जलवायु परिवर्तन की मार महिलाओं पर

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terrabruciaजलवायु परिवर्तन से पूरे समाज पर भले ही असर पड़ता हो लेकिन अब धीरे-धीरे जो तस्वीर उभर रही है उससे स्पष्ट हो रहा है कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों और उससे पैदा होने वाली मुश्किलों का सबसे ज़्यादा असर महिलाओं पर पड़ रहा है । कोपेनहेगन में हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मुद्दे पर दुनिया भर के नेताओं की माथापच्ची जलवायु परिवर्तन को किस हद तक थाम पायेगी यह तो भविष्य की कोख में छिपा है। इस सबके बीच संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन को दुनिया भर की महिलाओं के लिये नई चुनौतियों का सबब बताकर मुश्किलें बढ़ा दी हैं । संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पर्यावरण परिवर्तन से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती हैं । संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने चेतावनी दी है कि पर्यावरण परिवर्तन का सबसे ज़्यादा असर विकासशील देशों की महिलाओं पर पड़ेगा । तापमान परिवर्तन से बाढ़ एवं सूखा की समस्या तो पैदा होगी ही, साथ ही महिलाओं को खाना पकाने के लिए ईंधन का संग्रह करना कठिन हो जाएगा ।

जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाला तबक़ा बहस मुबाहिसों से दूर है आने वाले संकट और चुनौतियों से बेख़बर अफ़्रीका या एशिया के किसी दूरदराज़ के गाँव में रोज़ी रोटी की तलाश में जुटा है । बहुत से देशों में खेतिहर मज़दूरी महिलाएँ अधिक करती हैं । भारत के ग्रामीण इलाकों की ज़्यादातर आबादी मुख्य रूप से खेती पर निर्भर है और इस काम में महिलाएँ भी हाथ बँटाती हैं । भारत में 49 करोड़ लोगों की आय का स्रोत किसी ने किसी तरह खेती से जुड़ा है । सूखे या फिर बाढ़ के चलते उनकी आजीविका के साधनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है । मानसून में बदलाव या सिंचाई व्यवस्था सुचारू रूप से न होने से फ़सल प्रभावित होती है और उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है ।

शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएँ इसलिए भी ज़्यादा प्रभावित होती हैं क्योंकि उनकी घरेलू अर्थव्यवस्था जंगल खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी रहती है । जंगलों की कटाई, फ़सलें नष्ट होने या प्राकृतिक संसाधनों की कमी के चलते परिवार को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता । महिलाओं के सामने परिवार का भरण-पोषण करने की चुनौती होती है । कई बार बच्चों की सेहत की खातिर महिला अपने आहार पर ध्यान नहीं दे पातीं और कुपोषण का शिकार बन जाती हैं ।

वर्तमान में जीवाश्म इंधनों की जगह जैव इंधनों के इस्तेमाल पर बल दिया जा रहा है। पर यह भी महिलाओं के लिए हानिकारक ही होगा। उन्होंने कहा कि जैव इंधन के लिए कृषि भूमि का इस्तेमाल किया जाएगा और इस वजह से खाद्यान्न की कमी उत्पन्न हो जाएगी। उन्होंने कहा कि जैव ईधन का इस्तेमाल मानव अधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं के लिए नुकसानदेह है। जैव ईधनों के लिए भूमि का उपयोग किए जाने से भोजन और पानी की तलाश में अधिक भटकना पड़ेगा । महिला संगठनों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए योजना बनाते वक्त महिलाओं के हित का ध्यान रखने की सलाह दी है।

इंडोनेशिया के बाली में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में एक महिला संगठन ने इशारा किया कि बदलते मौसम की वजह से महिलाओं को भोजन और पानी की तलाश में अधिक समय बर्बाद करना पड़ता है। आबोहवा में होने वाले बदलावों के कारण महिलाओं को भोजन और पानी इकट्ठा करने के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ता है। घर में रोज़मर्रा के कामों के लिए पानी लाने और भोजन पकाने के लिये लकड़ी इकठ्ठा करने की ज़िम्मेदारी महिलाएँ ही निभाती हैं । जब सूखा पड़ता है तो महिलाओं को भोजन पानी जुटाने के लिए और अधिक श्रम करना पड़ता है। अक्सर गर्मी आते ही गाँव में तालाब या कुआँ सूख जाता है, ऎसे में महिलाओं को पानी लाने के लिए दूर जाना पड़ता है । हर साल मौसम की बेरुखी की मार महिलाओं पर पड़ती है। स्वयंसेवी संगठन जेंडरसीसी की कार्यवाहक संयोजक युल राइक रोहर के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में महिलाओं की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाना महिलाओं के अधिकारों का हनन करना है।

