आओ, अब भारत की ओर लौट चले!

देश को आजाद हुए 63 साल हो चुके है किंतु भारत की विडम्बना है कि भारत के सभी गांवों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। भारत के काफी गांव सरकारी दावों के विपरित मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है, आज स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि कोई भी थोड़ा सा आधुनिक विचारों वाला ग्रामीण युवा परम्परागत खेती न करके शहरों में छोटा-मोटा काम करने को प्राथमिकता दे रहा है, ग्रामीण युवाओं के लिए रिश्तों में भी दिक्कत आ रही है, भारतीय अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि घाटे का सौदा बनने के कारण किसान विवश होकर आत्महत्या तक कर रहा है। महाराष्ट्र के विदर्भ का उदाहरण हमारे सामने है। झारखण्ड, पंजाब के कई गांवों के लोगो ने बढ़ते कर्जभार के कारण गांवों के बाहर ”गांव बिकाऊ है” के साइन बोर्ड लगा दिए है। परम्परागत कुटीर उद्योगों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय उत्पादों से गांवों की दुकाने तक अटी पड़ी है। ऐसे में हमें भारत किस दिशा में जा रहा है, के बारें में विचार करने की आवश्यकता है।

कांग्रेस में पण्डित नेहरू के समाजवादी विचारों से प्रभावित व्यक्तियों के उद्भव के कारण आर्थिक समस्याओं के प्रति गांधीवादी सिध्दांत को नेहरू के भौतिकतावादी विचारों ने ढ़क लिया। दिनांक 5 अक्टूबर 1945 को महात्मा गांधी ने नेहरूजी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होने विकास के बारें में उनके विचार जानने चाहे, पत्र में गांधीजी का नेहरूजी को सुझाव था कि ”भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या गांवों में रहती है अत: सभी विकास योजनाएं गांवों को ध्यान में रखकर बनाई जाये किंतु इसके प्रत्युत्तर में नेहरूजी ने कहा कि मैंने लगभग 20 वर्ष पूर्व हिन्द स्वराज में आपके विचार पढ़े थे, मैं उस समय भी उससे सहमत नहीं था आज तो समय इतना बदल गया है कि यदि हम उन विचारों पर चले तो हम जरा भी प्रगति नहीं कर पायेगे, गांव बौध्दिक और सांस्कृतिक दोनो रूप में पिछड़े होते है और पिछड़े माहौल में किसी प्रकार की प्रगति नहीं की जा सकती। हमें गांवों को शहरी संस्कृति में ढालना होगा।” और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसी वर्ष कांग्रेस उच्च कमान द्वारा पारित 12 सूत्री संकल्प पत्र में उनके विचार देखने को मिले जिसके परिणामस्वरूप इसी मानसिकता के कारण स्वतंत्रता के बाद भी प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण सरकार के हाथों में होने के बावजूद संसाधनों के प्रबंधों के लिए बनाई गई औपनिवेशिक संस्थाऐं पूर्ववत बनी रही। हमने इनको इसलिए नहीं बदला कि हम ”औद्योगिक क्रांति” पर बड़े मोहित थे। हमने सोचा कि जैसे यूरोपीय देश और इंग्लैण्ड औद्योगिक क्रांति से फल-फूल गए, हमें भी उन्नति के लिए ऐसा ही करना चाहिए।

यह मानना कि इंग्लैण्ड और अन्य यूरोपीय देश औद्योगिक क्रांति के कारण अमीर और उन्नतशील हुए, गलत है। वास्तव में औद्योगिक क्रांति के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी और 1757 तक इंग्लैण्ड में यह पूंजी उपलब्ध नहीं थी! ते फिर यह पूंजी आई कहां से? इतिहास बताता है कि यह पूंजी 1757 में हुई प्लासी की लड़ाई के बाद भारत से आई, भारत के करोड़ों व्यक्ति लूटे गए जिसके बाद 1760 में भिन्न-भिन्न सुप्त आविष्कार मूर्त होने लगे। 1760 में ”फलाइंग शटल”, 1768 में वाष्प इंजन बना, 1785 में बिजली के करघे का आविष्कार हुआ। हर साल औसतन 25 करोड़ रूपयें भारत से लूटे गए। यह सिलसिला 1757 से वाटरलू की लड़ाई 1815 तक चलता रहा। यही वह निरंतर लूट थी जिसने इस क्रांति को पोसा। 19वीं शताब्दी के मध्य तक इंग्लैण्ड में उत्पादन कार्य के लिए मशीनों का उपयोग नहीं होता था, ”औद्योगिक क्रांति” के बाद भी वहां का तैयार माल इतना घटिया होता था कि वह विश्व बाजारों में छाए हुए अति परिष्कृत भारतीय माल की बराबरी नहीं कर सकता था। कपड़ा, इस्पात, कृषि उत्पादों के क्षेत्रों में भारत के पा परिष्कृत पौद्योगिकी थी। भारत में बने कपड़े की इतनी मांग थी कि सन् 1800 में ब्रिटेन को भारतीय कपड़े पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, 1875 में एडिनबर्ग में बने ”देशभक्त संघ” ने उन ”भ्रष्ट”महिलाओं का बहिष्कार करने की अपील की जो भारतीय कपड़ा पहनती थी।

