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छोटी अम्मा की बेटी

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सुधीर मौर्य

मेरे पिता ज़मीदार नहीं थे पर उनका रुतबा किसी ज़मीदार से कम नहीं था। उनका रुतबा होता भी कैसे कम वो एक ज़मीदार के बेटे और ज़मीदार भाई थे। मेरे पिता तीन भाई थे और तीनो में वे छोटे। मेरे पिता के दोनों बड़े भाई स्कूल से आगे नहीं गए। सच तो ये प्राइमरी स्कूल से ज्यादा पढ़ने की उन्होंने नहीं सोची और न ही इसकी जरुरत समझी। पर मेरे पिता पढ़ना चाहते थे। हालाँकि मेरे बाबा नहीं चाहते थे की मेरे पिता उनसे दूर रहे फिर मेरे पिता की इच्छा जानके उन्होंने मेरे पिता को पढ़ने के लिए शहर भेज दिया। मुझे इस बात का बेहद फख्र है कि मेरे पिता ने उस ज़माने प्रथम श्रेणी में विज्ञानं से स्नातक मुकम्मल किया था।

मेरे बाबा ने जब नश्वर देह त्याग दी तो परम्परा के अनुसार उनके सबसे बड़े बेटे यानि मेरे सबसे ताऊ ने ज़मीदारी संभाली। हमारी ये खानदानी ज़मीदारी आठ गाँव में फैली हुई थी। देश को आज़ादी मिलने के बाद कहने को तो ज़मीदारी ख़त्म हो चुकी थी पर मेरा घराना खुद को ज़मीदार ही समझता रहा था। भले ही उनके पास ज़मीदारी के कोई क़ानूनी अधिकार न बचे हो पर आठ गाँवो के इलाके में फैली उनके सेकड़ो बीघा खेत और बाग़ उन्हें ज़मीदारी के दम्भ से आज़ाद नहीं होने देते थे। अगर इस ज़मीदारी के दम्भ से थोड़ा बहुत कोई आज़ाद था तो वो थे मेरे पिता।

मेरे बाबा की मृत्यु के बाद मेरे सबसे बड़े ताऊ ज़मीदार बने थे। उनसे छोटे ताऊ का खून ठेठ ज़मीदारी वाला खून था। आठगांव ही नहीं उसके बाहर के इलाको में भी उनकी दहशत की तूती बोलती थी।

हमारे गाँव के पास से एक नहर बहती थी। बहती थी क्या, आज भी बहती है। खेतो की सिचाई के लिए। सिचाई को सुविधाजनक बनाने के लिए इस नहर पे गवर्मेंट ने एक बांध बनवाया था। सिचाई विभाग के कर्मचारियों के रहने के लिए इस बांध के समीप एक ईमारत तामीर की गई थी। इसमें कर्मचारियों के रहने के लिए कुछ क्वार्टर के अतिरिक्त एक छोटा से खूबसूरत बांग्ला भी था। जब भी कोई बड़ा अधिकारी आता तो वो इस बंगले में रिहायश करता।

कहने को तो ये ईमारत सरकारी लोगो के लिए आरामगाह थी पर वास्तव में इसे मेरे छोटे ताऊ ने अपनी दबंगई के चलते अपनी ऐशगाह के रूप में इस्तेमाल करते थे। किसी की क्या मज़ाल जो मेरे छोटे ताऊ के खिलाफ चूं भी कर जाये। सिचाई विभाग के कर्मचारी भी छोटे ताऊ के डर से तक़रीबन उनके नौकर की तरह रहते। इसी बंगले में महफ़िल सजती। दारू और चिकेन मटन का भोग लगता। ये महफिले सिर्फ यहाँ तक ही सीमित नही रही बल्कि मेरे छोटे ताऊ इस बंगले में अय्याशी के लिए पास के गांव में रहने वाली तवायफों को भी बुलाते। जब बाज़ारू औरतो से ताऊ का जी नहीं  भरता तो वो अपनी हवस आठगांव में रहने वाली पसंद आई औरत या लड़की को जबरन रौंद के लेते। बेचारे गरीब गांव वाले मन मसोस कर रह जाते।

उस समय में वो हमारे अठगवां की सबसे सुन्दर लड़की थी। उनकी सुंदरता का किस्सा मेरे छोटे ताऊ के कानो तक पहुंचा तो ताऊ उन्हें अपने ऐशगाह में लाने की जुगत भिड़ाने लगे। और फिर एक दोपहर जब वो खेत पे  अपने बप्पा को रोटी पानी दे जा रही थी तो छोटे ताऊ उन्हें अपने कारिंदो की मदद से उठा कर अपनी ऐशगाह में ले आये।

मेरे ताऊ ने उन्हें जितना कमजोर समझा था वो उतनी कमजोर थी नहीं। वो शाक्य जाति के एक मेहनती किसान की मेहनती बेटी थी। जहाँ सुंदरता ने उनके शरीर को सुकोमल  बनाया हुआ था वही मेहनत ने उनके शरीर को सशक्त भी बना दिया था। अपनी हिफाजत के लिए बंद कमरे में उन्होंने किसी शेरनी की तरह मेरे छोटे ताऊ का मुकाबला किया।

पता नहीं मेरे छोटू ताऊ जानते थे या नहीं पर वो सुकोमल और सशक्त लड़की अपनी ही जाति के किसी लड़के के प्रेम में थी।  उस दोपहर जब ताऊ उन्हें उठाकर लाये तो वो अपने प्रेमी से मिलके खेत की ओर जा रही थी। शायद उनके प्रेमी की नज़र इस कांड पे पड़ी होगी।

जब तक उनका प्रेमी उस  ऐशगाह में पहुंचा तब तक उन्होंने बड़ी बहादुरी से खुद को बचाये रखा। जब उस वीराङ्ग्ना ने अपने प्रेमी को सामने देखा तो वो वीरांगना भाग कर अपने प्रेमी के पीछे छिप गैई।

पर मेरे छोटे ताऊ अपनी ज़मीदारी के दम्भ में आकंठ में डूबे हुए थे इसलिए उन्हें ये समझ नहीं आया जब उस शख्श ने मेरे ताऊ को ये समझाने की कोशिस की ‘कि यूँ किसी लड़की की अस्मत से खेलना अच्छी बात नहीं और उन्होंने ये भी बताया कि वे आपस में प्रेम करते है इसलिए अब वो दुबारा कभी इस लड़की  पे अपनी गन्दी नज़र न डाले। ख़ैर मेरे ताऊ ने आगे बढ़कर लड़की को उसके प्रेमी से खींचने की कोशिस की तो उनकी उम्मीद के विपरीत उस युवक ने मेरे छोटे ताऊ के जबड़े पे एक ज़ोरदार घूसा जड़ दिया।

शायद अपनी अब तक की पूरी ज़िंदगी में किसी ने मेरे ताऊ ने अपने चेहरे पे  किसी का घूसा खाया था। उनके जमीदारी खून ने भी उबाल खाया और उन्होने भी पलट के एक घूसा उस युवक के मार दिया। फिर दोनों आपस में गूँथ गए। वो युवक भी एक मेहनती और बलिष्ठ किसान था। उसके एक वार से छोटे ताऊ लड़खड़ा के दीवार से टकराये। उनका सर  दीवार से तकराने से फट गया। उनके मुह से पह्ले खून निकला और फ़िर हिच्की और इसी हिचकी के साथ उनके प्रान भी शरीर से निकल गये।

अन्दर चल रही इस हाथापाई की आवाज़ सुनकर ताऊ के कारिंदे वहां आ गए और बिना कुछ विचारे उस युवक पे पिल पड़े। उस लड़की ने रोते चिल्लाते और अपनी पूरी शक्ती लगाकर  अपने प्रेमी को बचाने की पूरी कोशिस की पर वो उन मुस्तन्दो के आगे हर गयी। कुछ ही देर मे उस सरकारी बङ्ग्ले मे दो लाशे गिर गयी थी।

हमारे घर और उस युवक के घर दोनो जगह मातम पसर गया .पर दुख तो हमारे घर मे ज्यादा था।  क्योंकि बाकी लोगो का मरना तो किसी जानवर कॆ मरनॆ के बराबर हे, जबकि हमारे घर में हुई मौत एक ज़मीदार के बेटे और भाई की मौत थी। यद्यपि हमारे ज़मीदार घराने के कारिंदो ने छोटे ताऊ की मौत का बदला उस युवक को मार के ले लिया था पर फिर भी मेरे बड़े ताऊ की नज़र में अभी उनके छोटे भाई की हत्या का साथ इन्साफ पूरा हुआ ही नहीं था।

पास के कसबे में पुलिस चौकी थी। इस पुलिस चौकी की सारी जरुरत की चीजे हमारा घराना मुहैय्या कराता था। इस वक़्त पुलिस वाले हमारे घर पे हमारे मातम में शरीक हो रहे थे पर मेरे बड़े ताऊ इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। कुछ देर में ही कुछ पुलिस वालो के साथ हमारे घराने के कारिंदे उस युवक और युवती के गांव पहुंचे। युवक और युवती दोनों के घर वालो की बेरहमी से पिटाई की गई और युवती को ज़बरन उठाकर हमारे घर ले आया गया। तुरंत ही लकड़ी के एक ढेर में आग लगवाकर मेरे बड़े ताऊ ने ऐलान कर दिया कि उनके भाई की लाश जले उससे पहले इस लड़की को  आग को में झोंक कर जला दिया जाये।

मैने पहले ही ज़िक्र किया कि वो लड़की न सिर्फ सुकोमल थी बल्कि उसमे शेरनी की ताकत भी थी। खुद को आग में झोंखे जाने का उसने जबरदस्त विरोध किया। कहते हैं की भगवान् हमेशा हिम्मत से संघर्ष करने वालो का साथ देते हैं। इस वक़्त भगवान् ने उस दुखियारी शेरनी की मदद करने का फैसला किया।

मेरे पिताजी जो शहर में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे वो उस दिन यूँ गाँव की याद आने की वजह से घर आ गए।

