‘‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’’

3
227

वीरेन्द्र सिंह परिहार

 

 

ब्यापम घोटाले को लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की घेराबन्दी करनें वाले प्रदेश के भतूपूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस पार्टी के बड़बोले नेंता दिग्विजय सिंह स्वतः कुछ ऐसे घिर गये हैं कि निकलने का रास्ता शायद ही मिल सके। उल्लेखनीय है कि दिग्विजय सिंह वर्ष 1993 से वर्ष 2003 तक सतत् दस वर्षों तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कम – से – कम शिवराज सिंह पर ऐसा कोई आरोप नहीं है कि उन्होनें नियमों को शिथिल करके या नियम – विरूद्ध ढ़ंग से स्वतः किसी को नौकरी मे रखवा दिया हो । लेकिन दिग्विजय सिंह पर अव यह मात्र आरोप नहीं है बल्कि प्रमाणित है कि उन्होनें लोगों को स्वतः नियम-विरूद्ध तरीके से नौकरियां दिलर्वाइं या दीं। अभी हाल में म.प्र.  उच्च न्यायालय नें दिग्विजय सिंह द्वारा सारे नियमों को शिथिल करके दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी को उपयंत्री बनाये जानें संबंधी जारी किये गये आदेश को खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस के.के. त्रिवेदी की युगल पीठ नें उपरोक्त आदेश के साथ प्रदेश के मुख्य सचिव को यह भी आदेशित किया है कि वे इस मामले के दोषियों के खिलाफ सख्ती से कार्यवाही करें। इसके साथ ही युगलपीठ नें अपनें आदेश में यह भी कहा है कि सभी विभागों में नियमों को शिथिल कर पिछले दरवाजों से की गई नियुक्तियों की जांच कर रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत करें।

उल्लेखनीय है कि नगर पंचायत मऊगंज के तत्कालीन पार्षद मनसुखलाल सराफ की ओर से वर्ष 1999 में एक जनहित याचिका दायर की गई थी । जिसमें यह कहा गया था कि अरूण कुमार तिवारी की नियुक्ति रीवा जिले के मऊगंज नगर पंचायत में दैनिक वेतन भोगी के रूप में वर्ष 1990 में हुई थी। पर अरूण कुमार की नियम विरूद्ध ढ़ंग से पदोन्नति कराई गई और आखिरकार 3 अप्रैल 1995 में उसे उपयंत्री बना दिया गया। इस पर वर्ष 1995 में ही इस आदेश को चुनौंती दी गई और म.प्र.  उच्च न्यायालय जबलपुर नें 11 सितम्बर 1997 को अरूण कुमार तिवारी की पदोन्नति को अवैध ठहराते हुये निरस्त कर दिया था। इतना ही नहीं उसे दैनिक वेतन भोगी के पद पर ही बहाल करने के आदेश दिये थे। चूंकि अरूण तिवारी तत्कालीन जिला पंचायत अध्यक्ष श्रीमती मंजूलता तिवारी के पति थे और मंजूलता तिवारी तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी की खास थीं। ऐसा माना जाता है कि श्रीमती मंजूलता तिवारी को जिला पंचायत रीवा का अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी ने ही बनाया था। चूंकि उस समय श्रीनिवास तिवारी की रीवा में तूती बोलती थी। दिग्विजय सिंह खुले मंचों में कहते थे कि मैं प्रदेश का मुख्यमंत्री जरूर हूं, पर रीवा के मुख्यमंत्री श्रीनिवास तिवारी ही हैं, इतना ही नहीं वह उन्हें गुरूदेव कहकर सम्बोधित किया करते थे। इस तरह से दादा श्रीनिवास तिवारी रीवा जिला के एक छत्र बादशाह थे। स्थिति यह थी कि किसी थाना प्रभारी की यह हिम्मत नहीं थी कि दादा अर्थात श्रीनिवास तिवारी की अनुमति के बगैर गंभीर-से-गंभीर प्रकरण में भी एफ.आई.आर दर्ज कर ले। अस्तित्व रक्षा के लिये जिले के बड़े से बड़े अधिकारी भी दादा को साष्टांग दंण्डवत करते थे। उनके समर्थक यह नारा ही लगाते थे कि ‘‘दादा न होय दऊ आ, वोट न देवे तऊ आय’’। खैर उस जमानें में दादा को लेकर तरह-तरह के किस्से अब तक प्रचलित हैं। जैसे एक समय दादा के एक समर्थक नें किसी महिला से वीभत्स ढ़ंग से बलात्कार किया और वहां का थाना प्रभारी दौड़ते हुये दादा के पास रीवा आया कि एफ.आई.आर. दर्ज करें कि नहीं, दादा का हुक्म था कि वह मेरा आदमी है, भला उसके विरूद्ध एफ.आई.आर. कैसे दर्ज हो सकती है। किसी ने एक और किस्सा इस लेखक को सुनाया। रीवा के नजदीक रमपुरवा गांव में दादा के सुपुत्र वर्तमान विधायक सुन्दरलाल तिवारी का फार्म हाउस है । किसी पिछड़े जाति के कृषक की भूमि उनके फार्म हाउस के बीच पड़ती थी। स्वाभाविक है कि इससे दादा के पुत्र को बड़ी असुविधा हो रही थी। संयोग से उस कृषक की बहू बीहर नदी में गिरकर मर गई। बस दादा को मौका मिल गया, और उस कृषक समेत उसकी पत्नी, पुत्र सभी को अंदर करा दिया। वह परिवार पुलिस की गिरफ्त से तभी छूटा, जब फार्म हाउस के बीच में स्थित अपनी जमीन उसने सुन्दरलाल को दे दिया।