जहां तक भारतीय प्रौद्योगिकी का संबंध है यह विकेन्द्रीकृत होने के बावजूद परिष्कृत थी, अंग्रेजों द्वारा भारतीय तकनीक को पुरातन कहने के बाद भी वो आज तक उस तकनीक के बराबर नहीं पंहुच सके है। उस समय हम 2,425 न0 का धागा बना सकते थे किंतु आज 250 से अधिक न0 का धागा नहीं बना सकते, इस्पात बनाने के लिए 300 रूपयें लागत में भट्ठी बना लेते थे जिन्हे कंधों पर कहीं भी ले जाया जा सकता था, किसी भी नदी के किनारें कार्य प्रारंभ किया जा सकता था, तैयार इस्पात अच्छी किस्म का होने के बाद भी उसकी लागत मात्र 50 रू0 टन होती थी जबकि इंग्लैण्ड में ”औद्योगिक ढंग़” से तैयार इस्पात की लागत 250 रू0 टन होती थी। कृषि के मामले में भी हमारे पास परिष्कृत प्रौद्योगिकी थी। जब अंग्रेजों ने पाया कि वे हमारे माल की बराबरी नहीं कर सकते तो उन्होने भारतीय उद्योगों को तहस-नहस करने की ठान ली और ऐसा किया भी। यह हमारे इतिहास का एक कारूणिक अध्याय है।

वर्तमान में भारत को फिर से अमीर देशों के तैयार माल का बाजार बनाने की दिशा में तेजी से कार्य किया जा रहा है। स्वतंत्र होने पर हमने औद्योगिक क्रांति का मार्ग चुना किंतु इसके लिए आवश्यक पूंजी हमारे पास नहीं थी उस समय अमीर देशों ने हमसे कहा कि हम तुम्हे धन देगें और उन्होने जो धन ऋण या सहायता के रूप में हमें दिया वह आज हमारे मनोबल और आत्मनिर्भरता को चूस रहा है। ये देश हमें मात्र कच्चे माल की आपूर्ति करने वाला और अपने उत्पादों का बाजार बनाने की दिशा में कार्यरत है। भारत ने ऋण इस आशा में लिए थे कि हम वापिस लौआ देगें किंतु हम ऐसा नहीं कर पाये। अब तो हम ऐसे ऋण चक्र में फंसे है कि ऋण चुकाने के लिए और ऋण लेना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति केवल भारत की ही नहीं उन सभी देशों की है जिनके पास कुछ प्राकृतिक संसाधन बचे हुए है। इन प्राकृतिक संसाधनों पर काबू पाने के लिए अमीर देशों ने ”आर्थिक साम्राज्यवाद” का जाल फैलाया है तथा विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी बहुआयामी संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत है। मार्च 1976 में विकसित देशों के उपनिदेशक बुश नील ने अमेरिकी सीनेट के विदेश कार्यो की एक उपसमिति को बताया कि ये बैंक स्वयं हमारी अर्थ व्यवस्था के अनुरूप विकास को प्रोत्साहित करते है, उनमें हमारी भागीदारी से आवश्यक कच्चे माल की प्रप्ति और विकासशील देशों में अमेरिका के निवेश के लिए एक बेहतर वातावरण सुनिश्चित हो सकेगा। ब्यूरो ऑफ एकोनामिक एण्ड बिजनेस एफेयर्स ऑफ स्टेट के सहायक सचिव जास्टन जे0 ने सीनेट को बताया कि बहु आयामी विकास बैंकों में निवेशित हमारे प्रत्येक डालर से अमेरिकी फर्मो के लिए 3 डालर का व्यापार प्राप्त होता है। भारत सरकार द्वारा अमेरिकी दबाब से लाई गई उदारीकरण नीति के कारण अमेरिकी कम्पनियां तेजी से हमारे बाजार पर अधिकार कर रही है, ऋण से दबे होने के कारण भूतपूर्व अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि सुश्री कार्ला हिल्स द्वारा चोर कहे जाने, विश्व खाद्य संकट के लिए भारतीयों को पेटू बताने या भारत को सुपर 301 अथवा स्पैशल 301 तक में रखने पर भारत कोई प्रतिक्रया नहीं कर पाया।