घर का ये वीभत्स मंजर देख कुछ देर तो मेरे पिता को कुछ समझ नहीं आया पर तुरंत ही वो अपने बड़े भाई की लाश और उस युवती को जलाये जाने का प्रयास देखकर तुरंत ही माज़रा समझ गए। यद्पि भाई की मौत उनके लिए एक हृदयविदारक सदमा था पर उस समय उन्होंने अपना कृतव्य सुनिश्चित किया और भागकर उस युवती को, जो लगभग जलती आग में फेंक दी गई थी उसे आग से खींच निकाल कर अपने कोट को उतार उससे उस लड़की के कपड़ो में लगी आग बुझाने लगे।

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पिता ने अपने स्नातक की पढ़ाई दांव पे लगा दी थी। उस नवयुवती की रक्षा और आठ गाँव में अपने घराने केकायम आतंक को रोकने के लिए।

मेरे पिता ने उस लड़की से विवाह का प्रस्ताव रखा। जिसे उस लड़की ने स्वीकार कर लिया। पहले में उस लड़की के अपने से विवाह की स्वीकृति दिए जाने कि वजह ये समझता रहा कि जरूर वो लड़की ने खुद को आग से बचाने वाले इंसान को देवता समझा होगा और जब उस देवता ने उससे विवेक का प्रस्ताव रखा तो वो देवता को मना न कर पाएगी जबकि उस देवता का भाई उसके प्रेमी का हत्यारा था। हालाँकि यक़ीनन मेरे पिता से  लड़की के विवाह कर लेने की ये वजह रही होगी पर एक और वजह थी जिसकी वजह से उस लड़की ने मेरे पिता से शादी की थी। उस वजह का खुलासा मैं बाद में करूँगा।

वो लड़की ने शादी के बाद नियत समय पे एक लड़के को जन्म दिया। वो लड़का मैं था इसलिए मैं अब से उस लड़की के लिए ‘मां’ का सम्बोधन प्रयोग करूँगा।

मेरे पिता चाहते तो मेरी मां से विवाह के बाद शहर में जाकर रह सकते थे पर मेरे पिता चाहते थे कि आगे से मेरी मां की तरह कोई और लड़की उस आठ गाँव में सताई न जाये। इसलिए मेरे पिता मेरी मां के साथ अपनी पुश्तैनी हवेली में रहने लगे। हालाँकि मेरे पिता मेरी मां का बेहद ख्याल रखते थे पर मेरी मां को हवेली में बेहद अपमानित होना पड़ता था। पिता के आलावा हवेली के प्रत्येक सदस्य मेरी मां को मेरे छोटे ताऊ की मौत का ज़िम्मेदार समझते थे। अब लाज़िमी है कि एक गर्वीला ज़मीदार खानदान ऐसी औरत से नफरत ही करेगा और उसे गाहे – बगाहे अपमानित करेगा ही।

यदयपि मेरी मां भी पिता का बेहद ख्याल रखती थी पर मेरे पिता अक्सर उदास रहा करते थे। पहले मां ने पिता की उदासी का कारन यही समझा कि वो अपने भाई की मौत से उदास रहते हैं पर जल्द ही मां को पिता के उदास रहने की एक ओर वजह पता चल गई।

मेरी मां की जान बचाने के लिए पिता ने साहसिक निर्णय लेते हुए उनसे विवाह तो कर लिया पर उससे पहले वो शहर में एक लड़की को अपना दिल दे चुके थे। मेरी मां ने भी प्रेम किया था। वो प्रेम और उसकी जुदाई की पीड़ा से भली – भांति परिचित थी। मेरे पिता और साथ ही वो लड़की जिससे मेरे पिता ने प्रेम किया था, वो दर्द की किस दौर से गुज़र रहे होंगे ये सोच कर मेरी मां के कलेजे में हुक उठती।

मेरी मां ने पिता को कई बार समझाया कि वो शहर जाये और जाके उस लड़की को अपना ले। पर मेरे पिता मेरी मां को यूँ हवेली में अकेले छोड़कर जाने को  तैयार नहीं थे। उन्हें डर था की उनके बाद हवेली में मां के साथ कुछ गलत हो सकता है। पर जब एक दिन मां ने पिता को अपनी और उस लड़की की कसम एक साथ दे दी तो पिता शहर जाने को तैयार हो गए।

पिता शहर गए तो जल्दी लौट कर नहीं आये। हालाँकि मेरे पिता में कोई ऐब नहीं था। पर जब वो स्नातक की पढ़ाई के लिए शहर में थे तो एक बार अपने कुछ दोस्तों के बेहद इसरार पे कोठे पे चले गए। यहीं इस कोठे पे एक लड़की से उनकी नज़र यूँ टकराई कि वो उसे दिल दे बैठे। वो लड़की भी मेरे पिता के बांकपन पे दिल हार गई। यूँ मेरे पिता जिस लड़की के विछोह में हमेशा ग़मगीन रहा करते थे ये लड़की यही कोठे पे रहते थी। जहाँ वो और उस जैसी कुछ लड़किया आने वाले लोगो का अपने गायन और नृत्य से दिलजोई करती थी।

उस समय टेलीफोन नहीं हुआ करते थे।  शहर से पिता मां को नियमति पत्र लिखते थे पर कोई भी पत्र मेरी मां के हाथो तक नहीं पहुंचा। या ये कहो पहुँचने ही नहीं दिया गया। तक़रीबन डेढ़  साल बाद मेरे पिता जब घर लौटे तो उनके साथ छोटी अम्मा और उनकी गोद में एक – डेढ़ महीने की बच्ची भी थी।

जिस दिन पिता घर आये उस दिन उन्हें छोटी अम्मा और उनकी गोद में प्यारी सी  बच्ची के साथ देखकर मां बहुत खुश होती। पर मेरी मां अब इस दुनियां में कहाँ थी। मैने उन्हें बीमार होते देखा था। बीमारी में दम तोड़ते देखा था। हालंकि बाद में मुझे पता चला था कि कि मेरी मां की बीमारी की वजह उन्हें धीमा ज़हर दिया जाना था और मेरी मां की मौत असल में मौत नहीं हत्या थी।

जिस अंदेशे की वजह से पिता मां को अकेले छोड़कर शहर नहीं जाना चाहते थे वो अंदेशा सही निकला था। लेकिन उस समय मेरे मां की मौत को मेरी तरह उन्होंने बीमारी की वजह से हुई सामन्य मौत  मान लिया था।

उस वक़्त हमारा पूरा खानदान से मेरी मां से शादी करने की वजह से मेरे पिता से पहले ही बेहद नाराज़ था और अब जब वे  अपने साथ कोठे में नाचने वाली को ले आये तो सब के सब लगभग मेरे पिता के दुश्मन ही बन गए।

न सिर्फ पूरा खानदान मेरे पिता के खिलाफ था बल्कि वो अठगंवा जिसकी भलाई के लिए पिता ने अपना पसीना बहाया था वो भी पिता का विरोधी बन बैठा था। हमारे घर में एक तवायफ किसी की ब्याहता की हैसियत से रहे ये न घर वालो को मंज़ूर था और न ही गाँव वालो को।

पहले गाँव वालो पिता को ऊंच नीच समझाई। पर जब पिता छोटी अम्मा को हवेली में ही रखे रहे तो गाँव वालो ने ब्राहम्णो की अगुवाई में हमारे घर की लुटिया बंद कर देने की धमकी दी। ‘लुटिया बंद कर देने’ का अर्थ ये होता कि जिस घर की लुटिया बंद की जाती थी फिर उस घर का कोई भी पानी तक नहीं पीता था। उसके घर का  भोजन करना तो बहुत दूर की बात होती थी। तब ये किसी भी खानदान के लिए ‘लुटिया बंद करने’ वाली प्रथा बेहद अपमानजनक मानी जाती थी। लोग मर जाना पसंद करते थे पर अपने घर पे प्रथा नहीं लगने देते थे।

बड़े ताऊ ने पूरे खानदान को इस प्रथा से बचाने के लिए पिता को उन कमरों में से एक में रहने को कह दिया जो घर के नौकरो के लिए थे। मेरे पिता ने ख़ुशी से उस एक कमरे में रहना स्वीकार कर लिया। छोटी अम्मा के साथ रहने से पिता किसी भी तकलीफ में खुश रह सकते थे, इसका आभास मुझे उस कच्ची  उम्र में भी हो गया था।

पर गांव के ब्रह्मणो को बड़े ताऊ द्वारा की गई ये व्यवस्था पसंद नहीं आई। लुटिया न बंद करने के लिए उनकी एक ही शर्त थी कि वो उस तवायफ को घर से निकाल दे।

छोटी मां एक राजकुमार को राह का भिखारी बनते देख रही थी। उन्होंने पिता को समझाने का प्रयास किया ‘कि पिता उन्हें वापस शहर में उसी कोठे पे चले जाने दे।’ लेकिन पिता ने उनकी बात को एक सिरे से खारिज कर दिया। जब पिता ने उनकी बात नहीं मानी तो एक दिन जब पिता किसी गाँव में किसी से मिलने गए थे तो छोटी मां गोद में अपनी बच्ची को उठाकर चली गई। उस समय मैं स्कूल गया था और घर की किसी अन्य सदस्य ने ये जानने की कोशिस ही नहीं की कि छोटी मां कहाँ जा रही है।

जाते हुए छोटी मां ने पिता को अपनी कसम देते हुए खत लिखा ‘कि वे अब कभी भी शहर मुझे इस गाँव में वापस लाने के लिए नहीं आयंगे। उन्होंने ये भी लिखा  उनकी सबसे बड़ी इच्छा ये है कि पिता गाँव की भलाई और तरक्की के लिए काम करे।

पिता छोटी मां से मिलने शहर तो गए पर उन्हें वापस घर लेकर नहीं आये। छोटी मां की दी कसम का मान तो उन्हें रखना ही था।

वक़्त आगे खिसका और इस खिसकते वक़्त के साथ मेरे बड़े ताऊ की हत्या कर दी गई। किसी ने हत्यारो को नहीं देखा था। पर अठगांवा में दबी जबान में चर्चा थी कि ज़मीदार को उस युवक के भाई ने मारा है जो मेरी मां का प्रेमी था। बड़े ताऊ के मरने के बाद पूरे घराने की ज़िम्मदारी पिता पे आ गई। मैने  महसूस किया था की मेरे दोनों ताऊ के बच्चो की आँखों में मेरे पिता के लिए कोई खास सम्मान नहीं रहता था। यहाँ तक मेरी बुआ और उनके बच्चे भी मेरे पिता को कोई सम्मान नहीं देते थे। मेरे दोनों ताऊ के बच्चे गाँव के स्कूल से आगे पढने को तैयार नहीं हुआ। वो सब के सब अपने कमरों में आराम फरमाते और ऐश करते। वो सब हर महीने बिना कोई काम या मेहनत किया  पिता से एक निश्चित रकम लेते अपने अनाप शनाप खर्चो के लिए।

