हास्य-व्यंग्य / वन्दे श्वान भारतम

पंडित सुरेश नीरव

मानव समाज में कुत्तों की हमेशा से पूछ रही है। ऐसा माना जाता है कि उसकी इस पूछ में सारा योगदान खुद उसकी पूंछ का ही रहा है। उसकी हिलती पूंछ देखकर बेचारे आदमी का भी मन पूंछ हिलाने को ललचा-ललचा जाता है। भले ही ईश्वर ने उसे कुत्ते की तरह पूंछ नहीं दी फिर भी वह अफसर के आगे पूंछ हिलाने का कठिन कारनामा कुत्तों की प्रेरणा लेकर कर ही डालता है। पूंछ हिलाने की कुत्तों की इस प्राचीन लोककला का मानव हमेशा से ही मुरीद रहा है। इसीलिए तो सतयुग से लेकर आज के लेटेस्ट कलियुग तक कुत्तों के रुतबे में एक मिलीमीटर की भी कमी नहीं आई है। जिन वेदों में द्विवेदी या त्रिवेदी की तो बात छोड़िए एक अदद किसी चतुर्वेदी को भी जगह नहीं मिल पाई उन पवित्र वेदों में एक नहीं बल्कि श्याम और शबिल नामक दो कुत्तों ने अपनी हाजरी दर्ज़ कराके साबित कर दिया कि कुत्तों के आगे आदमी की कोई हैसियत नहीं। आदमी से कुत्ता हमेशा ज्यादा प्रतिष्ठित रहा है। शायद इसलिए कि कुत्ता कभी चरित्रहीन नहीं होता है। और न केवल वो आदमी को अपराधी के घर तक पहुंचाता है बल्कि सोए हुए काल देवता मिस्टर यमराज को भी सिंसियरली जगाता है। अपराधी तक कुत्तों के पहुंचने की मौलिक प्रतिभा के आगे तब बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो जाता है जब खुद अपराधी कुत्ते पाल लेते हैं और कुत्तों से सावधान की तख्ती अपने दरवाजे पर टांग देते हैं। सावधान तो आदमी को अपराधी से रहना चाहिए शरीफ कुत्तों से सावधान होने की क्या जरूरत होती है। हो सकता है यह बोर्ड मकान मालिक अपने चोर भाइयों को सावधान करने के लिए लगाते हों क्योंकि ऐसी मान्यता है कि कुत्ते चोरों पर ही भूंकते हैं।

कुत्तों की भावुक प्रशंसा को मेरी पुरुषवर्चस्वी मानसिकता न मान लिया जाए इसलिए मैं मैडम श्वानों का भी ससम्मान स्मरण सरमा नामक उस दिव्य कुतिया के जरिए करना चाहूंगा जिसने इंद्र की चोरी गई गऊओं की बरामदगी में सीबीआई से भी ज्यादा फास्ट कार्रवाई कर इंद्र को भी अपना अटूट फेन बना डाला था।

आज के भ्रष्ट दौर में भी जब ईमानदार कुत्ते अपराधियों को ढ़ूंढते हुए बार-बार थाने पहुंच जाते हैं तो इनके निर्मल कुत्तत्व को देखकर कुत्तों की पूंछ की डिजायन में ही महकमें के लोगों की भंवें टेढ़ी हो जाती हैं।

ये हैं कुत्तों की ड्यूटी -परायणता। जिसकी ऐवज में ये स्वाभिमानी कभी किसी प्रमोशन की मांग भी नहीं करते। कुत्तों की इसी अदा पर तो आदमी क्या देवता भी फिदा हो जाते हैं। यही कारण है कि आज भूतपूर्व राजे-महाराजे और जनता से खारिज नेता भले ही कुत्तों-जैसी जिंदगी जीने को विवश हों मगर कुत्तों के शाही ठाट-बाट में कहीं कोई कमी नहीं आई है। कुत्तों के इसी टनाटन मुकद्दर से कुंठित होकर किन्हीं दिनकर नामक कवि ने लिख डाला था- श्वानों को मिलता दूध यहां बच्चे भूखे अकुलाते हैं। बताइए कवि होकर कुत्तों के मुंह लगना कौन-सी शराफत है। वीतरागी इन कुत्तों ने तो कभी आदमी पर व्यंग्य नहीं किया कि कैसे पूंछ हिला-हिलाकर पुरस्कार और पद गड़प्प लेते हो तुम लोग। क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पातवाली दार्शनिक मुद्रा में कुत्तों ने हमेशा आदमी को माफ किया है। आदमी के क्या मुंह लगना। आखिक कुत्तों की भी तो कोई हैसियत होती है। गरज हो तो वे कुत्तों का मुंह चाटें। बहुत कम लोग जानते हैं कि श्रीराम के यंगर ब्रदर भरत कुत्तों के बड़े शौकीन थे। रामचंद्रजी कुत्तों- के शौकीन नहीं थे।