कई लोगो का तर्क है कि भारत में आने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनिया हमें नवीनतम तकनीक व रोगगार प्रदान करेगी किंतु बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए गठित हाथी आयोग का मत था कि ”बहुत ही कम ऐसा होता है कि नयी प्रौद्योगिकी को नि:शुल्क या कीमत लेकर बाहर जाने दिया जाए।” भारत में स्थापित अन्य विदेशी कंपनियों द्वारा निवेश की तुलना में कितने लोगो को रोजगार दिया गया यह किसी से छिपा नहीं है। इस प्रकार नयी तकनीक भी नहीं आती है तथा रोजगार भी नहीं मिलता है।

आजकल फास्ट फूड के क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियां पदार्पण कर चुकी है। चाहे हम भारतीयों को उसकी आवश्यकता हो या न हो। क्योंकि पापड़, चिप्स, सत्तू, इडली-डोसा, उपमा, चिवड़ा हमारे सुपर फास्ट फूड है। इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां इसलिए आ रही है कि इससे उन्हे भारी लाभ होगा। अपने पैसे की ताकत से वे सभी स्थानीय कंपनियों को हटाने की कोशिश कर रही है और काफी हद तक सफल भी हुई है।

भारत को विदेशी कंपनियों के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए आवश्यक है कि हमें अपनी जीवन पध्दति के बारें में विचार करना चाहिए कि हम कैसी जीवन पध्दति चाहते है भारतीय या पाश्चात्य। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनो पाश्चात्य जीवन पध्दति से पैदा विचारधाराएं है जिनमें अस्तित्व के लिए संघर्ष,, सर्वोत्तम का अस्तित्व, प्रकृति का शोषण और वैयक्तिक अधिकार की मूल धारणा प्रमुख आधार है। दूसरी ओर भारतीय जीवन पध्दति में जियो और जीने दो, शांतिपूर्ण सह अस्त्त्वि, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए उसका दोहन, वैयक्तिक अधिकारों की बजाय कर्तव्यपालन पर जोर दिया गया है। हमें कैसी जीवन शैली चाहिए इसका विचार करने का अब समय है अत: भारत में अब ऐसी मनोदशा बनानी होगी कि जिसमें आवश्यकताओं को कम किया जाये। समाज का उच्च वर्ग ऐसी जीवन शैली का आदर्श बन सकता है। जनता में लोग भिन्न-भिन्न स्तर के होते है हर स्तर पर जनता की आवश्यकताऐं पूर्ण करनी होगी। अगर भारत को स्वाबलम्बी , सम्पन्न और वैभवशाली बनाना है तो आत्मनिर्भरता हमारी पहली शर्त होनी ही चाहिए, आवश्यक है आत्मविश्वास। हमारी जनता नया कुछ करने अथवा बौध्दिकता में किसी से पीछे नहीं है। आज अनेक कर्मवीर भारत को बनाने हेतु अपने – अपने ढ़ंग से प्रयत्नशील है– नानाजी देशमुख और अन्ना हजारें। समग्र ग्राम विकास के कार्य में जुटे कार्यकर्ता, पुर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम……………आदि। क्या हम सब मिलकर भारत को पुन: विश्वगुरू बनाने के लिए ऐसा कुछ कर सकते है?