मेरे पिता मुझे पढ़ाना चाहते थे। मैं भी पढ़ना चाहता था। पिता ने मुझे शहर भेज दिया। मैने एक नामचीन स्कूल में बी एस सी पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया। हालाँकि मै अपनी पढ़ाई पे पूरा ध्यान केंद्रित किये हुए था पर मए मैं उम्र के उस पड़ाव पे था जहाँ ये ध्यान का भंग हो जाना लाज़िमी था।

मैं केमिस्ट्री में थोड़ा कमजोर था तो पिता ने मुझे इसकी ट्यूशन लेने की हिदायत दी। जहाँ में केमिस्ट्री की क्लास अटेंड करने जाते था उससे थोड़ी दूर पे संगीत और नृत्य सिखाने का एक विद्याल था। जिसने मेरा ध्यान भंग किया वो खूबसूरत दोशीज़ा इसी संगीत के विद्यालय में संगीत और नृत्य सीखने आती थी।

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वो सिर्फ एक लड़की भर नहीं थी बल्कि उसमे स्वर्ग की अप्सरा के गुण भी विद्यामन थे। अभी उसका लड़कपन उसके साथ था। बमुश्किल उसने अब तक सोलह दीवाली ही देखी थी। मेरी उम्र भी उस समय अठारह या उन्नीस होगी। उससे कोई दो या तीन साल मैं बड़ा रहा हूँगा। यानी हम दोनों उम्र के उस पड़ाव पे थे जहाँ आकर्षण प्यार के नाम से दिलो में जगह बना लेता है। मैं जब केमिस्ट्री की बोरिंग क्लास से निकल के आता तो गली के मोड़ पे वो अपने गुलाबी होठो पे कोई सुरीला गीत गुनगनाती हुई मेरे इंतज़ार में खड़ी मिलती। हम अक्सर किसी पार्क के कोने में एक दूसरे का हाथ थामे दुबक जाते और वो मेरी फरमाइश पे मुझे सुरीले गाने सुनाती रहती। मैं उसकी नाव से आखो में तैरते हुए उसकी पत्थरो को पिघला देने वाली आवाज़ में गीत सुनते हुए उसके काँधे पे सर टिका देता। और फिर कुछ देर बाद वो अपनी नरम उंगलिओ को मेरे बालो में फिराते हुए कहती ‘चलो तपस्वी अब जाने दो देखो कितने देर हो गई है मां मेरा इंतज़ार कर रही होगी।’

मैं उसका हाथ पकड़ के इसरार करता ‘सँजोत तनिक देर और रुक जाओ।’ और वो मेरी बात सुनके मेरे काँधे पे अपना सर  रख कर अपनी बोझल पलकों को झपका कर किसी नानिदो के मानिंद मुझे यूँ तकने लगती जैसे उसे अगर मैं जाने से न रोकता तो वो फिर कभी मुझे देख ही नहीं पाती।

मैं सँजोत के इश्क़ में किसी परिंदे के मानिंद नीले आसमान में परवाज़ कर रहा था और सँजोत किसी नीलपरी सी मेरी इस उड़ान में अपने दुपट्टे को मेरे लिए पंख सा इस्तेमाल कर रही थी।

हालाँकि मैं सँजोत से बेपनाह प्रेम में डूबा था पर मैने कभी भी अपने इश्क की वजह से अपनी पढ़ाई पे कोई असर पड़ने नहीं दिया। खुद सँजोत मुझे पढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करती रहती थी।

पिता भी तक़रीबन हर महीने मुझसे मिलने आते थे। जब वे आते खुद अपने हाथो से कमरे में मेरी दैनिक प्रयोग की चीजे लाकर रख देते। टूथपेस्ट, साबुन, बालो में डालने वाला तेल, खाने के लिए नमकीन, पेड़े और बिस्किट जैसे न जाने कितने सामान पिता लाकर कमरे की अलमारियों में सजा देते। जब तक पिता शहर में रुकते वो अपने सामने मुझे बिठाकर  कुछ न कुछ खिलाते ही रहते। पढ़ाई के बारे में डिस्कस करते, कई बिन्दुओ पे एडवाईस करते।

वे अक्सर शाम को तनहा घूमने चले जाते और फिर काफी देर में लौटते। मैं जानता था छोटी अम्मा इसी शहर में कही रहती है। मैं सोचता शायद पिता उनसे ही मिलने जाते होंगे। मेरा मन इस ख्याल से ख़ुशी महसूस करता कि पिता, छोटी अम्मा से मिलने गए होंगे।

मैं बहुत याद करने की कोशिस करता पर छोटी अम्मा की सूरत मुझे याद नहीं आती। कभी – कभी सोचता पिता से कह दूँ कि अबकी जब वो छोटी अम्मा से मिलने जाये तो मुझे भी साथ में ले चले। पर फिर ये ख्याल मुझे ऐसा कहने से रोक लेता कि अगर पिता, छोटी अम्मा से मिलने नहीं जाते होंगे। अगर पिता उनको भुला चुके होंगे तो कहीं मेरे मुँह से छोटी अम्मा का ज़िक्र उन्हें व्यतिथ न कर दे।

मैं बहते समय के साथ स्नातक के दूसरे वर्ष  के इम्तिहान दे चूका था। गर्मियों के छुट्टियों में मैं अपने गाँव में था। न जाने क्यों मुझे पिता बेहद परेशान  नज़र आ रहे थे। वैसे जहाँ तक मैं जानता था पिता तो हमेशा ही परेशान रहे थे अपनी ज़िंदगी में। पर इस बार मैने उनके चेहरे पे जो परेशानी देखी वैसी परेशानी मैने उनके चेहरे पर कभी नहीं देखी थी। मेरा मन करता मैं कभी अकेले में उनसे उनकी परेशानी का सबब पूछूं। उनकी परेशनी कम करने की कोशिस करूँ। पर मैं ऐसा कर नहीं पाता। सच कहूं तो आज तक मैने पिता के सामने सर उठाकर एक लफ्ज़ तक न बोला था। मै उनके सामने जाकर उनसे उनकी परेशानी की वजह पूछूं, इतनी हिम्मत मैं कभी जुटा ही नहीं पाता।

पिता इस बार मुझसे कम ही बात करते। वो सुबह – सुबह ही हवेली से बिना कुछ कहे निकल जाते और रात गहराने के बाद आते। कभी – कभी तो अगले दिन रात ढलने पे घर लौटते। जब वे घर लौटते तो उनके कंधे मुझे पहले से ज्यादा झुके दिखाई देते और चेहरे पे निराशा के बदल नज़र आते।

मेरी छुट्टियां ख़त्म हो गई और शहर जाने से पहले मै अपने भीतर इतनी हिम्मत इकठ्ठा नहीं कर सका कि पिता से उनकी परेशानी जानने की कोशिस करूँ। मेरे शहर जाने के बाद पिता का भी शहर आने का क्रम बढ़ गया। इस बार वो कमरे पे ज्यादा नहीं रुकते। अधिकतर वो सुबह निकल जाते और देर रात गए लौटते।

पिता की परेशानी ने मुझे भी परेशान कर दिया था। मेरी इस परेशानी से परेशान होकर सँजोत मेरी परेशानी जाननी चाही। पिता की हालत के बारे में सँजोत को बताते हुए मेरी आँखों में आंसू के कतरे झिलमिला उठे।

अपने दुपट्टे पे मेरे आंसू जज्ब करके अपने नर्म हाथो से मेरा सर और चेहरा सहलाते हुए सँजोत ने मुझे दिलासा दी और मेरी हिम्मत बढ़ाते हुए उसने मुझसे कहा कि मैं तुरंत अपने पिता से उनकी परेशानी जानने की कोशिस करूँ। और ये एहसास दिलाऊ कि उनका बेटा अब उनकी हर परेशानी में उनके साथ खड़ा है।

उस समय शहर में दशहरे की सजावट हो रही थी जब सँजोत के कहने से मैं अपनी पिता की तकलीफ जानने के लिए गाँव जाने वाली बस में बैठा था। सँजोत मुझे बस अड्डे तक छोड़ने आई थी। आज वो भी न जाने क्यों मुझे उदास लगी थी। बस चल पड़ी तो मैं खिड़की से सर बाहर निकल कर उसे देखने लगा। तब तक देखता रहा जब तक वो नज़र से ओझल न हो गई। पूरे सफर में मुझे सँजोत की उदासी और पिता की परेशानी, परेशान करती रही। मैं पहले भी कई बार सँजोत से मिलने के बाद गाँव गया था पर वो कभी यूँ उदास नहीं हुई थी जैसे वो आज उदास थी।

मैं जब घर पहुंचा तो पिता अपने कमरे में थे। अपना बैग एक तरफ डाल के मै उनसे मिलने के लिए सीधा उनके कमरे की ओर गया। अमूमन पिता अपने कमरे का दरवाज़ा खुला रखते है, पर आज कमरे का दरवाज़ा बंद था। मैने सोचा शायद पिता सो रह गए, अगर अभी सोये होंगे तो उन्हें जगाना ठीक नहीं। जब जागेंगे तो उनसे आकर मिलूँगा, यह सोच कर अभी मैं जाने के लिए कमरे के दरवाज़े के पास से मुड़ा ही था कि मेरे मुझे कमरे के भीतर एक तेज स्वर सुनाई दिया। अपने पिता की आवाज़ मैं एक लाख लोगो के बीच में पहचान सकता था और मुझे यकीन था ये तेज़ स्वर मेरे पिता का नहीं था। फिर ये तेज़ आवाज़ में बात करने वाला कौन है,  जानने के लिए मेरे पाँव वही ठिठक गए।

मैंने दबे पाँव जाकर तनिक खुली खिड़की की झिर्री पे जाकर आँखे टिका दी। अंदर का दृश्य देख कर मैं एक बारगी काँप गया। मेरी देह का रोम – रोम क्रोध से खड़ा हो गया था।