digvijaysingh  इस तरह से जब उच्च न्यायालय द्वारा अरूण कुमार तिवारी को उपयंत्री की पदोन्नति निरस्त कर दी गई तो दादा जो अपने को दऊ अर्थात सबसे ऊपर मानते थे, उन्होंने अरूण कुमार तिवारी की नियुक्ति तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के माध्यम से 21 मई 1998 को जल संसाधन विभाग में उपयंत्री के पद पर करा दी। जिस पर मनसुखलाल सराफ द्वारा इस आदेश के विरूद्ध मान्नींय उच्च न्यायालय में पुनः याचिका प्रस्तुत की गई। जिस पर युगलपीठ ने दिनांक 07.08.2015 को अपनें आदेश में कहा कि दैनिक वेतन भोगी के रूप में नियुक्ति अरूण कुमार तिवारी की सीधी भर्ती नहीं हो सकती थी। मुख्यमंत्री की नोटशीट में किसी ऐसे कानून की भी जिक्र नहीं है, जिसके तहत सरकार उनकी नियुक्ति इस तरह से कर सके। उच्च न्यायालय की युगलपीठ ने प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देशित किया है कि सभी संबंधित विभागों के प्रमुख सचिवों से 4 सप्ताह के भीतर जांच कराकर रिपोर्ट बुलायें। जांच में यह पता लगाया जाये कि कितने आयोग्य कर्मचारियों को पिछले दरवाजे से नियुक्तियां देकर लाभान्वित किया गया । उक्त रिपोर्ट का परीक्षण कर चार सप्ताह के भीतर उक्त रिपोर्ट को हाईकोर्ट में प्रस्तुत किया जाये।

यह मामला सिर्फ एक नियुक्ति का नही है। बल्कि इस तरह से और भी कई नियुक्तियां सामने आई हैं। विधानसभा में इस तरह की कई नियुक्तियों को लेकर कई लोगों के विरूद्ध प्रकरण पंजीबद्ध है, जिनको अभी हाल मे म.प्र.  उच्च न्यायालय द्वारा जमानत दी गई है। स्वतः श्रीनिवास तिवारी को जमानत हेतु सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ा, अलबत्ता इस प्रकरण में मुख्यमंत्री की हैसियत से दिग्विजय सिंह से पूछ-ताछ होना अभी बाकी है। इसके अलावा भी अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में भी दिग्विजय सिंह द्वारा कई नियुक्तियां नियमों को शिथिल कर दिये जानें की जानकारी सामने आई है। आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि उस दौर मे दिग्विजय सिंह ने इस तरह से जितनीं अवैध नियुक्तियां स्वतः की, करीब उतनी ही दादा अथवा गुरूदेव श्रीनिवास तिवारी के कहने पर किया। क्या इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह किसी भी तरह दादा को खुश रखना चाहते थे, ताकि विधानसभा की पूरी कार्यवाही उनके सुविधानुसार चले। इसी के चलते अवैध नियुक्तियों के साथ वह दादा को ‘रीवा जिला पूरी तरह छोड़े हुये थे, ताकि ‘‘खुला खेल फर्रूखावादी’’ की तर्ज पर वह खेल सके, और खेला भी। अब इस तरह से बेनकाब होने पर कंाग्रेसी शिवराज सिंह पर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल मे भी कुछ ऐसी नियुक्तियों का आरोप लगा रहे हैं। जबकि यह अच्छी तरह से खुलासा हो गया है कि उन नियुक्तियों में नोटशीट विभाग से शुरू हुई थी, और उनमें नियम विरूद्ध जैसा कुछ नही किया गया है।

