नौजवानों के लिये नौकरियांे पर पहरा लग रहा है, वे भी भारत की ओर ताक रहे हैं। ऐसी स्थितियों में चिराग पासवान की योजना इस समस्या का समाधान बन सकती है। बिखरते युवापीढ़ी के सपनों पर नियंत्रण पाने के लिये सरकारी नौकरियों के अलावा व्यापक रोजगार के अवसर की उपलब्धता नितान्त अपेक्षित है और इसके लिये ‘चिराग का रोजगार’ में रोजगार से जुड़े सवालों के गूढ़ उत्तर छिपे हैं।
सरकारी स्तर पर ही नहीं, बल्कि बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों एवं नामी-गिरामी आईटी और अन्य कंपनियों में जिस रफ्तार से नौकरियों में इन दिनों कटौती देखने को मिल रही है, उससे युवापीढ़ी में निराशा व्याप्त होना स्वाभाविक है। मोदी सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही रोजगार बढ़ाने के लिए बड़े तामझाम के साथ अनेक घोषणाएं की थीं, लेकिन सरकार की तमाम कोशिशें अब तक खंडहर ही साबित हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बेरोजगारी बढ़ सकती है और रोजगार के नए अवसर सृजित होने में बाधा आ सकती है। यह रिपोर्ट हाल में जारी हुई है। इसमें कहा गया है कि रोजगार जरूरतों के कारण आर्थिक विकास पिछड़ता प्रतीत हो रहा है। रिपोर्ट में 2017 और 2018 के दौरान बेरोजगारी बढ़ने और सामाजिक समानता की स्थिति बिगड़ने की आशंका जताई गई है। 2017 और 2018 में भारत में रोजगार सृजन की गतिविधियों की गति पकड़ने की संभावना नहीं है, क्योंकि इस दौरान धीरे-धीरे बेरोजगारी बढ़ेगी। आशंका है कि पिछले साल के 1.77 करोड़ बेरोजगारों की तुलना में 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 1.78 करोड़ और उसके अगले साल 1.80 करोड़ हो सकती है।
ये आंकड़े देश की जो तस्वीर पेश करते हैं, वह सिर को नीचा करने वाली है। बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति विस्फोटक है। सन् 1946 में पांच करोड़ टन अनाज पैदा होता था और आज लगभग पांच गुणा पैदा करके भी हम देशवासियों का पेट नहीं भर पा रहे हैं। औद्योगिक नीति से धुआं उगलने वाले कारखानों की चिमनियों में वृद्धि हुई है पर गरीब के चूल्हे की चिमनी में धुआं नहीं है। भवनों की मंजिलें और बढ़ गईं पर झोंपड़ियों पर छतंे नहीं हैं। अन्तराल बढ़ा है, यह सच्चाई है। विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रिायों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास की कौन-सी समस्या घटती है?
विशेषज्ञ बढ़ती हुई जनसंख्या का कारण बताकर अपना तर्क देते हैं। यदि यह वास्तविकता है तब इसके नियंत्रण पर व जन्म दर को शून्य स्तर पर लाने के प्रयास युद्धस्तर पर किये जाने चाहिएँ। ऐसे प्रयासों, ऐसे प्रशिक्षणों को प्राथमिकता देनी चाहिए। देश के विकास का लाभ एकमात्र इसी बिन्दु से जुड़ा हुआ है। अन्यथा जनसंख्या की बढ़ोत्तरी सारी उपलब्धियांे को खा जाएगी। बेकारों की, भूखों की, गरीबों की, बीमारों की और अशिक्षितों की कतार बढ़ती ही जाएगी और देशवासी तमाम उम्र की प्रतीक्षा के बाद भी सब्जी के साथ रोटी नहीं खा सकेंगे।
क्या इसके लिए एक अच्छा बजट या कुछ रुपये प्रति किलो की दर से चावल-गेहूं का चुनावी प्रलोभन काफी है? ये तो उन्हें गलत दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं और हमेशा वोट ही बनाए रखना चाहते हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों और निचले पायदान पर खड़े लोगों के बीच का यह एक धोखेभरा खेल है। क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? मौत पर मातम मनाने हैलीकाॅप्टर से जाएंगे पर उनकी जिंदगी संवारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। तब उनके पास बजट की कमी रहती है। व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई गरीब नमक और रोटी के लिए आत्महत्या नहीं करे।
रोजगार बढ़ाने के लिए छोटे उद्योगों का विकास सबसे ज्यादा जरूरी है। अर्थशास्त्रियों की मानें तो लघु उद्योगों में उतनी ही पूंजी लगाने से लघु उद्योग, बड़े उद्योग की तुलना में पांच गुना अधिक लोगों को रोजगार देते हैं। बेरोजगारी केवल आर्थिक समस्या नहीं है। यह एक ऐसा मसला है जो अपराध नियंत्रण और सामाजिक शांति से भी उतना ही वास्ता रखता है। अगर बेरोजगारी बढ़ती ही जाएगी तो तरह-तरह के असंतोष और हिंसा के रूप में फूटेगी। क्योंकि संसार की सबसे बड़ी आबादी हमारे यहां युवाओं की है। पचपन करोड़ के आसपास है। चिराग पासवान ने बिहार के बेरोजगार युवकों के लिये बड़े औद्योगिक घरानों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, एवं धनाढ्यों को रोजगार के लिये प्रेरित कर रहे हैं, इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है। लेकिन वे सत्ता के मजबूत पायदान पर भी स्थापित है, अतः ऐसी सरकारी योजनाएं सामने लाने की आवश्यकता है जिनमें रोजगार देने वाले प्रतिष्ठानों को व्यापक छूट एवं सुविधाओं दी जाये। आज जरूरत इस बात की है कि रोजगार लेने वालों की फौज खड़ी करने बजाय अधिसंख्य व्यक्ति रोजगार देने वाले बने। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान् नहीं। महान् उस दिन बनेंगे जिस दिन नये भारत में कोई भी युवा बेरोजगार नहीं होगा। यह आदर्श स्थिति जिस दिन हमारे राष्ट्रीय चरित्र में आयेगी, उस दिन महानता हमारे सामने होगी। ऐसे महान् संकल्प के लिये आगे बढ़ने वाले चिराग सचमुच चिराग है, रोशनी है। इस तरह के दीये लेकर रोशनी करने वालों की एक कतार खड़ी हो। अब देश सत्ता में बने रहने के लिये समस्याओं को जीवित रखने वालों या सत्ता में आने के लिये समस्या बनाने वालों की त्रासदी मुक्त हो- ऐसा हुआ तो मोदी युग स्वर्णिम युग होगा।

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