अंदर मेरे पिता हाथ जोड़ के खड़े धीमे – धीमे कुछ कहते और उनके सामने कमर में हाथ रखे मेरी बुआ के लड़के गुस्से में मेरे पिता को दुत्कारने वाले अंदाज़ में चिल्लाने लगते।

मैं नहीं जानता था मेरे पिता की क्या मज़बूरी थी जो वो बुआ के लड़के से यूँ चिरौरी वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे और मेरी बुआ का लड़का जिसे मेरे पिता ने पढ़ाया लिखाया था वो मेरे पिता को तेज आवाज़ में दुत्कार रहा था। गुस्से की अधिकता से मेरे कांपते पाँव कमरे के दरवाज़े पे पहुँच कर भीतर घुसने ही वाला था किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैने पलट के देखा तो संजीवन लाल मेरा हाथ पकडे हुए थे और अपना सर हिलाकर विनती करने के अंदाज़ में मुझे भीतर जाने से रोक रहे थे।

संजीवन लाल प्रौढ़ उम्र के हमारे घर के नौकर थे। भले ही वो हमारे घर में नौकर थे पर मै उन्हें बेहद सम्मान देता था। सच कहूं तो मां की मौत के बाद पिता के आलावा एपूरी हवेली में एक संजीवन लाल ही थे जिन्होंने मेरा ख्याल रखा था और मेरी मां की वजह से मुझसे नफरत नहीं की थी बल्कि बेहद प्यार दिया था।

यद्पि मेरा  खौलता रक्त मुझसे कह रह था कि मै अभी कमरे में घुसकर पिता से तेज़ आवाज़ में बात करने वाले बुआ के लड़के का मुँह तोड़ दूँ पर संजीवन काका के मना करने से मैं ऐसा नहीं कर सका। संजीवन काका मेरा हाथ पकड़ के मुझे अपनी कोठरी में ले आये।  खटिया पे बिठाकर उन्होंने मुझे पीने के लिए गिलास में पानी दिया।

संजीवन काका मेरी मनोस्थिति समझ रहे थे इसलिए मेरे बिना किसी सवाल के कहा ‘बेटा तपस्वी तुम्हारे पिता गुड़िया की वजह से बहुत परेशां हैं।’

‘कौन गुड़िया ?’ गुड़िया नाम से मेरा सवाल बिलकुल जायज़ था क्योंकि मैं जानता था मेरे पूरे खानदान और रिश्तेदारी में किसी भी लड़की का रियल या निक नेम गुड़िया नहीं था।

‘तुम्हारी छोटी अम्मा की बेटी।’ काका के उत्तर ने धमनियों में बहते मेरे रक्त का प्रवाह तेज कर दिया था।

और फिर संजीवन काका ने मुझे जो भी  बताया उसे सुनकर मुझे लगा मानो मेरे पांव के नीचे की ज़मीन खिसक गई हो। उनकी कोठरी से थके पाँव चलकर अपने कमरे में मैं यूँ लेट गया मानो मै महीनो से बीमार रहा हूँ। मेरे पिता के परेशान रहने का राज़ मेरे दिमाग के सामने फाश हो गया था। ये राज़ जान के जब मैं इतना छटपटा रहा था तो पिता कितने छटपटाते होंगे, ये सोच कर मेरा सर फटने लगा था।

छोटी अम्मा की बेटी अब जवान होने की राह पे थी। भले ही छोटी अम्मा तवायफ हो पर पिता ने उनसे सच्चा प्रेम किया था। गुड़िया उसी प्रेम की निशानी थी। पिता नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी कोठे पे नाचे गाये। कोई भी पिता नहीं चाहेगा उसकी बेटी ऐसा काम करे। मेरे पिता की परेशानी का सबब यही था। छोटी अम्मा अपनी बेटी के साथ कोठे पे रहती थी और बहुत जल्द ही उस कोठे के नियमो के अनुसार उनकी बेटी के पाँव में घुंगरू बंधने वाले थे। छोटी अम्मा ने खुद से और गुड़िया से मिलने से पिता को रोका नहीं था पर वो कहती पिता से कहती कि तुम्हारी हवेली और कतिथ सभ्य समाज  से ये कोठा बेहतर है। यहाँ फिर भी हमारी कोई इज्जत है पर इसके बाहर तुम्हारे समाज हमें गालियां देकर जीने नहीं देगा। मेरे पिता ने जब छोटी अम्मा से कहा कि वो गुड़िया को कोठे की ज़िंदगी से दूर कर दे तो छोटी अम्मा ने हंस कर कहा उससे क्या होगा ठाकुर साहेब, तुम्हारे सभ्य समाज का कोई भी शख्स गुड़िया को जीबन संगनी बनाना नहीं चाहेगा।

संजीवन काका ने बताया की तब से ही ज़मीदार साहेब अपने हर दोस्त और जानने वाले से प्रार्थना कर रहे है कि वो अपने घर के किसी लड़के की शादी गुड़िया से करने को तैयार हो जाये। और बदले में वो सारे शख्स मेरे पिता का मखौल उड़ाकर कहते कि ‘ठाकुर साहेब नाचने वाली की लड़कियां नाच देखने के लिए ही ठीक है   शादी वादी की बात छोड़ो।

हमारे रिवाज़ में बुआ ले लड़के से किसी लड़की की शादी जायज़ मानी जाती है। इसलिए आज मेरे पिता बुआ के लड़के के सामने इसलिए गिड़गिड़ा रहे थे कि वो गुड़िया से शादी कर ले पर बुआ ले लड़के ने भी मेरे पिता से यही कहा की अगर वो चाहे तो तो गुड़िया का पहला मुजरा देख सकते है पर उससे शादी,  ये तो उनके ठाकुर रक्त के लिए एक  गाली है।

मेरे लाख सर पटकने के बाद पिता की परेशानी दूर करने का एक ही उपाय नज़र आया कि मैं छोटी अम्मा और गुड़िया से मिलू और गुड़िया को उस कोठे के दलदल से निकालने की कोई सूरत निकालू। अगर गुड़िया को कोठे की गन्दी ज़िंदगी से दूर करने का एक मात्र उपाय उसकी किसी अच्छे लड़के से शादी करना ही  है तो मैने मन ही मन सोचा कि अपने दोस्तों से बात करूँगा, शायद उनमे से कोई  गुड़िया को तवायफ की बेटी होने के भंवर से बाहर निकाल कर उसका हाथ थाम ले।

संजीवन काका से कोठे का पता और छोटी अम्मा की एक फोटो लेकर में शहर आ गया। ये फोटो काका ने पिता के एक पुराने अल्बम से निकाल के दी थी। फोटो में पिता और छोटी अम्मा साथ   खड़े थे। पिता की गोद में एक तीन – चार महीने की बच्ची थी। यक़ीनन ये गुड़िया थी। फोटो काफी पहले की थी पर मुझे इसके आधार पे ही उस कोठे पे पहुँच के छोटी अम्मा को पहचनाना था।

मैं क्लास अटेंड करने के बाद किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जिससे मै बिना हिचक उस कोठे का पता पूंछ संकू जहाँ छोटी अम्मा और उनकी बेटी रहती थी।

तभी मैने देखा सँजोत मेरे पास आकर खड़ी हो गई थी। आज उसकी संगीत की कोई  स्पेशल क्लास थी इसलिए वो थोड़ा लेट आई थी नहीं तो अमूमन मेरी और उसकी क्लास छूटने का टाईम तक़रीबन एक ही था।

‘वो आज देर से क्यों आई’ ये मेरे पूछने से पहले ही उसने बता दिया था कि आज उसकी एक विशेष क्लास है। फिर मेरी गांव की  विजिट और पिता की परेशानी के बारे में उसने पूछा था। अपने पिता की परेशानी की हकीकत मैं सँजोत को बता कर उसे परेशान नहीं करना चाहता था। सँजोत अभी एक कमसिन टीनएज थी शायद इन बातो से उसके दिलोज़ेहन को झटका लगेगा, यही सोचकर मैने विषय बदल के उसके बारे में पूछा था।

‘तपस्वी मुझे कुछ खरीदना है, पर मै खरीद नहीं पा रही क्या आप मेरे लिए लाके दोगे ?’

‘हाँ हाँ क्यों नहीं, बोलो क्या चाहिए तुम्हे ?’ मेरी आवाज़ में गज़ब का उत्साह था। मेरी आवाज़ में उत्साह का होना  लाज़िमी था आखिर सँजोत वो लड़की थी जो मुझे प्यार करते थी।  प्रेयसी ने प्रेयस से पहली बार कुछ माँगा था। प्रेयसी  प्रेयस से कुछ मांगे, मुहब्बत में ये पल  प्रेयस के लिए अनमोल होता है।

‘पर उसके पैसे मै दूंगी।’

पैसे में दूँ या तुमक्या फ़र्क़ पड़ता है सँजोत।’

नहीं तपस्वी मैं तभी लुंगी जब आप उसके पैसे लेंगे, और हाँ ये मेरी शर्त है।’

हालाँकि प्रेयसी की इस बात ने प्रेयस का उत्साह तनिक कम किया था पर फिर भी प्रेयस हाँ कह दी।

‘तपस्वी अब तक मैने कभी ब्रा नहीं बाँधी है, समीज ही पहनती आई हूँ। क्या आप ? बात अधूरी छोड़कर सँजोत ने आँखे झुका ली थी। मैने उसके गालो पे शर्म की लाली छलकते हुए महसूस की थी

मै और सँजोत दोनों एक दूसरे से बेपनाह प्यार करते थे। अब तक हमने हमने एक दूसरे को कई बार गले लगाया था एक दूसरे को चुम्बन दिए थे। घंटो एक – दूसरे का   हाथ थामे हमने बातें की थी। इन बातो में अंतरंग बातो की भी हिस्सेदारी थी। पर हम दोनों अब तक पवित्र थे। अब तक मैने सँजोत को बेलिबास नहीं देखा था।

हमने एक दूसरे से जो अंतरंग बातें की थी उसके असर से सँजोत मुझसे अपने लिए ब्रा लाने की बात कह पाई थी।

उसके गुलाबी होते गालो को अपनी ऊँगली से छूकर मैने कहा ‘मेरी भी एक शर्त है।’

‘क्या ? उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखे उठाकर मुझे देखते हुए पूछा।