2 COMMENTS

  1. एक सुसंगत, विचारोत्तेजक और प्रेरणादायी लेख को संकीर्ण सोच का परिचायक बताने वालों की बुद्धि पर तरस आता है।
    जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
    ह्नदय नहीं वो पत्थर है, स्वदेश का जिसमें प्यार नहीं।
    भारत के लोगो को उनकी गौरवशाली परम्परा का स्मरण कराना, भूतकाल में भारतीयों द्वारा जो सभी क्षेत्रों में अद्वितीय उपलब्धियां प्राप्त की गई (जिन्हे आज मैकालेप्रणीत शिक्षा के कारण वे भूूल चुके है।) के बारें में पुनः स्मरण कराना तो एक पुनीत कार्य है और जो व्यक्ति अपने देश की गौरवशाली परम्पराओं, मान-बिंदुओं, महापुरूषों और गौरवशाली अतीत के प्रति घृणा का भाव रखता है, जिसके लिए भारत के लोगो ने कभी कोई अच्छा कार्य नहीं किया, देश के शत्रु जिसे मित्र और मित्र जिसे शत्रु के रूप में दिखाई देते है वो कितना राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है यह कहने की बात नहीं है किंतु चिंतनीय अवश्य है।
    क्या दुर्जन ही दूसरों में दोष देखता है? हाँ, जिन अच्छे बुरे गुणों को व्यक्ति दूसरों में देखता है। वे अक्सर उसी में होते है। man has generally the good or ill qualities which he attributes.
    दृष्टांत सुनिए–रास्ते के किनारें पर समाधि लगाकर बैठे किसी महात्मा को देखकर विभिन्न व्यक्तियों के मन में विभिन्न विचार उठे—
    चोर:- यह भी कोई चोर है। रात भर चोरी के लिए दौड़-धूप करने से यह थककर सो रहा है। यदि पुलिस वाले आ गए तो इसे पकड़ कर ले जायेगें।
    शराबी:- अधिक शराब पीने से इसकी यह दशा हो गई है कि सुबह तक नशा नही उतरा। अच्छा हुआ मैनें कम पी अन्यथा मेरी भी यही हालात होती।
    ढ़ोगीं:- लोगों को ठगने के लिए ध्यान का दिखावा करने में यह आदमी कुशल है, ऐसा लगता है।
    सज्जन:-ये तो कोई पहुंचे हुए त्यागी महात्मा है। प्रभु के स्वरूप दर्शन के आनंद में मग्न है। तब तक इनकी समाधि नही टूटती, मैं प्रतीक्षा करूगां और इनसे मन को एकाग्र करने की विधि सीखूगां।
    दोष दर्शन करने वाले चले गए और गुण दर्शन करने वाले ने महात्मा से लाभ उठा लिया। कहा गया है कि ”गुणिणी गुणज्ञों रमते, नागुण्शीलस्य गुणिनी पारितोषः।“ गुणी को देखकर गुणी प्रसन्न होता है, निर्गुणी गुणों से संतुष्ट नही होता।
    अच्छे लेख के लिए नकारात्मक टिप्पणियां करने का कार्य मात्र वे लोग ही कर सकते है जो भारत को सदा- सर्वदा के लिए चेतनाशून्य कर देना चाहते है।
    ऽ भारतीयों के बल, बुद्धि, ज्ञान, शौर्य, तप, त्याग का पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है। कई वामपंथी विचारकों और पाश्चात्य लेखकों द्वारा हमें बताया जाता है कि सुई से लेकर जहाज तक बनाना भारजीयों ने अंग्रेजों से सीखा जो कि सरासर गलत है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने भारत का स्वत्व जगाने का प्रयास किया लेकिन कुछ लोग जो हमारे देश को INDIA THAT IS BHARAT के नाम से पुकारते है, ने इसे भगवाकरण का नाम देकर विरोध किया। भारत की गौरवशाली परम्परा, स्वर्णिम अतीत के कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-
    ऽ राकेट का प्रयोग सर्वप्रथम भारत में टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ किया।
    ऽ पाई का मान सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने निकाला।
    ऽ पाईथोगोरस प्रमेय वास्तव में बोधायन सूत्र है।
    ऽ सुश्रुत दुनिया के प्रथम शल्य चिकित्सक थे।
    ऽ 18 वीं सदी में भारत के यंत्र शास्त्र में लिख है कि 300 वर्ष पूर्व हम विज्ञान में दुनिया में सबसे आगे थे।
    ऽ भारतीय वायु सेना का प्रकाशन in to the blunder में लिखा है कि कर्दम मुनि ने दुनिया का पहला यान बनाया था।
    ऽ भारद्वाज मुनि ने यंत्र सर्वस्व नाम की पुस्तक में सभी यानों-यंत्रों आदि का वर्णन किया है।
    ऽ महाभारत के युद्ध के कारण एवं प्रचलित रूढ़ियों के कारण विज्ञान नष्ट हुआ।
    ऽ नौका शास्त्र भी हमारे देश का बहुत विकसित था। 6000 वर्ष पूर्व सिन्धु नदी में बड़ी-बड़ी नौकाएं चलती थी।
    ऽ शून्य का ज्ञान भारत ने दिया।
    ऽ साहित्य के क्षेत्र में वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ है। ऋग्वेद दुनिया का सबसे प्राचीन ग्रंथ है।
    ऽ नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय थे जिसमें 60 विषय एक साथ पढाएं जाते थे।
    ऽ कला के क्षेत्र में स्थापत्य, संगीत, नाट्य, मूर्तिकलाएं पूरे विश्व में बेजोड़ थी।
    ऽ स्थापत्य कला में रामसेतु 17.50 लाख वर्ष पुराना एवं कोणार्क देलवाड़ा के मंदिर आज भी हमारे सामने विद्यमान है।
    ऽ चित्रकला में अजन्ता एलोरा की गुफाए हमारी स्वर्णिम गाथा कहती है।
    ऽ शौर्य के क्षैत्र में विश्व विजेता को भारत में मुहँ की खानी पड़ी।
    ऽ महाराणा प्रताप ने युद्ध के मैदान में बेहलोल खां के टोप, जिरह बख्तर घोड़े सहित दो टुकड़े कर दिए, क्या ऐसा कोई उदाहरण रूस, चीन, अमेरिका आदि के इतिहास में मिलता है।
    ऽ आर्यभट्ट ने बताया कि पृथ्वी गोल है।
    ऽ कपिल मुनि का सांख्य दर्शन, कणाद के वैशेशिक दर्शन में प्रकाश की गति का वर्णन।
    ऽ दशमलव पद्धति व एक से नौ तक के अंक भारत की देन।
    ऽ दिल्ली का विष्णु स्तम्भ आज भी सैंकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी बिना जंग के खड़ा है है।
    ऽ भारतीय इस्पात की बनी तलवार कर लोहा दुनिया के सभी वीर मानते थे।
    ऽ ढाका की मलमल का एक थान अंगूठी में से निकलता था।
    ऽ हमारे देश की मेधा आज भी अतुलनीय है।
    ऽ अमेरिका के न चाहने पर भी पोकरण विस्फोट करके भारत अणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बना।
    ऽ क्रायोजेनिक इंजन देने से रूस द्वारा मना करने पर भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया।

