बिहार में जदयू का मुख्यमंत्री और राजद की सरकार

nitishlaluoneसुरेश हिन्दुस्थानी

बिहार में नई सरकार का चेहरा क्या होगा, यह अभी से कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस प्रकार से राष्ट्रीय जनता दल ने सबसे ज्यादा सीटें हासिल की हैं। उससे लालू प्रसाद यादव बड़े भाई की भूमिका में रहेंगे और नीतीश कुमार को छोटे भाई का रोल निभाना पड़ेगा। महागठबंधन में चूंकि नीतीश कुमार पहले से मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित हो चुके हैं, इसलिए मुख्यमंत्री पद के लिए तो स्थिति साफ कही जा सकती है, लेकिन मंत्री बनाने में पूरी तरह से लालू प्रसाद यादव की ही चलेगी। इसका मतलब साफ है कि मुख्यमंत्री भले ही जनता दल यूनाइटेड का बन जाए लेकिन पूरी सरकार राष्ट्रीय जनता दल की ही बनेगी।

बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों ने एक जबरदस्त सबक दिया है। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को जो आशा इन चुनावों में दिखाई दे रही थी, वह एक झटके में ही चकनाचूर हो गई। भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन पहले से भी काफी कमजोर साबित हुआ। वास्तव में बिहार के परिणामों ने राजनीति के धुरंधरों ने आईना दिखाया है। अब भारतीय जनता पार्टी को निश्चित रूप से आत्ममंथन की मुद्रा में आ गई है। जो उसे करना भी चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया तो भविष्य में क्या परिणति होगी, यह अभी से तय दिखने लगा है।

बिहार में जिस प्रकार के धमाकेदार चुनाव परिणाम आये हैं, उससे भारतीय जनता पार्टी के विरोधी दलों को खुशियां मनाने का अवसर दे दिया है। जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक प्रतिष्ठा का पर्याय बने इस चुनाव परिणाम ने उनके कद को बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति प्रदान की है। इससे अब यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या आगामी लोकसभा के चुनाव में नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक चुनौती बनकर आएंगे। सवाल यह भी आता है कि क्या बिहार की हार नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत हार है।

बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों ने भले ही राष्ट्रीय जनतादल के मुखिया लालू प्रसाद यादव और जनतादल यूनाइटेड के नीतीश कुमार को राजनीतिक शक्ति प्रदान की हो, लेकिन जिस प्रकार से इनको सफलता प्राप्त हुई है। वह स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक है। इसके बारे में लोकतांत्रिक विश्लेषण किया जाए तो यही सामने आता है कि बिहार के चुनाव में लोकतंत्र पर जातितंत्र का बोलबाला दिखाई दिया। जातिवाद के उभार के चलते यह माना जा सकता है कि बिहार में लोकतंत्र की हार हुई है। जातिवाद के आधार पर यादव और मुसलमानों का वोट लालू और नीतीश को मिला। इसी के चलते महागठबंधन को सफलता हासिल हुई है। यह संकेत लोकतंत्र के लिए घातक ही साबित होगा।

यह सभी को पता है कि लालू प्रसाद यादव एक अपराधी हैं, बिहार की जनता ने लालू को राजनीतिक ताकत देकर एक प्रकार से अपराधी को समर्थन दे दिया है। राजनीतिक क्षेत्र के विद्वानों द्वारा कहा जा रहा है कि लालू और नीतीश ने जब दुश्मनी की तो उसमें दोस्ती की गुंजाइश कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी, लेकिन आज गहरी मित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं। मतलब उनकी दोस्ती वर्तमान में तो गहरी से भी गहरी प्रदर्शित हो रही है। उनकी दोस्ती में आगे भी यह गहराई बनी रहेगी, इस पर अभी से सवाल उठने लगे हैं। पर यह केवल सवाल ही हैं और केवल सवाल बनकर ही रह जाएंगे। वर्तमान में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल व्यक्तिगत रूप से सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आई है। ऐसा माना जा रहा है कि लालू और उनके परिवार के लिए एक नई रोशनी का सूत्रपात हुआ है। उनको जनता ने फिर से लोकतांत्रिक संजीवनी प्रदान कर दी है।

बिहार में नई सरकार का चेहरा क्या होगा, यह अभी से कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस प्रकार से राष्ट्रीय जनता दल ने सबसे ज्यादा सीटें हासिल की हैं। उससे लालू प्रसाद यादव बड़े भाई की भूमिका में रहेंगे और नीतीश कुमार को छोटे भाई का रोल निभाना पड़ेगा। महागठबंधन में चूंकि नीतीश कुमार पहले से मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित हो चुके हैं, इसलिए मुख्यमंत्री पद के लिए तो स्थिति साफ कही जा सकती है, लेकिन मंत्री बनाने में पूरी तरह से लालू प्रसाद यादव की ही चलेगी। इसका मतलब साफ है कि मुख्यमंत्री भले ही जनता दल यूनाइटेड का बन जाए लेकिन पूरी सरकार राष्ट्रीय जनता दल की ही बनेगी। इसमें नीतीश के नहीं मानने पर लालू दबाव की राजनीति भी कर सकते हैं जिसे नीतीश को स्वीकार करना ही होगा। ऐसे में नीतीश कुमार का अपनी ही सरकार पर कितना नियंत्रण होगा, इस पर सवाल भी उठने लगे है। वैसे सीटों के हिसाब से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री का पद मांगे तो यह उनका जायज अधिकार बनता है। अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो सरकार तो उनकी बनेगी ही यह तय माना जा रहा है।

भारतीय जनता पार्टी के प्रदर्शन की बात की जाए तो यही बात सामने आती है कि उसकी दुर्गति में सहयोगी दलों का बहुत बड़ा हाथ है। भाजपा ने अपने सहयोगी दलों पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करके बहुत बड़ी भूल की। सहयोगी दलों के बेहद खराब प्रदर्शन का असर ही भाजपा को ले डूबा। भाजपा ने जिस तुलना में सहयोगी दलों को सीटें दीं थी उसके अनुपात में उनका प्रदर्शन नहीं रहा। भाजपा ने जो सीटें प्राप्त की हैं उसमें उसका खुद का प्रदर्शन ही है। सहयोगी दलों में शामिल जीतनराम मांझी पूरी तरह असफल साबित हुए हैं, मांझी खुद एक जगह से चुनाव हार गए, इसके अलावा उपेन्द्र कुशवाह भी अपनी पार्टी के लिए एक विधायक तक नहीं बनवा सकी। भारतीय जनता पार्टी की रैलियों में जिस प्रकार की भीड़ देखी जा रही थी, उससे भाजपा को यह गुमान हो गया था कि इस भीड़ के सहारे भाजपा को सत्ता मिलेगी, लेकिन भाजपा यह भूल गई कि भीड़ तो भीड़ ही होती है, उसके सहारे चुनाव नहीं जीते जाते। खैर अब भाजपा को यह तय करना होगा कि वह अतिविश्वास के दायरे से बाहर निकल कर आम जनता की भावनाओं को समझे और हवाई किले बनाने से परहेज करे।

सुरेश हिन्दुस्थानी

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