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सिनेमाः विकृतियों का सुपर बाजार - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
संजय द्विवेदी जब हर कोई बाजार का ‘माल’ बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों,…