‘मुझे पहन के दिखाओगी।’ मैने अपने होठो पे हास्य लाते हुए कहा।

‘धत्त।’ कह कर उसने वापस सर झुका लिया। मैने महसूस किया मेरी बात सुनके उसके गालों का गुलाबीपन ओर बढ़ गया है।

जब मैने शरारत से उससे पूछा ‘तो पक्का न’ तो वो शर्म की ताब न ला सकी और वहां से तेज कदमो से लगभग भागते हुए हुए अपनी क्लास की ओर चली गई।

वो शाम जो रात की काली चादर ओड चुकी थी और शहर की चमकती बिजली उसकी देह पे सितारों की तरह  झिलमलाने लगी थी, मैने उस शाम अपनी प्रेयसी के लिए ब्रा खरीदी थी। उसके गुलाबी गालों के रंग सी। उसकी क्लास छूटने पे उससे मिला और ब्रा का पैकेट उसकी और बढ़ा दिया जिसे उसने होले  लेकर अपने बैग में रख दिया। हमने साथ में चाय पी और फिर वो चली गई। उस शाम फिर मैने ब्रा को लेकर सँजोत को छेड़ा नहीं था। मै नहीं चाहता था मेरी प्रेमिका मेरी किसी बात से ओड फील करे। आखिर उसने मुझसे ब्रा खरीदने की बात इसलिए ही कही होगी क्योंकि मैं उसके लिए सबसे सुरक्षित लगा हूँगा। मैं उसके विश्वाश को खंडित नहीं करना चाहता था।

सँजोत के जाने के बाद मैने दुआ मांगी की ये रात जल्दी ढले और मैं कल दिन के उजाले में अपनी छोटी मां से मिल संकू। छोटी अम्मा जिस कोठे पे थी उसका पता चल गया था।

शाम को सँजोत जब अपनी क्लास चली गई थी तो मेंने अपना समय सिर्फ दो कामो में लगाया था एक तो सँजोत के लिए ब्रा खरीदने में और दूसरा छोटी अम्मा के पता मालूम करने में।

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मुझे कई युवतियों ने अपने हावभाव और अर्धउत्तेजक बातो से आकर्षित करने का प्रयास किया। उन्होंने शायद मुझे ग्राहक समझा होगा, ग्राहक को आकर्षित करना उनके लिए लाज़िमी बात थी। मुझे इधर – उधर तकते पा उनमे से एक दो ने ‘शायद पहली बार आया है’ कहा और कह कर हंस पड़ी।

मैं वहां छोटी अम्मा की तलाश में गया था। ये एक चारमंजिला भव्य काफी पुराना कोठा था। तीसरी मंजिल पे मुझे एक अधेड़ औरत नज़र आई जो बालकनी पे कोहनी टिकाये सूनी आँखों से सड़क को बेसबब निहारे जा रही थी। मुझे उसकी सूरत छोटी अम्मा सी लगी। जेब से फोटो निकाल के मैने उसपे एक नज़र डाली और फिर उस औरत के चेहरे पे। यदपि ये फोटो बीते ज़माने की थी पर मैने पहचान लिया था कि सामने खड़ी वो सूनी आंखों वाली वो औरत और कोई नहीं बल्कि मेरी छोटी अम्मा हैं। उन्हें देखकर मेरे दिलोज़ेहन पे एक अज़ब सी ख़ुशी तारी हो गई। प्रसन्नता की अधिकता में मेरे कदम उनसे मिलने के लिए उनकी और बढ़े ही थे कि अचानक ठिठक के ज़मीन से चिपक गए। जहाँ छोटी अम्मा खड़ी थी वहां पीछे कमरे के दरवाज़ा अचानक खुला और एक अल्हड़ लड़की ‘लीजिये मम्मी चाय पी लीजिये’ कहते हुए आई और छोटी अम्मा ने मुस्कराते हुए उसके हाथ से चाय का कप ले लिया।

मेरे दिल मैं जोरदार झटका लगा। छोटी अम्मा की बेटी -वो गुड़िया जिसकी चिंता में पिता ने बिस्तर पकड़ लिया था। वो गुड़िया, जिसके लिए मैं सोचता था कि जिस दिन जिस घडी वो मेरे सामने होगी मैं भाग कर उसे गले लगा लूंगा। वो गुड़िया आज जब सामने सामने थी तो मेरे अंदर इतना ताकत नहीं बची थी कि मैं आगे बडू उसे गले लगाकर कहूं ‘गुड़िया देख मै तेरा भाई हूँ।’

मेरे पूरा शरीर किसी सूखे पत्ते की भांति ये सोचकर काँप रहा था कि गुड़िया को मैं न जाने कितनी बार गले लगा चुका हुँ, अपनी बहन गुड़िया की तरह नहीं बल्कि अपनी प्रेमिका सँजोत की तरह।

कांपते दिल और शरीर की वजह से मैं चककर खा कर गिरता उससे पहले न जाने मेरे पांव में कहाँ से इतनी ताकत आई कि पलट कर सीढ़ियों की तरफ भागा। मैं जानता था अगर मै कुछ देर वहां और खड़ा रहा तो मेरे दिल की धड़कने रुक जायगी या मेरा सर किसी बम की तरह फट जाएगा।

सीढ़ियां उतर के मैं अभी पहली मंज़िल तक ही पहुंचा था की किसी ने मेरा हाथ पकड़ के कहा ‘चल आ जा तुझे डांस की बिजली दिखाती हूँ।’

‘नहीं।’ कहकर उससे हाथ  छुड़ा ही  रहा था कि एक और लड़की ने मेरा हाथ पकड़ के कहा ‘अरे ये तो शायद विभा की बेटी सँजोत का डांस देखने आया था, क्यों रे में सच कह रही हूँ ?’

‘ओह तो ये उसके लिए आया था।’ पहली वाली लड़की मुस्कराते हुए बोली ‘तूँ दिखने में तो उसके लायक है पर उसने अब तक अपना पहला नाच नहीं नाचा है। अरे उसके पहले नाच पे इस कोठे को कम से कम पच्चीस हज़ार तो मिलगे ही।’

उनकी बाते किसी शोले की तरह मेरे कानो में घुसी और मैने गुस्से में उनसे हाथ छुड़ाने के लिए ताकत लगा के उन्हें धक्का दे दिया। धक्का खाने से उन्हें भी गुस्सा आया और वो तेज़ आवाज़ में मुझे पे अंट – शंट चिल्लाने लगी। उनकी आवाज़ से ऊपरी मंजिल के लोग नीचे झांकने लगे। मेरी नज़र बरबस ऊपर उठी, छोटी अम्मा के साथ सँजोत ऊपर खड़ी थी। अचानक मेरी नज़र सँजोत से चार हुईं। अब मै वहां एक पल भी नहीं रुक सकता था।

रूम में पहुँच के मैने खुद को वहां कैद कर दिया। केमिस्ट्री की उस दिन विशेष क्लास थी, पर मैं नहीं गया। मेरे दिल पे एक अज़ब बोझ छा गया था। उफ़्फ़… सँजोत…  जिसे मैने न जाने कितनी बार गले लगाया, न जाने कितनी बार जिसे मैने चूमा था वो मेरे पिता की संतान मेरी हाफ सिस्टर थी। वो गुड़िया थी। मै ये सोच – सोच के हलकान था जब सँजोत इस सच से रूबरू होगी तो किस तौर उससे नज़रे  मिलाऊँगा। जब वो ये जानेगी जिस लड़के ने उसे चूमा है, जिस लड़के को उनसे चूमा है वो उसका हाफ ब्रदर है तो क्या उसे मुझसे और खुद के वज़ूद से नफरत न हो जायगी। नफरत तो मुझे भी अपने वज़ूद से हो रही थी बस एक यही बात मुझे ज़िंदा रखे हुए थी कि हमने भावनाओ में बढ़कर अब तक हदें पार नहीं की थी। उफ़्फ़… अगर ऐसा हो जाता तो… तो यक़ीनन आज मैने खुद को मिटा दिया होता।

ठक ठक ठक…

दरवाज़े हुई आवाज़ ने मेरे विचारो  की श्रृंखला तोड़ दी। खटिया से उठाकर थके कदमो से चलकर मैने दरवाज़ा खोल दिआ। सामने सँजोत को देखकर मेरा शरीर किसी सूखे पत्ते की तरह काँप उठी। धमनियों में बहता लहू सर्द होने लगा।  धड़कता दिल, मुझे बैठता हुआ महसूस हुआ।

‘आज क्लास नहीं गए ?’ मुझसे पूछते हुए सँजोत मेरे बगल से चलकर कमरे के भीतर आ गई। वो पहले भी एक – दो बार मेरे कमरे में आई थी और जब भी आई थी मेरा दिल ख़ुशी से किसी  मयूर की तरह नृत्य कर उठा था। पर आज उसे अपने कमरे में आया देख कर मेरी हालत किसी मुर्दे के भांति थी।

‘क्या हुआ कुछ परेशान हो तपस्वी ?’ मुझे खामोश पाके मेरी बाँह पकड़  के मेरा चेहरा अपनी ज़ानिब घुमाते हुए उसने पूछा था।

सँजोत द्वारा मेरी पकड़ने से मुझे ऐसा लगा जैसे मैं उसे एक ऐसे पाप का भागीदार  बना चूका हूँ जिसके बारे में वो कुछ नहीं जानती। उसका हाथ अपनी बाँह से अलग करते हुए मैने बमुश्किल कहा  ‘कुछ नहीं बस न जाने क्यों ‘जी’ अच्छा नहीं लग रहा है।’

‘क्यों जी क्यों नहीं अच्छा लग रहा ?’ फिर वो पाने पंजो पे उचक के मेरे माथे को अपने दाहिने हाथ से छूकर बोली ‘सर में दर्द हे क्या ?’

