हास्य-व्यंग्य/ मेट्रों में आत्मा का सफर

पंडित सुरेश नीरव

सब शरीर धरे के दंड हैं। इसलिए जब भी किसी स्वर्गीय का भेजे में खयाल आता है तब-तब मैं हाइली इन्फलेमेबल ईर्ष्या से भर जाता हूं। सोचता हूं कितनी मस्ती में घूमती हैं ये आत्माएं। जिंदगी का असली मजा तो दुनिया में ये आत्माएं ही उठाती हैं। न गर्मी की चिपचिप न सर्दी की कंपकंपी। क्या एअरकंडीशंड मस्तियां हैं इनके मुकद्दर में। होनी भी हैं। क्योंकि अब इनके मुकद्दर की ड्राफ्टिंग ब्रह्मा के बाबू चित्रगुप्त ने नहीं लिखी है। अब ये मुक्त ब्रह्मांड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का आनंद उठा रही आत्माएं हैं। मगर क्या करें हम तो अभी शरीर में हैं। हमें तो सारे भोग भोगने ही हैं। जबसे मेट्रो में चलने का दिहाड़ी व्यसन अपुन को लगा है माथे पर चिंता की रेखा की जगह मेट्रो की येलो लाइन-रेडलाइन उभरने-मिटने लगी हैं और थोबड़ा भी मेट्रो के टिकट-टोकन की तरह चिकना और गोल होता जा रहा है। अभी चेहरा गोल हो रहा है हो सकता है कल हमेशा के लिए गोल ही हो जाए। बसबाजी के अभ्यस्त दोस्त जब भी मुझे देखते हैं ए.राजा की तरह सम्मान देकर चिल्लाते हैं-आओ मेट्रू उस्ताद। हम बसेड़ुओं के बीच भी थोड़ा उठ-बैठ जाया करो। दोस्तों के जहरे व्यंग्य सुनकर मुंह कड़वा हो जाता है। कसम भगवान की अगर मेट्रो में चलने के कारण आदतें खराब नहीं हुई होतीं तो कब का इन के मुंह पर थूक देता। मगर हिदायतें याद आ जाती हैं- थूकना मना है। थूकने पर 500 रुपये जुर्माना। मेट्रे की शरीफाना हिदायतें रोज़ मेरे 500 रुपये बचा देती हैं। मैं कितनी तकलीफ में हूं,दोस्तों को क्या मालुम। वो तो बस मेरे मेट्रो-सुख से ही जलते रहते हैं। अब जलने का क्या है। जिन्हें सीट नहीं मिलती वे सीट पर बैठे यात्री को ऐसी हिकारत से देखते हैं जैसे ब्यूटीपार्लर से निकली किसी दुल्हन को कोई विधवा देखती हो। हिकारत भी इतनी गाढ़ी कि दुल्हन को भी अपने सुहागिन होने पर शर्मिंदगी हो जाए। जलने का क्या है। जलनेवाले तो सीट पर बैठे विकलांग और बूढ़ों को भी सीट पर बैठा देखकर मन-ही-मन भुनभुनाते रहते हैं। फिर सीटविहीन खुंदकखाऊ की नज़र जब सीट पर बैठी सजी-धजी महिलाओं की तरफ जाती है। तब आरक्षण का दर्द उसकी सवर्ण आत्मा को सालने लगता है। आरक्षण के दर्द से सेक्स चेंज कराने की धार्मिक भावना उसके मन में उछालें मारने लगती है। वह सोचता है कि अगर कहीं वो महिला होता तो ऐसे थोड़े ही खड़ा होता। बड़े-बड़े खुर्राट बुड्ढे च्यवनप्राश का डिब्बा समझकर उसके पल-दो-पल के हंसीन साथ का सेवन कर के जवान होने की जुगत भिड़ने लगते। और जो ऑलरेडी जवान होते वे नौजवान हो जाते। उसे अपने मर्द होने पर पहली बार शर्मिंदगी हुई। मर्दाने दिमाग में जनानी शर्मिंदगी का उसका यह पहला तजुर्बा था। सफर शुरू करने से पहले जो अपने को सलमान खान समझ रहा था अब खड़े-खड़े राखी सावंत होना चाह रहा है। उसे लगने लगता है कि उसके शरीर में तेज़ी से अति महत्वपूर्ण भौतिक-रासायनिक परिवर्तन हो रहे हैं। उसकी सख्त चमड़ी रोमरहित कोमल-कोमल रेशम-सी त्वचा और पेंट सिकुड़कर स्कर्ट में तब्दील होती जा रही है। वह सोच रहा है कि अगर वो सेंडो बनियान और हाफ पेंट पहनकर अपने ऑफिस चला जाए तो इस गंवारपन पर उसका बॉस यकीनन उसे आफिस से बाहर निकाल देगा। और अगर कहीं वो कन्या हो और स्लीव लैस और टॉप में ऑफिस चला जाए तो उसका बॉस शाम को उसे डिनर कराता हुआ घर तक छोड़ने जाएगा-ही-जाएगा। फिर वह खड़े-खड़े बुदबुदाता है- अगर कहीं मैं कन्या होता तो इस नारीपूजक देश में जहां एन.डी.तिवारी-जैसे तपस्वी रहते हों वह बस या मेट्रो में ही क्यों सफर करता। और यदि आदमी-औरत की योनि से मुक्त होकर कहीं वह सिर्फ प्योर आत्मा ही होता तो महिला सीट पर बिना किसी रोक-टोक के बैठ सकता था भले ही सीट खाली न हो। और मेट्रो की कृपा से इस बहाने किसी शरीर को भी किसी दिव्य आत्मा का स्पर्श मिल जाता। वरना आजकल तो शरीर से ही शरीर का मिलन होता है।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here