प्राकृतिक आपदाओं के वक्त महिलाओं की मुश्किलें अकल्पनीय रूप से बढ़ जाती हैं । संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि प्राकृतिक विपदाओं में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के मरने की संभावना अधिक रहती है । सूखे बाढ़ सूनामी और अन्य आपदाओं का पहला निशाना महिलाएँ ही बनती हैं । 2004 में सूनामी लहरों ने जो तबाही मचाई थी, उसमें भारत के कड्डलोर ज़िले में मारे गए लोगों में 90 फ़ीसदी महिलाएँ थीं । सूनामी की तबाही का शिकार हुए लोगों में इंडोनेशिया के कई गाँवों में तीन चौथाई महिलाओं और लड़कियों ही थी ।

एक अध्ययन में पता चला है कि 1970 के दशक में सूखे और बाढ़ के कारण लड़कियों के स्कूल या कॉलेज जाने की संभावना 20 फ़ीसदी कम हो गई । ऐसे में आशंका है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ते जाएँगे , उसी अनुपात में महिलाएँ और लड़कियाँ विकास की इस दौड़ में पीछे छूटती जाएंगी । घरेलू कामकाज में आने वाली मुश्किलों और उसमें लगने वाले समय के चलते लड़कियों के स्कूल जाने की संभावनाओं को झटका लगता है क्योंकि उन्हें भी इस काम में हाथ बँटाना पड़ता है ।

विकास एवं पर्यावरण समूहों द्वारा एशिया में तापमान परिवर्तन के प्रभावों पर कराए गए एक संयुक्त अध्ययन में भी कहा गया है कि तापमान परिवर्तन से पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अधिक प्रभावित होंगी । अप इन स्मोक-एशिया एंड पैसीफिक नामक इस अध्ययन में कहा गया है कि एशिया में समुदाय एवं सामाजिक कार्यों में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी की जाती रही है । महिला प्रधान परिवारों को तापमान परिवर्तन की चुनौतियों का अधिक सामना करना पड़ेगा । अध्ययन में शामिल अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी एक्शनएड” के रमन मेहता के मुताबिक प्रतिकूल हालात का असर पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर अधिक होता है।

जलवायु परिवर्तन के महिलाओं पर दुष्प्रभाव भले ही अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हों लेकिन ये भी सच है कि महिलाएँ इससे मुक़ाबले के लिए फ़ैसले लेने में सक्षम नहीं है । ऐसी संस्थाओं में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है जहाँ पर स्थायी विकास के रास्तों की तलाशने की बहस हो रही है । एक मुश्किल यह है कि ग्रामीण महिलाओं में अभी जागरूकता ही नहीं है कि जिस तरह से मानसून, जलस्तर और मौसम में बदलाव आ रहा है वह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है । बदलते पर्यावरण की चुनौतियों में अपने आप को किस तरह से ढालना है इस बारे में उन्हें पूरी जानकारी नहीं है ।

ऐसे में सवाल उठता है कि इस चुनौती का मुक़ाबला कैसे हो और शुरुआत कहाँ से हो । भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए आठ मिशन शुरू करने का फ़ैसला लिया है जिसमें सौर ऊर्जा और ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने के अलावा अन्य क्षेत्रों में काम किया जाना है । कई ग़ैर सरकारी संगठन शहरों, गांवों में वर्कशॉप आयोजित कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत ग्रामीण इलाक़ों और कमज़ोर वर्ग की महिलाएं अपने जीवन में आ रहे बदलावों पर अनुभव बांटती हैं । जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनाई जाने वाली योजनाओं और संगठनों में प्रभावित महिलाओं को शामिल करने से उन्हें अपने भविष्य के लिए ख़ुद निर्णय लेने में मदद मिल सकेगी ।

दुनिया के ताक़तवर देशों, विकासशील देशों और ग़रीब देशों में जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के लिए किसी रणनीति पर सहमति भले ही न बन पा रही हो लेकिन पर्यावरण में आने वाले परिवर्तनों की क़ीमत सबसे ज़्यादा वही लोग चुकाएंगे जिनकी नीति बनाने में कोई भूमिका नहीं है, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से जो शक्तिहीन हैं और शिखर वार्ताओं तक जिनकी आवाज़ नहीं पहुंच पा रही है ।

-सरिता अरगरे

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सरिता अरगरे
१९८८ से अनवरत पत्रकारिता । इप्टा और प्रयोग के साथ जुडकर अभिनय का तजुर्बा । आकाशवाणी के युववाणी में कम्पियरिंग। नईदुनिया में उप संपादक के तौर पर प्रांतीय डेस्क का प्रभार संम्हाला। सांध्य दैनिक मध्य भारत में कलम घिसी, ये सफ़र भी ज़्यादा लंबा नहीं रहा। फ़िलहाल वर्ष २००० से दूरदर्शन भोपाल में केज़ुअल न्यूज़ रिपोर्टर और एडिटर के तौर पर काम जारी है। भोपाल से प्रकाशित नेशनल स्पोर्टस टाइम्स में बतौर विशेष संवाददाता अपनी कलम की धार को पैना करने की जुगत अब भी जारी है ।

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