‘नहीं – नहीं कोई दर्द नहीं है।’ उसके हाथ की ज़द से अलग होते हुए मैं खटिया में बैठ गया।

कुछ देर वो मुझे ननिदी आँखों से तकती रही फिर होठो पे हास्य लाकर बोली ‘तपस्वी मैं जानती हूँ तुम्हारा जी क्यों नहीं अच्छा है।’ फिर वो अपने साथ लाया बैग अपने हाथे में पकड़ के लकड़ी की कबर्ड के पीछे चली गई।

ये लकड़ी की कबर्ड कपडे और कुछ अन्य छोटा – मोटा सामान रखने के लिए पिता ने खरीद के लाकर कमरे में रखी थी। ये कबर्ड मैने कमरे मैं ऐसे रखी थी जिससे कमरे में हाफ पार्टीशन सा बन गया था। जब कोई दूसरा कमरे में होता तो कबर्ड के पीछे वाले हिस्से में जाकर मैं कपडे वगैरा चेंज कर लिया करता था।

‘तुम्हे क्या लगता है तपस्वी तुम कुछ मुझसे मागोगे और हम नहीं देंगे।’ कुछ देर बाद सँजोत कबर्ड के पीछे से निकल के  आ गई थी।

उफ्फ्फ…! वो नहीं जानती थी वो इस वक़्त क्या कर रही है।

पर उसकी क्या गलती थी वो कहाँ जानती थी कि वो मेरी हाफ सिस्टर है। मुझे ऐसा लगा जैसे इस सारी दुनिया में इस वक़्त मुझ से बढ़कर और कोई दूसरा पापी नहीं। मैने ही तो कल उससे कहा था मैं उसे ब्रा में देखना चाहता हूँ। कल कही मेरी ये बात इस वक़्त मेरी देह में किसी नश्तर की तरह चुभ रही थी।

सँजोत इस वक़्त कमर के ऊपर के हिस्से में सिर्फ ब्रा पहने मेरे सामने खड़ी थी। होठो पे लाज  से लिपटा हास्य लिए। मुझे ऐसा लगा कि धरती फ़टे और मुझे मेरे पाप के साथ अपने में समाहित कर ले। वो गुड़िया जो मेरे पिता की संतान थी जिसे कॉपी – किताब, गुड़िया – गुड्डे जैसे उपहार मुझे देने चाहिए थे उसे मैने उपहार में ब्रा दी थी।

‘अच्छा ये बताओ तपस्वी तुमने इसे गुलाबी रंग की ही क्यों ली ?’ कोई भी  प्रेमिका  अपने प्रेमी से ये सवाल करना सामन्य सी बात है। सँजोत वक़्त की चाल से अनजान इस यही कर रही थी। पर मैं जड़वत किसी बुत के मानिंद खामोश खड़ा था।

मुझे यूँ खामोश देख सँजोत अनजाने में अपने प्रेमी पे अपना विश्वास ओर गहरा करने के लिए घूमकर मेरे सामने अपनी नग्न पीठ करते हुए बोली ‘तपस्वी इसके हुक में नहीं लगा पा रही हूँ प्लीस लगा दीजिये न।’

हिम्मत करके मैने अपनी आँखे सँजोत की और उठाई। उसकी नग्न पीठ पे ब्रा की की स्ट्रिप झूल रही थी। मुझे उन स्ट्रिप को देख कर ऐसे लगा कल जिस प्रेमिका को मैने ब्रा दी थी असल में मैने अपनी हाफ सिस्टर को डसने के नाग दे दिए थे। इस वक़्त सँजोत के पीठ पे झूलती ब्रा की स्ट्रिप्स मुझे अपनी हाफ सिस्टर गुड़िया की पीठ पे झूलती किसी नागिन सी प्रतीत हुई।

‘प्लीस तपस्वी लगा दीजिये न हुक देखो मेरे हाथ वहां तक नहीं पहुँचते।’ जब अपने हाथ मोड़कर अपनी पीठ पे ब्रा के हुक लगाने का असफल प्रयास करते हुए कहा तो मेरे सब्र का बांध टूट गया।

तेज कदमो से मैं कबर्ड के पीछे से उसका कमीज लाकर उसके कंधे पे फेंकते हुए मैने बेहद तेज़ आवाज़ में कहा ‘तुम्हे समझ नहीं आता क्या, जब मैं कह रहा हूँ मेरा जी अच्छा नहीं तो भी तुम बकवास किये जा रही हो। इसे पहने और इस वक़्त मुझे अकेला छोड़ दो।’

मेरी आवाज़ इस कदर तेज थी कि उसके असर से सँजोत की देह एकबारगी काँप गई। उसकी आँखों में आंसू की बुँदे छलछला आई। एक उदास नज़र मेरे चेहरे पे छोड़कर वो अपने मेरे द्वारा फेंकी गई अपने कंधे पे पड़ी कमीज अपने हाथ में लेकर लरज़ते पाँव से कबर्ड के पीछे चली गई।

कुछ देर में जब वो कबर्ड के पीछे से कमीज पहन कर बाहर आई तो मैं सर झुकाये खटिया पे बैठे थे। मुझ से कुछ दूरी पे तनिक देर वो चुपचाप खड़ी रही फिर वो बोली ‘तपस्वी मैं जानती हूँ कि तम्हारा जी क्यों ख़राब है।’

‘प्लीज़ अभी तुम यहाँ से चली जाओ।’  मैने वैसे ही सर झुकाये हुए कहा था।

‘यक़ीनन तपस्वी मैं चली जाउंगी, या  मुझे अब जाना ही होगा इस कमरे से तो क्या तुम्हारी ज़िंदगी से भी मुझे अब जाना ही पड़ेगा। पर जाने से पहले मैं तुम्हे ये   बताना चाहती हूँ कि मुझे तुम्हारी ज़िंदगी और तुम्हरे कमरे में रहने का हक़ क्यों नहीं रहा।’

सँजोत की बात सुनके मेरे जेहन को झटका लगा। वो क्या कहना चाहती है। क्या वो भी जान गई है कि वो मेरी हाफ सिस्टर है। अगर जान गई है तो फिर आज उसने जो हरकत कि है वो अक्षम्य है। इतना सोचते ही मेरे जेहन में गुस्से की लहर से उठी और इसी लहर के गुस्से में मैने कहा ‘क्या कहना चाहती हो तुम, किस तरह की बात कर रही हो, कौन सी वजह का ज़िक्र करोगी तुम। जबकि मैने तुमसे इस वक़्त अपनी तबियत ख़राब होने की वजह से तुम्हे कमरे से जाने की सामन्य बात कही है।’

‘तुम्हारी तबियत आज से पहले भी ख़राब हुई है पर तब तुम्हारे बात करने का लहज़ा ऐसा तो नहीं था।’

एक तीखी नज़र से मुझे सरापा देखने के बाद वो वापस बोली ‘जानते हो तपस्वी तुम्हारी इसलिए ख़राब है क्योंकि तुमने अपनी इस प्रेमिका की हक़ीक़त जान ली है।’

‘कैसी… कौन सी… हकीकत ?’ मैने मेरी आवाज़ में इस बात का डर तारी था कि सँजोत आगे यही  कहेगी कि कितने नीच और पापी लड़के हो तुम, जबकि तुम जान गए हो कि में तुम्हारे ही पिता की संतान हूँ तो मेरी देह देखने की लालच में मुझे ये सच बता नहीं रहे।

तुम एक ज़मीदार के लड़के हो तपस्वी, फिर मैने तुमसे प्यार किया जबकि ज़मीदारो के ज़ुलमो के किस्सों से न जाने घरो में आहे भरी जाती है। जानते हो तपस्वी मुझे तुम ऐसे लगे जैसे तुम ज़मीदारी वाले कोई अवगुण नहीं तुम लोगो का दर्द समझ सकते हो एक सामन्य लड़के की तरह।’ अपनी बात का  असर जानने के लिए शायद उसने एक नज़र मेरे चेहरे पे डाली और फिर पलट कर मेरे ज़ानिब पीठ करते हुए उसने कहा ‘तपस्वी अब तुम मुझे हिकारत भरी नज़र से इसलिए देख रहे हो कि मै एक तवायफ की बेटी हूँ, कोठे पे रहती हूँ। इसमेंभी तुम शायद मेरी ही गलती दोगे, मुझ पे आरोप लगाओगे कि मैने अपना सच छुपा कर तुम्हे अपने जाल में फंसाया। तपस्वी मैं  अपने लिए बीते दिन से तुम्हारी बदली नज़र की वजह समझ गई हूँ। तुम्हारी दुनिया तुम्हारे काबिल मैं हूँ नहीं, इसलिए तुम्हारी ज़िंदगी से ख़ामोशी से चली जा रही हूँ। तुमसे कोई सफाई नहीं मांगूगी, इस बात की भी सफाई नहीं मांगूगी तपस्वी कि मए तो एक तवायफ की बेटी होने की वजह से अपवित्र हूँ पर तुम कल कोठे पे किस पवित्रता का परचम बुलंद करने आये थे ?’

इतना कह कर बिना मेरी ओर पलटे, मुझे देखे उसने झटके से बैग उठाकर अपने दाएं कंधे पे झुलाया और और तूफान जैसे कदम उठाकर कमरे से बाहर निकल गई।

मेरा ईश्वर जानता था कि सँजोत अगर किसी ओर तयावफ की  बेटी होती तो मुझे बाल बराबर फ़र्क़ नहीं पड़ता। पर ये मेरा दुर्भाग्य था और सच कहूं तो ये उसका भी दुर्भाग्य था कि वो जिस तवायफ की बेटी थी वो मेरी छोटी अम्मा थी और वो खुद मेरे पिता की संतान थी। मेरी हाफ सिस्टर थी।

सँजोत की कही बाटे मेरे दिलोज़ेहन में नश्तर की तरह घुसी थी। मैं भागकर उसे रोकना चाहता था पर उस वक़्त न जाने क्यों मुझे उसका जाना ही उचित लगा। फिर उसके जाने की वजह कुछ भी रही हो।

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उस शाम जब मुझे कमरे में तनहा छोड़कर सँजोत गई तो मैने खुद को उस कमरे में तनहा कैद कर दिया। कालेज और  ट्यूशन की क्लास से मानो मुझे कोई मतलब ही न रहा हो। ज़िंदगी अपनी ही पिता की संतान को प्रेमिका की मानिंद चूमने उसकी देह सहलाने के बोझ से बेज़ार हो उठी। कहाँ मैं पिता की परेशानी दूर करने की कोशिस में थाऔर आज मुझे लगता था जैसे इस संसार का सबसे ज्यादा परेशान हाल व्यक्ति मैं हूँ। कहाँ तो अपने पिता की संतान अपनी हाफ सिस्टर की ज़िंदगी संवारना चाहता था और कहाँ मैने उसे जहाँ भर के दुःख दे डाले। और सबसे बड़ा दुःख तो उसकी  हंसती – खेलती ज़िंदगी में छुपा दिया कि जब उसे पता चलेगा कि उसने जिस लड़के से मुहब्बत की वो उसके ही पिता की संतान है तो क्या वो ये लज्जा जनक सदमा बर्दाश्त भी कर पाएगी।