दिग्विजय सिंह के पूर्व एक और मुख्यमंत्री ने पता नही अपने कितने चहेतों को नियम शिथिल करके मलाईदार नौकरियां दिलाई थीं। खैर ऐसे सब काम जहां कानून के राज्य के बजाय जंगल राज की कहानी बयां करते हैं, वहीं इस तरह के कृत्यों से पूरे समाज एवं राज्य को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। क्योंकि ऐसे स्वेच्छाचारी कृत्यों का नतीजा यह होता है कि योग्य उम्मीदवार किनारे हो जाते हैं और अयोग्य ब्यक्ति उनकी जगह बैठ जाते हैं.  आचार्य चाणक्य नें अपने अर्थशास्त्र में बताया है कि यदि योग्य ब्यक्ति महत्वपूर्ण जगहों पर बैठें तो उससे समाज एवं देश का बहुत ज्यादा भला हो सकता है । दूसरी तरफ यह आयोग्य ऐसी जगहों पर बैठेंगे तो उसके विपरीत ही नतीजे निकलेंगे। पर जब ऐसे राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों या अपनें निजी जनाधार के लिये इस तरह का कृत्य करते हैं तो उनके समर्थकों और दूसरे भी बहुत लोगों के लिये वह इस तरह से अनुकरणीय हो जाते हैं:- कि देखो कितना दमदार नेता है जो चाहता है वह कर डालता है। दूसरी तरफ नियम-कानून से चलने वाले नेताओं के लिये इसी समाज से ही ऐसे लोग यह प्रतिक्रिया ब्यक्त करते देखें जाते हैं, और इसमें कुछ दम – दिलासा नही है, यह ब्यक्ति किसी काम का नही है। हमे पता होना चाहिये कि ब्यापम जैसे घोटाले भी कहीं न कहीं इसी मानसिकता की उपज हैं।

यह बताने की जरूरत नहीं कि दिग्गी राजा ने 1993 से 2003 के मध्य एक राजा की तरह भी, शासन किया और जो मर्जी आई वह किया। उनके कारनामों के चलते ही प्रदेश अधिक बदहाली में डूब गया था। आधारभूत विकास संरचना और विकास के सभी कार्य रूक गये थे। ओवर ड्राफ्ट प्रदेश की नियति बन गया था। कर्मचारियों को महीनों-महीनों तक वेतन के लाले पड़ जाते थे। सत्ता के दलालों का बोलबाला हो गया था। पर दिग्विजय को इसकी कोई चिन्ता नही थी। वह कहा करते थे कि चुनाव विकास से नहीं प्रबन्धन से जीते जाते हैं, और इसके तहत प्रदेश मे सत्ता के दलालों का बाहुल्य हो गया था । कुल मिलाकर दिग्विजय सिंह को यह भी पता होना चाहिये था कि जिनके घर शीशों के बने होते है, वह दूसरों के घरों पर पत्थर नही चलाया करते। अब जब दिग्विजय सिंह जैसे लोग कठघरे में खड़े होने की प्रक्रिया मे आ गये है, और उनके कारनामे सामने आने लगे हैं तो यही कहा जा सकता है कि ‘‘ ऊंट अब आया पहाड़ के नींचे’’ आगे क्या होता है यह देखने की बात है।

 

3 COMMENTS

  1. आप ही जैसे लोगों के लिए मैंने आलेख नाली के कीड़े लिखा था.व्यापम का इतना बड़ा घोटाला आपके स्वनाम धन्य मुख्य मंत्री के नाक के नीचे होता रहा और आप उनकी बचाव में एक किस्सा लेकर आ गए.अगर आप का यह किस्सा सही भी है,तो इससे व्यापम घोटाले की गंभीरता पर क्या असर पड़ता है? आप एक खींची हुई लकीर को छोटा करने के लिए एक बड़ी लकीर खींचने का प्रयत्न कर रहे हैं.प्रथम तो इस लकीर से बड़ी लकीर खींचना आसान नहीं है.अगर खींच भी गयी तो क्या यह लकीर मिट जायेगी? नाली के कीड़े मैंने चार साल पहले लिखी थी,पर आज भी हम वहीँ हैं ,जहां चार साल पहले थे. उसका लिंक है:https://www.pravakta.com/drain-the-bug#comment-96836

    • पढ़े लिखे भारतीयों को राष्ट्र की कम और एक दूसरे के चहेते राजनैतिक दल के राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की चिंता अधिक सताए रहती है। इस व्यर्थ के व्यक्तिगत द्वंद में पूर्णतया व्यस्त उन्हें यह भी कभी नहीं सूझता कि वे देश की अधिकांश अनपढ़ गरीब जनता को क्षति पहुंचा रहे हैं। क्या वे सदैव की तरह नाली के कीड़ों को ही पालते-दिखाते रहेंगे अथवा अपने चारों ओर https://www.vidoevo.com/yvideo.php?i=OVg1bVZOcWuRpYXpOT0U&the-ganges-sacred-journey-part3 की सी दुर्दशा देखते कोई ठोस सामाजिक कदम लेगें? सच्चाई तो यह है कि स्वयं उनमें देश के लिए कुछ कर सकने की क्षमता के आभाव के कारण वे लाभकारी जीवाणु भी नहीं बन पाएंगे!

  2. जयसिंघ जी ने ऐसी नियुक्तियां आम रूप से नहीं की ऐसा आप के लेख से लगता है. जिस तरह से व्यापम में प्रतीक विभाग के घोटाले सामने आ रहे हैं वे यह बताते हैं की प्रदेश सरकार के मुखिया चाहे भरषट न हों प्रशासकीय दृष्टि से असफल तो हैं. जिस तरह कोयला घोटाले में सरकार ने अज्ञानवश देश का नुकसान किया उसी तर्ज़ पर प्रदेश शासन ने अञनवश कई हज़ारों योग्य नवयुवकों का नुकसान किया है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here