  2. जिस इंटरनेट पर आपने प्रस्तुत पोस्ट की वो -विदेशी है ….जिस बिजली और टेलिफोनके सहयोग से आप अपना कंप्यूटर चलाया करते हैं वो विदेशी है ….आपके सेनाओं के पास जो सुखोई ,ऍफ़ -१६ या मिराज -२००० विमान हैं वो आपके चाचा -ताऊ ने नहीं बनाये ….आपकी जेब में जो पेन है वो ,आपके हाथ में घडी है वो ,आपके घर में टी वी फ्रिज वासिंघ मशीन .ओवेन गेस चुल्हा एल पी गी गैस स्कूटर ,कार रेल ,हवाई जहाज .संपूर्ण साइंस विदेशी है ….आप सिर्फ आदम जात नंगे ही पेड़ों पर ,गुफाओं में ,कंदराओं में देशी हो सकते हैं ..वरना आपका पूरा जीवन विदेशी तकनालोजी पर आश्रित है ..इसी विदेशी तकनालाजी में आपके बच्चे अमरीका और चीन को टक्कर दे रहे हैं …इसी तरह अपना प्रजातंत्र ,संसद .संविधान एल्क्टोरल यहाँ तक की कुछ धाराएँ तो जैसे ३७६ ३०४ ३०२ दुनिया के १/३ में एक जैसी है और वह ब्रिटेन की देन है आपके अतीत में आपके पास सिर्फ अद्ध्यातम में महारत थी …उससे आपको स्वर्ग तो मिल जाएगा किन्तु जो सुख आप आज आधुनिक साइंस से उठा रहे हैं वो भारत का नहीं है ….भारत ने हालांकि दुनिया में सबसे पहले साइंस की शुरुआत की थी किन्तु ईसा पूर्व २५०० के आसपास इस देश में ऐसी ही विचारधारा के लोगों ने देश की जनता के हाथ में दंड कमंडल -भिक्षा पात्र पकड़ा दिया था ,और “भवति भिक्षाम देहि ‘से ससार भारत मक्कार -हो गया था -इन्ही सिद्धांतों के कारण लगातार २००० साल तक गुलाम रहा .आपने विश्व के भृष्ट पूंजीवाद से दुनिया के सर्वहारा की विचारधारा को भी विदेशी बताकर ये सावित कर दिया की अब हमें -अन्याय का प्रतिकार नहीं करना चाहिए और यही मार्क्स का सिद्धांत है .हमें भारत की सारी अस्पतालों से विदेशी ड्यिलेसिस एक्स -रे मशीन आप्रशन सिस्टम सभी तुरंत ख़त्म करने होंगे …क्योकि ये सभी विदेश से आयात हो रहें है .आप की soch sankeern है

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