यूँ ही एक दोपहर जब मैं अपनी ज़िंदगी से बेजार अपने दिल पे रखे कटु बोझ से लड़ने के लिए व्हिस्की का सहारा ले रहा था। हाँ आप लोगो ने सही समझा मै शराब पी रहा था, हमारे ज़मीदार घराने के इस व्यसन ने आखिर मुझे अपने ज़द में ले ही  लिया था।

हाँ तो मैं कह रहा था जब उस दोपहर मैं शराब की सरपरस्ती में बैठा था तो मुझे पिता का खत मिला। जिसमे सिर्फ दो लाईन लिखी थी।

पहली लाईन में आशीर्वाद और दूसरी लाईन मैं उन्होंने मुझे फ़ौरन से पेश्तर उनके पास पहुँचने को कहा था।

खत पढ़के मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से काँप उठा था। मैने तुरंत एक बैग में एक – दो जोड़ी कपडे डाले और बस स्टेशन की ओर भाग पड़ा।

संजीवन काका मुझे हवेली की  ड्योढ़ी पर ही मिल गए। ‘पिता कैसे हैं ?’ मैने सीधा सवाल किया।

‘बुखार आ रहा है कई दिनों से ?’ संजीवन काका के जवाब से तनिक गुस्सा करते हुए मैने कहा तो शहर ले आते वहां के डॉक्टर से दिखा के दवा ले लेते।’

और फिर मैं सीधा पिता के कमरे में पहुँच गया।     गोल तकियो के सहारे वो अधलेटी अवस्था में कहीं शून्य में  देखे जा रहे थे। गुड़िया के भविष्य की चिंता ने पिता को समय से पहले ही बूढ़ा और बीमार बना दिया था। जब मेरे आने की आहट भी पिता को उनके ख्यालो से आज़ाद नहीं कर सकी तो मैने होले से पुकारा ‘पिता जी।’

उन्होंने मुझे यूँ देखा जैसे या तो वो अनंत सफर से लौटे हो या फिर मैं कोई लम्बा सफर  तय करके आया हूँ।

पिता के चरण स्पर्श करके मै उनके करीब ज्यों ही बैठा त्यों ही उन्हने कहा ‘तपस्वी बेटा ये तुम्हारा थका हारा पिता तुमसे कुछ मांगना चाहता है, मुझे उम्मीद है तुम अपने पिता को निराश नहीं करोगे।’

‘पिता जी आप ये कह कह रहे है।’ उनके पांव के पास बैठते हुए मैने कहा ‘कहीं कोई पिता अपने बेटे के रहते थका – हारा हो सकता है, और ये पुत्र से  पिता कुछ मांगे ऐसे उलटी परिपाटी आप क्यों डाल रहे है। आप तो बस आदेश कीजिये मुझे कि मुझे क्या करना है।’

मेरी बात सुनकर मेरे पिता मुझे  थोड़ी देर स्थिर नज़रो से देखते रहे और फिर उठकर बैठते हुए मेरा दाया हाथ अपने दोनों  हाथों के बीच ले लेकर बोले ‘तपस्वी तुम गुड़िया से शादी कर लो।’

पिता की बात सुनके मानो मुझे लकुवा मार गया हो, क्या गुड़िया के भविष्य की चिंता ने पिता के दिमाग का संतुलन बिगड़ दिया था जो वे अपनी एक संतान को अपनी ही दूसरी संतान से विवाह करने को कह रहे थे। पिता मुझसे ऐसा कह सकते है ये मेरे यकीन के बाहर की बात थी। और इसी वजह से इस उम्मीद में कि हो सकता है पिता किसी और गुड़िया की बात कर रहे हो मैने उनसे पूछा ‘कौन गुड़िया, छोटी अम्मा की बेटी ?’

मेरी बात के जवाब में पिता ने जैसे ही धीमी आवाज़ में ‘हाँ’ कहा मै उनके हाथ से अपना हाथ छुड़ा के खडे होते हुए बोला ‘जबकि आप ये जानते हैं कि अनर्थ है फिर भी ऐसा कहने को आप कैसे कह सकते है।’ मैं वापस पिता के पास चारपाई पे बैठ गया और इस बार उनका दायाँ हाथ मेरे दोनों हाथ के बीच में था। उनके हाथ की सहलाते हुए मैने कहा ‘पिताजी मै और गुड़िया दोनों ही आपकी संतान है, ये आप जानते है फिर भी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं। मैं जानता हूँ आप गुड़िया को लेकर बहुत परेशां है पर  परेशानी का हल नहीं है। हम दोनों मिलकर सोचेंगे और जल्द ही गुड़िया को यहाँ ले आएंगे।’

‘तपस्वी।’ पिता अपना हाथ मेरे हाथ से अलग करके मेरे बाल सहला के बोले ‘मैं यही चाहता हूँ कि गुड़िया को तुम यहाँ ले आओ, उससे शादी करके।’

‘एक ही पिता की संताने आपस में विवाह करे इससे बढ़कर और क्या पाप होगा, ये तो आप जानते ही होंगे पिताजी।’ कहकर मैं उठकर कमरे की खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया।

पिता भी मेरे पास आकर खड़े हो गए मैने बिना उनकी और देखे कहा ‘पिता जी मेरे लिए ये असंभव है आपका बेटा शर्मिंदा है कि उसके पिता ने उससे ऐसी कोई बात कही।’

‘तपस्वी मैं जानता हूँ कि ये पाप है पर तुम क्या ये विश्वाश करोगे कि तुमसे ये पाप करने के लिए मैं कह सकता हूँ।’

‘पर आप कह रहे है पिताजी।’ उनकी बात सुनकर मैने उनके चेहरे एक उड़ती नज़र डाल के कहा।

‘जानते हो तपस्वी जब पूरा गाँव तुम्हारी मां को चिता में ज़िंदा जला देने चाहते थे तो उन्होंने क्यों अपने को ज़िंदा रखने के अपनी सारी ताकत झोंक दी थी जबकि उनके सामने उनके प्रेमी का शव पड़ा था उस प्रेमी के शव जिसके साथ उन्होंने जीने मरने की कसमे खाई थी। और जब उनका वो प्रेमी मौत के आगोश में चला गया तो वो मरने की जगह खुद को ज़िंदा रखने की पुरज़ोर ज़द्दोज़हद कर रही थी।’

पिता की बात मेरी समझ के बाहर थी। मेरे सवालिया निगाहे उनके चेहरे पे टिक के रह गई थी।

पिता ने आगे बढ़कर मेरे कंधे अपने मज़बूत हाथो से थामे और मेरी आँखों में अपनी लाल बड़ी रोबीली आँखे डालके बोले ‘क्योंकि उस वक़्त उस वीरांगना की कोख में तुम साँसे ले रहे थे, वो तुम्हे ज़िंदा रखने ले लिए घोर दुःख में भी ज़िंदा रहना चाहती थी।’

मतलब…। मेरे आगे के शब्द मेरे हलक में फंस गए।

हालाँकि मैं अपने भाइयो की तरह ज़मीदारी प्रवृति का नहीं था फिर भी वो अपने प्रेमी के क़ातिल के भाई यानि मेरे साथ रहने को तैयार हो गई इसलिए क्योंकि वो तुम्हारी परवरिश करना चाहती थी।

तो क्या…? मेरे शब्द वापस हलक में फंस गए थे।

हाँ तुम उसी शाक्य युवक सीवली की संतान हो जिससे तुम्हारी मां प्रेम करती थी। पवित्र प्रेम, इतना पवित्र कि मुझसे विवाह करके मेरे पास रहके भी हमने एक – दूसरे को कभी छुआ नहीं।तुम्हारा जन्मदाता पिता तुम्हारी मां का प्रेमी था, मैं तो सिर्फ तुम्हारा पालनहार पिता हूँ।’

पिता की बात सुनके न जाने कितने लम्हे मैं साकित उन्हें देखता रहा और फिर आगे बढ़के उनके  शरीर से लिपटते हुए बोला मेरी मां को ससम्मान जीवन देने वाले व्यक्ति से मेरी प्रर्थना है कि वो मुझसे उन्हें पिता कहने का हक़ न छीने अन्यथा मेरा जीवन दुश्वार हो जायेगा।’

‘और तुम्हारा ये पिता तुम्हारी देवी सी मां की अपने ही घर वालो से बचा पाने में नाकाम रहा, उन्हें  धीमा ज़हर देकर मार दिया गया।’

‘मां को ज़हर देकर मारा गया था ये जानके मेरे मन में पूरे ज़मीदार घराने के लिए नफरत पैदा हो गई। पर मेरे सामने एक देवता समान विराट व्यक्तित्व खड़ा था। उस महान व्यक्तित्व ने मेरे मन में नफरत की जगह प्रेम के बीज बो दिए थे।

मैं न जाने कितनी देर खामोश खड़ा रहा और फिर उनके पैर  छूके ज्यों जाने को हुआ उन्होंने पूछा ‘कहाँ जा रहे हो ?’

