छोड़ कर जगत के बंधन !

छोड़ कर जगत के बंधन, परम गति ले के चल देंगे;
एक दिन धरा से फुरके, महत आयाम छू लेंगे !

देख सबको सकेंगे हम, हमें कोई न देखेंगे;
कर सके जो न हम रह कर, दूर जा कर वो कर देंगे !
सहज होंगे सरल होंगे, विहग वत विचरते होंगे;
व्योम बन कभी व्यापेंगे, रोम में छिप कभी लेंगे !

चित्त हर चेतना देंगे, चितेरे हम रहे होंगे;
गोद हर सृष्टि कण ले के, वराभय कभी दे देंगे !
सुभग श्यामल सुहृद कोमल, हमारे आत्म-भव होंगे;
विदेही स्वदेही विचरित, प्रयोजन प्रभु ‘मधु’ होंगे !

 

नियति की नाटकी प्रवृति !

नियति की नाटकी प्रवृति, निवृत्ति से ही तो आई है;
प्रकृति वह ही बनाई है, प्रगति जग वही लाई है !

नियन्ता कहाँ कुछ करता, संतुलन मात्र वह करता;
ज्योति आत्मा किसी देता, कम किए लौ कोई चलता !
न्याय करना उसे पड़ता, उचित संयत न जब होता;
समय बदलाव को देता, स्वल्प आघात तब करता !

स्वचालित संतुलित संस्थित, क्रियान्वित सजग शुभ प्रहरित;
सृष्टि संयम नियम रहती, नृत्य हर ताल करवाती !
प्रवृति दे ज्ञान करवाती, क्रियति कर मर्म सुधवाती;
भेद कर्त्ता का मिटवाती, प्रभु से ‘मधु’ को मिलवाती !

 

कुछ भ्रान्तियाँ औ क्रान्तियाँ !

कुछ भ्रान्तियाँ औ क्रान्तियाँ, ले जा रहीं भव दरमियाँ;
भ्रम की मिटाती खाइयाँ, श्रम कर दिखातीं कान्तियाँ !

हर किरण ज्योतित भुवन कर, है हटाती परछाइयाँ;
तम की तहों को तर्ज़ दे, तृण को दिये ऊँचाइयाँ !
छिप कर अणु ऊर्जित रहा, पहचाना ना हर से गया;
हर वनस्पति औषधि रही, जानी कहाँ पर वह गई !

हर प्राण अद्भुत संस्करण, संकलन सृष्टि विच रहा;
वह त्राण को तरज़ा रहा, तारक हिया फुहरा रहा !
जो भी रहीं उर झाइयाँ, सुर जो रही गहराइयाँ;
प्रभु लख रहे जग झाँकियाँ, ‘मधु’ हृद विचर विचराइया !

 

कल-कल किए झलमल हुए !

कल-कल किए झलमल हुए, छल-छल बहे छन्दित रहे;
जल की लहर हर हर क़हर, है स्रोत संग मिलने चले !

चलती चले चुल-बुल करे, चैतन्य हर सत्ता करे;
जाने कहाँ खाड़ी रहे, वह प्रतीक्षा धाती रहे !
इतरा कभी इठला कभी, जब दूर धारा से चले;
अस्तित्व गढ्ढ़े  में समा, वह बाढ़ की गति को तके !

 

जब तब समर्पण ज्वार कर, संयुक्त हो सब संग बहे;
ना समय तब ज़्यादा लगे, मंज़िल सहज पाती रहे !
जग मग सुभग सत्ता सुलभ, बुद्धि विलग करती विपथ;
हिय नाव चढ़ि ‘मधु’ सलिल सम, प्रभु-पाद दर्शन को चले !

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