कुत्तों की दुआओं से ही भरत अयोध्या के राजा बने और कुत्तों से बेरुखी के कारण ही राम को वनवास भोगना पड़ा। भगवान भैरों और दत्तात्रेय का श्वान प्रेम इंटरनेशनली जगजाहिर है। यह कुत्ते की ही दमखम थी कि वो अपने अकेले के इवविटेशन पर मालिक धर्मराज युधिष्ठिर को विद फेमली सशरीर स्वर्ग ले गया। अगर आदमी की इतनी औकात होती तो स्वर्ग से लात खाकर उसे त्रिशंकु नहीं बनना पड़ता। कलियुग में चंद्रमा से मामा के तमाम रिश्ते बनाकर भी आदमी चांद पर श्वानसुंदरी लायका से पहले नहीं जा पाया। गोरे-काले के मुद्दों पर जानवरों की तरह लड़ते हुए आदमी को कुत्तों से ट्यूशन पढ़कर नस्ली सदभाव का पाठ सीखना चाहिए। वसुधैव कुटुंमकम की ग्लोबल सोच के कारण कुत्ते विश्वमान्य हैं। इसीलिए दीपावली के एक दिन बाद नेपाल में कुत्तों

के सम्मान में कुकुर-तिहार यानी श्वानपर्व मनाया जाता है तो चीनी कैलेंडर में पूरा एक साल ही कुत्ता साल होता है। चाहे पांचसितारा आराम का लुत्फ उठाते कुत्ते हों या गली के कुत्ते कुत्तों में कहीं कोई वर्ग संघर्ष नहीं होता। और न ही किसी लोकपाल विधेयक की मांग ही उठती है। डबल डॉग और ब्लैक डॉग व्हिस्की के साथ होट डॉग खाकर आदमी कुत्ता होने की कितनी भी दुर्दांत कोशिश करले और धोबी का कुत्ता घर का न घाट की पदवी भले ही पा ले मगर वह परफैक्ट कुत्ता कभी नहीं बन सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुत्तों का कुकरमूल संस्कार है। एक बार एक सिरफिरे एकलव्य ने तीर से एक श्वान का मुंह बंद कर अभिव्यक्ति पर सेंसरशिप लगाने की जघन्य हरकत की थी।

इस उद्दंडता के दंडस्वरूप ही द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा कटवाकर कुत्तों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया था। हर साल श्राद्ध पश्र में ब्राहमणों से ज्यादा मार्केट वेल्यू कुत्तों- की होती है। यह हमारी संस्कृति है।

खुशी की बात है कि आजादी के बाद हमारे देश में कुत्तों- की इज्जत में माइंडब्लोइंग इजाफा हुआ है। कुत्तों के इस जलवो जलाल से कुंठित होकर राष्ट्रपशु शेरों और बाघों ने आत्म हत्याएं करली हैं और बचे-खुचों की सुपारी उठवाकर गीदड़ो ने हत्याएं करवा दी हैं। ताज्जुब नहीं कि संख्याबल के आधार पर कल कुत्तों को भारत देश का राष्ट्रीय पशु घोषित कर दिया जाए।

हमें खुशी है कि भले ही हमारा न हो मगर अपने देश में कुत्तों का और इन त्रैलोकमान्य मान्यवर कुत्तों के कारण इस देश का भविष्य भरपूर उज्ज्वल है। कुत्ता होना ही बड़ी बात है अब इंडिया में। वंदे श्वान भारतम..।

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