‘गुड़िया को सम्मान देने, पूरे सम्मान के साथ छोटी अम्मा के साथ उसे इस हवेली में लाने के लिए।’

पर बिना किसी हक़ के न तो गुड़िया यहाँ आएगी और न उसकी छोटी अम्मा। और तुम तो जानते हो तपस्वी, गुड़िया को इस हवेली की बेटी का हक़ अगर में दे भी दू तो हवेली और समाज उसे ठुकरा देगा।’

पिता आप भी किस समाज की बात लेकर बैठे है, ख़ैर कोई बात नहीं गुड़िया को अपनी पत्नी की हैसियत से यहाँ लेकर आऊंगा।’

मेरी बात सुनके पिता के होठो पे सुकून का हास्य उभर आया और मैं वहां खूटी पे टंगी पिता की जीप की चाभी लेकर निकल गया।

पिता की जीप आज मेरी सबसे बड़ी जरूरत थी। मैं हवा की मानिंद उड़कर सँजोत के पास पहुँच जाना चाहता था। गाँव आने के लिए शहर में बस अड्डे पे जब मैं बस पकड़ने आया था तो वहां मेरे एक दोस्त ने जिसके साथ में छोटी अम्मा वाले कोठे पे गया था उसने बताया था कि आज कोठे पे बड़ी सजावट का काम चल रहा है, शायद किसी नई लड़की का पहला मुज़रा होगा। उस वक़्त बेज़ारी के आलम में मैं कुछ भी सोचने के हाल में नहीं था। पर अब मेरे मन में ये आशंका दस्तक दे रही थी कि कहीं वो मुज़रा सँजोत का तो नहीं। दिल में ये ख्याल आते ही मेरे पाँव का दबाव एक्सिलरेटर पे बढ़ गया था।

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सच में पूरा कोठा दूध सी रौशनी में जगमगा रहा था। तमाम लोग लक – दक कपड़ो में में कोठे की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। जीप एक किनारे रोक कर ‘कहीं मुझे देर तो नहीं हो गई’ सोचते हुए मैं जीप से कूद कर कोठे की और लपका। पलक झपकते तमाम  सीढियाँ चढ़कर मैं सीधे तीसरी मंजिल पे पहुँच गया था। यहाँ की सजवाट बाकी कोठे जी सजवाट से कहीं अधिक थी।

‘सँजोत कहाँ है ?’ मैने एक साजिंदे से हांफते हुए पूछा।

‘उस तरफ।’ उसने एक कमरे की ओर  इशारा किया और फिर मुझे रोकते हुए बोला ‘लेकिन तुम वहां नहीं जा सकते।

आज तो मुझे संसार की कोई शक्ति नहीं रोक सकती थी। मेरे एक तिरछी नज़र ने ही उसे सहमने पे विवश कर दिया। अगले ही पल मैं उस कमरे में थी जहाँ एक आईने के सामने सजी धजी सँजोत खड़ी थी।   वही थोड़ी दूर पे एक सोफे में सर झुकाये छोटी अम्मा बैठी थी।

आईने में अपने पीछे मेरे होने के एहसास ने एक बार उसके शरीर को कंपा दिया। पर वो तुरंत ही सम्भल के बोली  ‘मम्मी इसने कहो मुजरा यहाँ कमरे में नहीं बाहर हाल में है।’

सँजोत की बात सुनके छोटी अम्मा ने सर उठाया तो कमरे में एक अज़नबी युवक को देख कर  चौंक पड़ी।

‘और छोटी अम्मा इन्हे भी बता तो कि कमरे में कोई अपना ही आ सकता।’ मेरे मुँह से ‘छोटी अम्मा’ सम्बोधन सुनके सँजोत और छोटी अम्मा दोनों ही ने आश्चर्य से मुझे देखा था।

‘मम्मी इनसे कहो की मुजरा करने वाली लड़की के लिए न  कोई अपना होता है और न कोई पराया।’ फिर वो तो कदम चलकर मेरे पास आकर बोली ‘और अम्मी इनसे ये भी पूछिए की एक तवायफ की बेटी से नफरत करने वाला आज उसी बेटी की मम्मी को किस हक़ से छोटी अम्मा कह रहा है।’

‘छोटी अम्मा’ मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या तुम दोनों एक दूसरे को जानते हो ?’ छोटी अम्मा ने पहले मुझे घूरा और फिर सँजोत की और देखते हुए पूछा ‘गुड़िया क्या तुम इस लड़के को जानती हो ?’

छोटी अम्मा के सवाल पे सँजोत तुरंत कोई जवाब  न दे सकी तो मैने आगे बढ़कर छोटी अम्मा से कहा ‘हाँ छोटी अम्मा मै सँजोत को जानता हूँ , हम दोनों एक दूसरे को जानते है और सच कहो तो मैं तो आपको भी जानता हूँ छोटी अम्मा।’

‘मुझे भी जानते हो ?’ फिर छोटी अम्मा ने सँजोत का हाथ पकड़ के पूछा ‘मुझे बता गुड़िया ये लड़का कौन है, अगर तुम इसे जानती हो तो किस तौर जानती हो ?’

छोटी अम्मा के सवाल पे इस बार सँजोत टूट गई वहीँ जमीन में घुटनो के बल बैठ उसकी रुलाई उसके हलक से फूट पड़ी। उसे रोता देख छोटी अम्मा ने मुझसे कहा तुम कौन हो और सँजोत को कैसे जानते हो ?’

‘छोटी अम्मा तक़रीबन एक साल से हम दोनों एक दूसरे को जानते है, मैं प्यार करता हूँ इस लड़की से।’

मेरी बात पूरी होते ही सँजोत किसी बिफरी शेरनी सी उठी और अपनी आवाज़ में ताब लाते हुए उसने कहा ‘तपस्वी जो तुम मुझे प्यार करते तो मुझे एक तवायफ की बेटी जानने के बाद मुझ से मुँह न मोड़ लेते।’

सँजोत मैने तुमसे मुँह इसलिए नहीं मोड़ा था कि तुम एक तवायफ़ की बेटी हो, मैने तो मुँह इसलिए मोड़ा था कि मुझे अंदेशा हो गया था कि  हम दोनों की धमनियों में परमार हवेली का खून है।’

‘परमार हवेली, मैं कुछ समझी नहीं। तुम कौन हो बेटे ?’ छोटी अम्मा ने पहली बार मुझे छुआ था। बदले में मैने उनके पैर छूकर कहा ‘जसपाल परमार की बेटी ने अगर मुजरा किया तो वो खुद को ज़िंदा नहीं रहने देंगे और मैं अपने पिता को मरने नहीं दुगा।’

‘तुम उनके बेटे हो ?

‘हाँ छोटी मां, और वो आपका और अपनी गुड़िया का बेसब्री से हवेली में इंतज़ार कर रहे हैं।’

तुम शायद नहीं जानते तपस्वी बेटे एक बार मैं गुड़िया को लेकर गई थी उस हवेली पर वहां रुक न सकी, जब उस हवेली ने गुड़िया को बेटी मानने से इंकार कर दिया तो अब गुड़िया किस हक़ से वहां से जायगी ?’

‘छोटी अम्मा क्या सँजोत से मेरा प्रेम उसे कोई हक़ नहीं देता ?’

‘पर तुमने तो कहा तुम भी उनके बेटे हो फिर ?’

‘कहते है कि पालनहार पिता भी पिता ही होता है छोटी मां।’

छोटी मां मेरी बात का कोई जवाब दे पाती उससे पहले एक संजिन्दा अंदर आके बोला ‘मुजरे का समय हो गया है सब लोग आ गए।’

उसके जाते ही मैने कहा ‘छोटी अम्मा बाकी मैं आपको रास्ते में या फिर हवेली पहुँच के समझाता हूँ अभी समय नहीं है हमें तुरंत निकलना होगा।’

कह कर मैने घूम के सँजोत की तरफ देखा तो उसके आंसू उसके गाल और गले को तर कर रहे थे।  मैने उसकी और हाथ   बढ़ाके के कहा ‘सँजोत क्या मैं तुम्हे अपने प्रेम के अधिकार से अपने साथ ले चल सकता हूँ ?’

सँजोत ने छोटी अम्मा की ओर देखा और उनकी स्वीकृति पाकर उसने अपना हाथ मेरी और बढ़ा दिया जिसे मैने किसी दीवाने की तरह थाम लिया।

सँजोत का हाथ थामे जब मैं बाहर आया तो वहां पूरे शहर और उसके आस – पास के बड़े कहे जाने वाले लोग गाव तकिया के सहारे पीठ टिकाये बैठे थे। हमारे पीछे – पीछे छोटी अम्मा भी बाहर आ गई थी।

‘ये लड़का कौन है कामिनी ? पान चबाती एक औरत ने छोटी अम्मा से पूछा था। ये औरत शायद उस कोठे में सबसे वरिष्ठ थी।

छोटी अम्मा कुछ कह न सकी। तभी वहां बैठे लोगो में एक शोर उठा – ‘मुजरा शुरू किया जाये मुजरा शुरू हो।’

एक साथ इतने लोगो को देख कर सँजोत सहम कर मेरे पीछे आ गई।

‘मुजरा नहीं होगा।’ यह कह कर मैं सँजोत के सामने आ गया।

‘ऐ तूँ कौन बे कल के छोकरे मुजरा नहीं होने देने वाला।’  उनमे से एक खड़ा होकर बोला बाकी लोगो ने उसका समर्थन किया।

‘ये मेरी होने वाली पत्नी है और कोई भी इंसान अपनी पत्नी को मुजरा नहीं करने देगा।’ मैने बाबुलंद आवाज़ में कहा।

मेरी बात सुनके कई लोग ठठा मार के हंस पड़े फिर उनमे से एक ने कहा ‘अरे देखते क्या हो बंद कर दो इस लड़के को एक कमरे में और नाचने दो इस लड़की को आज।’

उसकी बात सुनके कुछ लोग मेरी और बढ़े, सँजोत और छोटी अम्मा के चेहरे का रंग पीला पड गया। पर मैने  वापस आवाज़ बुलंद करके कहा ‘जो मुझे किसी ने छुआ भी तो तो  ज़मीदार जसपाल सिंह परमार से निपटने के लिए तैयार रहे।

पिता का नाम सुनते ही मानो उन सबको सांप सूंघ गया हो सब अपनी जगह मानो चिपक के रह गए। पिता

‘चलो छोटी अम्मा।’ कह कर मैं सँजोत का हाथ पकडे चल पड़ा। पीछे से छोटी अम्मा भी साथ थी। वो सब हमें सिर्फ जाते हुए देखते रहे। उनके बीच से चलके हम सीढ़ियां उतर के नीचे आये। पहले मैने सँजोत को सहारा देकर बिठाया, फिर छोटी अम्मा को।

ड्राविंग सीट बैठ के पर इंजन स्टार्ट करके मैने होठो पे हास्य  लाकर सँजोत से पूछा ‘चले छोटी अम्मा की बेटी।’

उसने उत्तर में सिर्फ सर हिलाके ‘हाँ’ कहा और मैने गियर डाल के जीप आगे बढ़ा दी।

–सुधीर मौर्य

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