यह बात सहजता से कबूल है कि गाने संचार में महति भूमिका अदा करते है। उसपर से सिनेमाई गाने हों तो उसके क्या कहनें! खैर, जब कभी हिन्दी सिनेमाई गीतों पर बात छिड़ती नहीं कि तबीयत रूमानी हो जाती है।
ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर यह इजहारे-तहरीर का बेजोड़ माध्यम जो है। यहां चुनिन्दा लोगों के जो भी खयालात हों, आम राय यही है कि सिनेमाई गाने श्रमहारक का काम करती है। साथ ही यह अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम है। अत: इसमें ठहराव मुमकिन नहीं है। शायद मुनासिब भी नहीं ।
ऐसे में पिछले कुछेक सालों से कमरतोड़ गाने आ रहे हैं। मुलाहिजा फरमाइये—
कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना ( बंटी और बबली), बीड़ी जलाईले जिगर से पीया (ओंकारा) । ताज्जुब की बात यह है कि जितना शोर-शराबा गीतों में है, गीतकार उतना ही संजीदा है।
वैसे तो गीतकार भेजे में शोर होने की बात पहले ही कह चुका है। लेकिन, ऐसे रफ्तारमय गीत लिखना उनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है। यकीनन, यह मांग आधारित है। आगे इन्हीं गीतों में इस्तेमाल हुए लफ्जों के बदलाव पर बातचीत हो तो फिर बात बने।
इन गीतों के आने तक हिन्दी सिनेमाई गाने लम्बा सफर पूरा कर चुका है।
इस दरमियान वक्त तेज रफ्तार से बदलता रहा और उसके तेवर भी। ऐसे में सिनेमाई गीत अपनी भाषा व मुहावरों को गढ़ने-बदलने का आदी और अभ्यस्त होता गया। ढेरों प्रयोग हुए। समय, परिवेश व नाजुक रिश्ते की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के। शब्दों को गढ़ने और सुनने के । और हां- ये सफल भी रहे। “कजरारे कजरारे” गायकी के कई अंदाजों के साथ भाषा के स्तर पर पंचमेल खिचड़ी का रूप लिए सामने आई और दमभर चली। यानी प्रयोग का एक मुकम्मल रूप हमारे -आपके नजीर आया।
बात कुछ ऐसी है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा में गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मीद्योग में नहीं मिल पाया। फिल्में आती हैं , चली जाती हैं। सितारे भी पीछे रह जाते हैं। रह जाते हैं तो बस कुछ अच्छे भले गीत, जो ‘ दुनिया ये तुफान मेल’ व ‘ अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का’ की तरह युगों तक बजते रहेंगे।
और साथ- साथ संचार का एक रूमानी माध्यम बने रहेंगे।